Why do leaders of religious organisations sometimes form sects and fight with each other – Hindi?

by Chaitanya CharanFebruary 9, 2017

Anwser Podcast

लिप्यंतरण तथा संपादन: अम्बुज गुप्ता तथा केशवगोपाल दास

प्रश्न- कई बार विभिन्न धार्मिक पंथों में काफी द्वेष हो जाता है, वे एक दूसरे में दोष देखने लगते हैं, और उनके सम्बन्ध वड़े बुरे हो जाते हैं। भगवान तो कहते हैं ऐसे नहीं करना चाहिए। तो फिर ऐसा क्यों होता है?

उत्तर (संक्षिप्त)-

  • मंदिर जाने का उद्देश्य भगवान से अपनी निकटता बढ़ाना है। जब व्यक्ति अहंकारवश इस उद्देश्य को भूलने लगता है तो मन मुटाव जैसी समस्याऐं आने लगती हैं।
  • उदाहरण के लिए, धार्मिक संस्थाओं में व्यक्ति जब शास्त्रों को जान जाता है तो सम्भव है उसे इस बात का अहंकार हो जाए कि वह तो बहुत ज्ञानी है। ऐसी अवस्था में वह अन्यों में दोष देखना आरम्भ कर सकता है।
  • इन सब से बचने के लिए हमें दो बातों का ध्यान रखना है – (1) अपने उद्देश्य को नहीं भूलना है (2) ऐसे भक्तों का संग लेना है जिनसे हमें भक्ति में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती रहे।

उत्तर (विस्तृत)- हम जब भी किसी मंदिर अथवा आध्यात्मिक संस्था में जाते हैं, तो वहाँ जाने का उद्देश्य क्या है। वह उद्देश्य बहुत महत्वपूर्ण है। क्या हम वहाँ भगवान के करीब जाने के लिए जा रहे हैं? क्या हम आध्यात्मिक प्रगति करने के लिए जा रहे हैं? भगवान का मंदिर या आध्यात्मिक संस्था है, वास्तव में एक अस्पताल के समान है। वहाँ हम अपने षडविकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य) को कम करने के लिए जा रहे हैं। यदि हम अच्छी तरह से भक्ति करते हैं, गीता के ज्ञान का अनुशीलन करते हैं, तो हम देखेंगें कि हमारे जीवन में परिवर्तन होगा। हम प्रगति करेंगे। हमें अपने ध्येय को कभी नहीं भूलना है। जब हम ध्येय को ध्यान में रखते हैं तो उसके लिए जो भी अनुकूल है हम उसे स्वीकार करेंगे। भक्तों का संग जिनसे हमें प्रेरणा मिलती है, स्वयं को परिवर्तित करने के लिए, स्वयं को अच्छा बनाने के लिए, उनका संग हम स्वीकार करेंगे और जो प्रतिकूल हैं उनसे हम दूर रहेंगे। यहाँ पर यह जानना आवश्यक है कि हमें चीजें प्रतिकूल क्यों लगने लगती हैं? ऐसा इसलिए है कि भले ही कोई भगवा वस्त्र पहन ले या किसी धार्मिक संस्था से जुड़ जाए, वहाँ किसी पद को प्राप्त कर ले, इत्यादि, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इससे व्यक्ति के सारे विकार चले गए हैं। वे विकार अभी तक हो सकते हैं। हमें स्वयं को न्यायधीश बनाकर दूसरों के सही-गलत का फैसला नहीं करना है। हमें इन सब में ज्यादा पड़ने की जरूरत नहीं है। संभव है कि किसी में अहंकार अधिक हो। कई बार धार्मिक संस्थाओं में व्यक्ति शास्त्र पढ़कर सोचने लगते हैं कि मैं ही सही हूँ क्योंकि मेरे पास शास्त्र का ज्ञान है। दूसरा व्यक्ति भी शास्त्र पढ़ता है और उसे  लगता है कि मुझे भी शास्त्र का ज्ञान है। इससे नम्रता आने की जगह कभी-कभी अहंकार आ जाता है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वह व्यक्ति धर्म से जुड़ने का उद्देश्य भूल गया है। उद्देश्य क्या है? भगवान के पास जाना। पर व्यक्ति जब उद्देश्य भूल जाता है तो सोचता नहीं है कि मैं यहाँ पर किसलिए आया हूँ। वह सोचने लगता है – मुझे यहाँ इतना आदर मिल रहा है, मुझे ये सब मिल रहा है, मुझे ये और चाहिए, वो और चाहिए, इत्यादि। धार्मिक संस्थाओं में ऐसे लोग कभी भी पथभ्रष्ट हो सकते हैं। धार्मिक संस्था में आकर अहंकार कम होना चाहिए किन्तु इसके विपरीत अहंकार बढ़ सकता है। जो आसक्ति कम होनी चाहिए थी वह आसक्ति बढ़ सकती है। भगवान भी भगवद्गीता में बताते है कि ऐसा हो सकता है।

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।

(भ.गी. 16.17)

भगवान कहते हैं कि नाम-यज्ञ करो। किन्तु कुछ लोग ऐसे होते है जो यज्ञ करते हैं नाम के लिए। प्रतिष्ठा के लिए यज्ञ करते हैं। कई बार ऐसा हो सकता है। ऐसे व्यक्ति धार्मिक संस्था में तो आए हैं किन्तु वे अपना उद्देश्य भूल गए हैं। कभी-कभी ऐसा हो सकता है कोई व्यक्ति अस्पताल में आता है अपनी बीमारी ठीक करने के लिए। पर होता क्या है कि वह यह देखने लगता है कि इसको क्या बीमारी है, उसको क्या बीमारी है। दूसरों को क्या बीमारी है उसे देखने से मुझे क्या फायदा होने वाला है। इसके विपरित हो सकता है कि यदि मैं दूसरे बीमारों का ज्यादा संग करूँ तो उनकी बीमारी भी मुझे लग जाएगी। मैं पहले से ही बीमार हूँ और किसी अन्य की बीमारी भी मुझमें आ गई। इसलिए भगवान हमको कहते हैं-

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।

(भ.गी. 2.41)

जो इस मार्ग पर चलते हैं वे अपने प्रयोजन में दृढ़ रहते हैं।

हमें अपना उद्देश्य ध्यान में रखना है। यदि हम भक्तों के संग में भी हैं तो भी हमें अपना उद्देश्य, भगवान के करीब जाना, ध्यान में रखना है। उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जिस संग से मुझे सहायता मिलती है वह संग मैं स्वीकार करता हूँ। दूसरे संग के बारे में मुझे आंकलन नहीं करना है। मुझे स्वयं उचित स्तर पर आकर अन्यों को गलत नहीं बोलना है। यदि वह संग मेरे अनुकूल नहीं है तो उससे मैं दूर रहूँगा। इस प्रकार यदि हम ध्यान रखेंगे तो हम आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करते रहेंगे।

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