१२. इन्द्रियों की अग्नि में ईंधन न डालें

by March 9, 2017

किसी वस्तु को स्पर्श करने, चखने, सूंघने, देखने तथा सुनने से इन्द्रियों को सुख मिलता है| आज पूरी दुनिया इन पाँच स्रोतों से सुख भोगने के पीछे भाग रही है| भौतिकवादी जीवन का यही एकमात्र उद्देश्य है|
भौतिकवाद भोगवाद को बढ़ावा देता है| भौतिकवाद वस्तुओं को ऐसे सुन्दर-सजीले रूप में प्रस्तुत करता है कि वे और अधिक आकर्षक बन जाती हैं| इस प्रकार हमारी भोग-इच्छा रूपी अग्नि में ईंधन का काम करती है| तकनीकी प्रगति और मीडिया का दुरूपयोग करके कामुकता को बढ़ावा दिया जाता है| लोगों को इस भ्रम में डाला जाता है कि वे इन वस्तुओं को प्राप्त करके सुखी हो सकते हैं| परन्तु अधिकांश लोग इन भोग वस्तुओं के पहुँच से दूर रहते हैं| इस प्रकार, चारों ओर प्रदर्शित भोग-वस्तुएँ लोगों की अतृप्त वासनाओं को बढाने में ईंधन का कम करती है और उन्हें जलाती रहती है|

यद्यपि हम इस भोगवादी प्रचार को नहीं रोक सकते, किन्तु व्यक्तिगत रूप से इसपर रोक लगा सकते हैं| अर्थात्, बुद्धि कि सहायता से मन में उठने वाले विचारों पर अंकुश लगा सकते हैं| मूल रूप से हम सब आत्मा हैं और सर्वाकर्षक भगवान् श्रीकृष्ण के सनातन प्रेम में आनंद लेना हमारा अधिकार है| हमें यह ज्ञान देकर भगवद्गीता हमारी बुद्धि को सशक्त बनाती है|

आत्मा के रूप में हम स्थाई एवं सनातन हैं और यह संसार अस्थाई है| भगवद्गीता (२.१४) बताती है कि हमें सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख आदि के अस्थाई स्वभाव को समझकर उन्हें सहन करना चाहिए| हमें लगता है कि हमें केवल दुखों को सहन करना है और सुखों का भोग करना है| फिर गीता क्यों हमें सुख-दुःख दोनों को सहन करने के लिए कहती है? क्योंकि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| जितना अधिक हम सुखद परिस्थितियों में भोग करेंगे उतनी अधिक हमारी चेतना भौतिक संसार में लिपटने लगेगी, और फिर अप्रिय परिस्थिति उत्पन्न होने पर हमें उतना ही अधिक दुःख होगा| इसलिए हमें सुखों को भी सहन करना है| सहन करने का अर्थ है कि हमें सुखों की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना नहीं करनी है और आवश्यकता से अधिक उसमे संलग्न नहीं होना है| सुखों को सहन करने से हमारी चेतना सांसारिक बंधन से मुक्त होने लगती है|
क्या सहन करने का अर्थ सबकुछ छोड़ना है? भक्तिमार्ग पर सहन करने का अर्थ सबकुछ छोड़ना नहीं होता| भक्तियोग हमें श्रीकृष्ण से जोड़ता है और हमें इस संसार के भोगों से कहीं अधिक सुख प्रदान करता है|

हे कौन्तेय! क्षणभंगुर सुख-दुःख का आना और समय के साथ उनका चले जाना, यह सर्दी और गर्मी के आने-जाने के समान है| हे भरतवंशी, ये सुख-दुःख इन्द्रिय-स्पर्श से जन्म लेते हैं| मनुष्य को चाहिए कि विचलित हुए बिना इन्हें सहन करना सीखे|
(भगवद्गीता २.१४)

About The Author