९. शल्यचिकित्सा हिंसा नहीं है, हितकारी है

by March 9, 2017

कुछ लोग कहते हैं, “भगवद्गीता सिखाती है कि किसी व्यक्ति की हत्या करने में कोई बुराई नहीं हैं, क्योंकि एक-न-एक दिन वैसे भी शरीर की मृत्यु होने वाली है|”

सामान्य व्यक्ति की यही सोच है| परन्तु गीता इसलिए हत्या की अनुमति नहीं देती क्योंकि शरीर विनाशी है, अपितु इसलिए क्योंकि कई बार धर्म की रक्षा करने हेतु हिंसा आवश्यक हो जाती है| गीता आत्मा के अविनाशी तथा शरीर के विनाशी स्वभाव का वर्णन करती है जिससे अर्जुन भावुकतावश अपने धर्म से पथभ्रष्ट न हो|

आइये शल्यचिकित्सा का उदाहरण लें| कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि यदि डॉक्टर ऑपरेशन द्वारा किसी पीड़ित रोगी का कोई सड़ा हुआ अंग काटता है तो वह उचित है| भगवद्गीता भी यही कहती है| रोगी व्यक्ति के जीवन की रक्षा के लिए उसके एक अंग को काटना उचित है|

आइये कुरुक्षेत्र युद्ध के सन्दर्भ में इस उदाहरण को देखें| उस समय समाज कि दशा एक पीड़ित रोगी के समान थी और अर्जुन शल्यचिकित्सक के समान| कौरव लोभ और द्वेष के कारण सड़े अंग बन चुके थे| उन्होंने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया था| चूँकि सामान्य लोग राजाओं और नेताओं का अनुगमन करतें हैं इसलिए कौरवों की दूषित मानसिकता के शीघ्र ही समाज में फैलने का खतरा पैदा हो गया| कौरवों ने पाण्डवों द्वारा भेजे गए सारे शांति-प्रस्ताव ठुकरा दिए| उनका रोग असाध्य बन चुका था और पूरे समाज को बचाने के लिए उन्हें काटना एकमात्र रास्ता बचा था|

अर्जुन द्वारा युद्ध से भागना किसी शल्यचिकित्सक द्वारा ऑपरेशन करने से मना करने जैसा है| श्रीकृष्ण शल्यचिकित्सक के मार्गदर्शक थे जिन्होंने शल्यचिकित्सक के हृदय-दौर्बल्य से ऊपर उठने में उसकी सहायता की| गीता (२.२) इंगित करती है कि ऐसी अनावश्यक हृदय दुर्बलता किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति को शोभा नहीं देती, चाहे वह योद्धा हो या शल्यचिकित्सक|

गीता की शिक्षाओं से अर्जुन को बल मिला| अंततः (१८.७३) वे न केवल युद्ध करने अपितु श्रीकृष्ण की इच्छानुसार कार्य करने के लिए सज्ज हो गए| यह दर्शाता है कि वे अपने कर्तव्य को हिंसा के रूप में नहीं देख रहे थे| वे समझ गए कि समाज के दीर्घसूत्री कल्याण हेतु श्रीकृष्ण की एक योजना है और उन्हें उस योजना में केवल अपनी भूमिका निभानी है|

श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह अशुद्धता कहाँ से प्रवेश कर गयी? जो मनुष्य जीवन के वास्तविक मूल्य को जानता है उसे इस प्रकार की बातें शोभा नहीं देती| इस प्रकार की बातों से मनुष्यों को उच्चतर लोकों की नहीं वरन् अकीर्ति एवं अपयश ही प्राप्त होता है|
(भगवद्गीता २.२)

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