Hindi – Chapter 4 Bhagavad Gita And Decision Making Bhagavad Gita Overview – Chaitanya Charan Das
भौतिक जगत में जब से जीव आए हैं, तब से उनके अंदर युद्ध चल रहा है।
कलयुग में यह युद्ध और भीषण हो गया है। यह युद्ध काम, क्रोध, लोभ जैसे आंतरिक शत्रुओं से है। इनका सामना कैसे करना है — यही ज्ञान भगवान अभी अर्जुन को दे रहे हैं। लेकिन यह ज्ञान कोई नया नहीं है, यह बहुत पहले से चला आ रहा है।
अभी जो चौथा अध्याय है, उसमें कुल 42 श्लोक हैं।
भी रूपा जी इसे Transcendental Knowledge (दिव्य ज्ञान) शीर्षक देती हैं। अगर हम इस अध्याय का विभाजन करें:
- श्लोक 1 से 15 तक: भगवान आध्यात्मिक ज्ञान का इतिहास बताते हैं — यह ज्ञान कैसे सूर्य से चला, फिर इक्ष्वाकु, फिर राजर्षियों को मिला और अब अर्जुन को दिया जा रहा है।
- अर्जुन प्रश्न करता है कि “आपने यह ज्ञान सूर्य को कैसे दिया?” — भगवान उत्तर देते हैं कि वे दिव्य हैं, बार-बार जन्म लेते हैं लेकिन उनका जन्म और कर्म दिव्य है।
- श्लोक 15 से 24 तक: भगवान बताते हैं कि कर्म बंधन से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है। “अकर्म” की स्थिति कैसे प्राप्त करें।
- फिर भगवान बताते हैं कि यज्ञ की भावना से कर्म करें — तब कर्म बंधन नहीं देता।
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि:
- यह ज्ञान बहुत प्राचीन है।
- वे स्वयं इस ज्ञान के स्त्रोत हैं।
- इस ज्ञान से कर्म बंधन से मुक्ति मिलती है।
- इस ज्ञान को यज्ञभाव से अपनाना चाहिए।
- इस ज्ञान की महिमा क्या है — यह अंत में बताया गया है।
तीसरे अध्याय का लिंक चौथे अध्याय से
तीसरे अध्याय के श्लोक 3.35 में भगवान ने बताया कि हर व्यक्ति को अपने धर्म के अनुसार ही कार्य करना चाहिए, चाहे वह कम गुण वाला क्यों न हो।
यहीं से चौथे अध्याय की शुरुआत होती है — जहां भगवान बताते हैं कि उन्होंने यह ज्ञान पहले सूर्य को दिया।
भगवान ने पहले स्वयं के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कहा था, लेकिन अब वह बताते हैं कि:
- वे केवल उपदेशक नहीं हैं,
- बल्कि इंद्रिय संयम का उद्देश्य भी वही हैं।
- इंद्रियों को भगवान पर ही केंद्रित करना चाहिए।
भगवान कभी स्वयं की महिमा नहीं करते, लेकिन जहां ज़रूरी हो, वहां अपनी स्थिति का उल्लेख करते हैं — ताकि अर्जुन को बताया जा सके कि यह ज्ञान कोई सामान्य नहीं है, यह दिव्य और प्रामाणिक है।
उदाहरण: जैसे कोई डॉक्टर दवा की चर्चा करते समय कहे कि “मैंने इस पर 10 साल रिसर्च की है”, तो वह अपनी पढ़ाई का बखान नहीं कर रहा, वह उस ज्ञान की विश्वसनीयता को पुष्ट कर रहा है।
भगवान का यह उल्लेख “Self-glorification” नहीं है, यह अपने बिंदु को मजबूत करने का प्रयास है।
कर्मयोग की पूर्णता क्या है?
- निष्काम भाव से कर्म करना।
- कर्म भोग के लिए नहीं, योग के लिए करना।
- कर्म करते हुए भगवान के लिए करना।
- कर्म बंधन से परे जाना।
भगवान खुद कहते हैं:
- मैं सबसे ऊँची स्थिति में हूँ, फिर भी मैं कर्म करता हूँ।
- इसका मतलब है कि कर्म करना छोड़ना नहीं है, चाहे आप कितने भी ऊपर क्यों न हों।
4.1 में जब भगवान कहते हैं — “एवं विवस्वते योगं प्रोक्तवान अहम् अव्ययम्”,
तो इसका उद्देश्य अपनी महिमा बताना नहीं है, बल्कि यह जताना है कि यह ज्ञान प्रामाणिक है, सनातन है, और पहले भी दिया गया है।
यह अर्जुन की समस्या के समाधान के लिए है — यह दिखाने के लिए कि यह ज्ञान अभी बना नहीं है, यह हमेशा से रहा है।
जिस समस्या से अर्जुन जूझ रहा है, उससे पहले भी लोग जूझ चुके हैं — और उन्होंने इसी ज्ञान से समाधान पाया।
अंतरंग युद्ध हर किसी को करना पड़ता है।
जैसे मान लीजिए कोई बीमार हो गया और डॉक्टर के पास जाता है। मैं एक व्यक्ति से मिला था — एक तरह से वह शुभचिंतक थे। वे बहुत प्रसन्न लग रहे थे, कई दिन तक मंदिर आते थे, फिर एक हफ्ते के लिए नहीं आए। मैंने पूछा, “कहाँ थे आप?” बोले, “मैं हॉस्पिटल में एडमिट था।”
पर वो बहुत खुश थे! बोले, “मुझे ऐसी बीमारी है जो दुनिया में किसी को नहीं है!”
सात दिन तक डॉक्टर रिसर्च करते रहे कि यह बीमारी क्या है।
और फिर वह व्यक्ति खुद ही कह रहे थे: “I am the first person with this condition!”
मतलब उन्हें इस बात में भी आनंद था कि उन्हें कोई अनोखी बीमारी है।
अब सोचिए, अगर कोई डॉक्टर आपको कहे, “तुम्हें जो हुआ है, मैंने कभी देखा ही नहीं है,”
तो क्या हमें खुशी होनी चाहिए? नहीं — हमें चिंता होनी चाहिए!
क्योंकि इसका मतलब है कि डॉक्टर के पास न अनुभव है न समाधान। वह हम पर प्रयोग करने वाले हैं।
वही डॉक्टर अगर कहे:
“यह बीमारी मैंने पिछले 30 वर्षों से कई बार ट्रीट की है। कोई मुश्किल नहीं है, ठीक हो जाएगा,”
तो हमें शांति मिलती है।
भगवान भी यही कर रहे हैं।
वह अर्जुन को बता रहे हैं — जो तुम्हारा संघर्ष है, वह कोई अनोखा या नया नहीं है।
यह ज्ञान मैं पहले भी दे चुका हूं। यही प्रामाणिकता (authenticity) है।
भगवान जब पहले खुद के बारे में कहते हैं तो अर्जुन उनसे कुछ नहीं पूछते।
लेकिन जब भगवान कहते हैं, “मैंने यह ज्ञान सूर्य को दिया था,”
तब अर्जुन पूछते हैं — “आपका जन्म तो अभी हाल ही में हुआ है, और सूर्य तो बहुत पहले से है, तो आपने सूर्य को कैसे ज्ञान दिया?”
यह सवाल अपने आप में एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि भगवद्गीता में प्रश्न कैसे पूछे जाने चाहिए।
कृष्ण एक श्रेष्ठ शिक्षक हैं, और अर्जुन एक आदर्श विद्यार्थी।
अर्जुन का यह प्रश्न जिज्ञासा और नम्रता दोनों दर्शाता है।
वह यह नहीं कह रहे कि “आप झूठ बोल रहे हो,” और न ही अंधविश्वास में कह रहे कि “आपने जो कहा वो ठीक ही होगा।”
वह कह रहे हैं — “मैं इसे कैसे समझूं?”
यही सही विद्यार्थी का लक्षण है।
वह जिज्ञासु है, परंतु अहंकारी नहीं।
और शिक्षक भी जब कुछ कठिन बात बताते हैं, तो उन्हें यह पूछना चाहिए — “क्या मैं स्पष्ट हो पा रहा हूँ?”
ज्ञान का आदान-प्रदान तभी अच्छे से होता है जब दोनों — शिक्षक और विद्यार्थी — नम्र होते हैं।
विद्यार्थी को यह न लगे कि शिक्षक समझा नहीं पा रहा, और शिक्षक को यह न लगे कि विद्यार्थी समझ ही नहीं सकता।
अब अर्जुन भगवान से उनका स्थान और स्थिति पूछ रहे हैं — पहली बार गीता में।
भगवान उत्तर देते हैं —
“तुम और मैं दोनों ने कई जन्म लिए हैं, फर्क यह है कि मुझे याद है, तुम्हें नहीं।
क्यों? क्योंकि मेरा शरीर दिव्य है।
मैं धर्म की स्थापना के लिए आता हूं, और प्रेम की स्थापना के लिए भी।”
यहां से (श्लोक 4.5 से 4.15 तक) भगवान का अब तक का सबसे लंबा आत्मवर्णन आता है।
यह गीता के “नॉन-भक्ति योग” खंड में भगवान की सबसे विस्तृत आत्म-व्याख्या है।
भक्ति योग खंड (अध्याय 7 से 12) में भी भगवान अपनी महिमा बताते हैं, पर वहाँ उद्देश्य होता है — किसकी भक्ति करनी चाहिए, क्यों करनी चाहिए।
यहाँ भगवान अपने बारे में इसलिए बता रहे हैं क्योंकि अर्जुन ने प्रामाणिक प्रश्न पूछा है।
भगवान बड़े दक्ष शिक्षक हैं।
वे:
- अपने दिव्य शरीर के बारे में बताते हैं,
- अपने अवतार के उद्देश्य के बारे में बताते हैं,
- और फिर तुरंत मूल विषय पर लौटते हैं — विभिन्न स्तर के लोग समाज में कैसे कर्म करें।
हर कोई भक्ति नहीं कर सकता।
कई लोग देवताओं की पूजा करते हैं, कई निष्काम भाव से कर्म करते हैं।
पर जो महान लोग हैं, वे ऐसे कर्म करते हैं जिससे वे कर्म बंधन में नहीं फंसते।
इस तरह, श्लोक 4.10 से 4.15 तक भगवान बताते हैं कि कई लोग पहले भी मेरी ओर आकर्षित हुए हैं और मेरी प्राप्ति कर चुके हैं।
भगवान जब कहते हैं कि “Many in the past have attained me,” यानी कि पहले भी जिन्होंने मेरे द्वारा बताए गए ज्ञान को अपनाया है, उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया है। जैसे पहले लोगों ने अपने कर्म किए थे, वैसे ही अब अर्जुन को भी कर्म करना चाहिए। यह बात सुनने में समान लग सकती है, लेकिन इसमें सूक्ष्म अंतर है।
पहली बात यह है कि भगवान बता रहे हैं कि जो लोग मुझे जान जाते हैं, जब मैं अवतरित होता हूँ, तो वे मुझे प्राप्त कर लेते हैं — यह भक्ति योग का स्तर है। लेकिन अभी तक भगवान ने अर्जुन से भक्ति योग की स्पष्ट चर्चा नहीं की है। अर्जुन की चिंता है कि वह कर्म बंधन में फँस जाएगा, इसलिए भगवान यह स्पष्ट कर रहे हैं कि पहले भी जो मोक्ष के इच्छुक थे, उन्होंने उसी ज्ञान को अपनाकर मोक्ष पाया।
यहाँ भगवान अपने स्वरूप, उद्देश्य, और संसार में अवतरण का कारण बताते हैं। अर्जुन का जो प्रश्न है, वह मुख्य विषय से थोड़ा हटकर है — एक तरह का टेंजन्ट (tangent) है। ऐसे में उत्तर कैसे देना चाहिए? कोई कह सकता है कि ऐसे प्रश्नों का उत्तर न दिया जाए क्योंकि वे विषय से संबंधित नहीं हैं। लेकिन एक अच्छा शिक्षक या प्रचारक क्या करता है? वह उत्तर तो देता है, लेकिन उत्तर देते समय मूल विषय से भटके बिना, फिर से मुख्य विषय पर लौट आता है।
जैसे कबड्डी खेलने वाला विपक्षी पक्ष में जाकर टच करके वापस आ जाता है, वैसे ही एक शिक्षक भी ऐसे टेंजन्ट प्रश्नों को छूकर मूल विषय पर लौट आता है। भगवान ने यही किया — अर्जुन के प्रश्न को महत्व दिया, विस्तार से दस श्लोकों में उत्तर दिया, फिर मुख्य विषय पर वापस आ गए।
अब तीसरे भाग में भगवान यह बता रहे हैं कि अकर्मक कैसे बनना है — यानी कर्म करते हुए भी कर्मबद्ध कैसे न हों। यहाँ गीता में कुछ श्लोक उपनिषदों जैसी शैली में हैं — जैसे तेरहवें अध्याय में, जहाँ भगवान कहते हैं, “मेरे हाथ-पैर सर्वत्र हैं, पर मेरे कोई इंद्रियाँ नहीं हैं,” या “मैं सर्वत्र हूँ, फिर भी कहीं नहीं हूँ।” ये विरोधाभासी वाक्य प्रतीत होते हैं, पर यही उपनिषदों की शैली है — जहाँ सरल सत्य को गूढ़ ढंग से बताया जाता है।
बुद्धिजीवी लोगों को अगर आप बहुत सीधी बात समझाते हैं तो वे बोर हो जाते हैं। उन्हें “बौद्धिक व्यायाम” चाहिए। इसलिए उपनिषदों की शैली में थोड़ी जटिलता होती है, जो गहराई में जाकर सच्चाई को व्यक्त करती है। गीता के चौथे अध्याय के श्लोक 16 से 24 तक का भाग इसी प्रकार का है।
उदाहरण के लिए, भगवान कहते हैं:
“किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।”
अर्थात क्या कर्म है, और क्या अकर्म है — इस पर बुद्धिमान भी भ्रमित हो जाते हैं।
अगर कर्म का अर्थ केवल “क्रिया” और अकर्म का अर्थ “अक्रिया” लिया जाए, तो यह तो बच्चा भी समझ सकता है कि कौन कार्य कर रहा है और कौन नहीं। लेकिन भगवान यहाँ गहराई से समझा रहे हैं कि कर्म वह है जो बंधन में डालता है, और अकर्म वह है जो बंधन से मुक्त करता है।
एक उदाहरण में एक छोटा बच्चा अपनी बेहोश माँ के लिए 911 पर कॉल करता है और कहता है, “मेरी मम्मी ज़मीन पर सोई हैं, बिस्तर पर नहीं।” वह हिल नहीं रही, बोल नहीं रही — तो बच्चा भी पहचान सकता है कि कोई कार्य हो रहा है या नहीं।
पर भगवान यहाँ जिस कर्म-अकर्म की बात कर रहे हैं वह अधिक गूढ़ है: कौन-सा कर्म व्यक्ति को बंधन में डालता है और कौन-सा नहीं — यह जानना कठिन है। इसलिए ही भगवान कहते हैं, “One who sees action in inaction and inaction in action is wise.”
यह पंक्ति सुनने में ही उलझाव देती है — “action in inaction, and inaction in action.” इसे समझना कठिन है, बोलना कठिन है, और इसका भावार्थ जानना और भी कठिन है।
जब हम यह समझ जाते हैं कि भगवान कर्म के पीछे के उद्देश्य और भाव को देख रहे हैं, तब यह श्लोक स्पष्ट होने लगता है। कर्म वह नहीं जो केवल दिखे, बल्कि वह जो बंधन पैदा करे — वही असली कर्म है। और जो कर्म करते हुए भी व्यक्ति बंधन से मुक्त रहता है — वही अकर्म है।
इस प्रकार भगवान हमें कर्म और अकर्म के गूढ़ रहस्य को सिखा रहे हैं — कैसे कर्म करते हुए भी मोक्ष पाया जा सकता है, और यही अर्जुन की चिंता का समाधान है।
हम तुम्हें सज़ा देंगे।
– पर मैंने कुछ किया ही नहीं!
– हाँ, यही तो समस्या है — तुमने कुछ किया ही नहीं।
कभी-कभी “कुछ न करना” भी एक गुनाह बन सकता है।
मान लीजिए एक डॉक्टर के सामने एक मरीज़ है जो बेहोशी की हालत में है, साँसें रुक रही हैं, और डॉक्टर बस देख रहा है — कोई इलाज नहीं करता। बाद में वह कहे:
“मैंने उसे मारा नहीं।”
तो उससे कहा जाएगा:
“पर तुमने उसे बचाया भी नहीं — यही अपराध है।”
यह “crime of omission” कहलाता है — यानी कि कोई कार्य जो किया जाना चाहिए था, वह न करना। इसे criminal negligence भी कहते हैं।
उदाहरण के लिए, कोई पुलिस अधिकारी जान-बूझकर अपने कर्तव्य से पीछे हटे, जैसे गुंडों ने उसे पैसे दिए और वह घटनास्थल पर नहीं पहुँचा — तो उसने भले ही कुछ ‘किया’ न हो, फिर भी वह अपराधी माना जाएगा।
तो दो तरह के अपराध होते हैं:
- Crime of Commission – जिसमें व्यक्ति स्वयं कोई बुरा कार्य करता है।
- Crime of Omission – जिसमें व्यक्ति जरूरी कार्य नहीं करता, जिससे अपराध हो जाता है।
उदाहरण: कोई व्यक्ति खुद किसी को नहीं मारता, लेकिन किसी और को पैसे देकर हत्या करवाता है। वह कहे:
“मैंने तो नहीं मारा!”
लेकिन जब उससे पूछा जाएगा “जिसने मारा, उसने क्यों मारा?”
तो उत्तर होगा: “क्योंकि तुमने उसे पैसे दिए थे।”
इसलिए वह व्यक्ति भी अपराधी कहलाएगा।
अब अर्जुन की स्थिति पर वापस आते हैं।
अर्जुन एक क्षत्रिय है, और क्षत्रिय का कर्तव्य है समाज की रक्षा करना, दुष्टों का प्रतिरोध करना — इसके लिए युद्ध आवश्यक हो सकता है।
अब अर्जुन कहता है:
“मैं किसी को नहीं मारूँगा।”
लेकिन यही तो समस्या है — जो अन्याय कर रहे हैं, उन्हें तुमने रोका नहीं। तुमने कोई ‘बुरा कर्म’ नहीं किया, लेकिन कर्तव्य न निभाना भी बंधन का कारण बनता है।
इसलिए भगवान कहते हैं:
“कर्मण्य्यकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः।”
(जो व्यक्ति कर्म में अकर्म को और अकर्म में कर्म को देखता है, वही बुद्धिमान है।)
यहाँ “कर्म” और “अकर्म” का अर्थ गूढ़ है। “कर्म” यानी वह कार्य जो बंधन लाता है, और “अकर्म” यानी वह कार्य जो बंधन नहीं लाता — यानी कर्तव्य करना।
मान लीजिए पुलिस किसी दंगाई को गोली मारती है। आम तौर पर किसी को मारना अपराध है, लेकिन अगर वह समाज की रक्षा में है, तो वही कार्य अकर्म बन जाता है — बंधन रहित।
तो अर्जुन अगर युद्ध करता है, तो वह अपराध नहीं, कर्तव्य होगा।
भगवान अर्जुन को सिखा रहे हैं कि किसी कर्म को “अच्छा” या “बुरा” कहना उसके परिणाम और उद्देश्य पर निर्भर करता है, केवल क्रिया पर नहीं।
कर्म का बंधन किन बातों पर निर्भर करता है?
भगवान बताते हैं कि कोई भी कार्य तीन बातों पर निर्भर करता है:
- उद्देश्य (Intent) – कार्य क्यों किया गया?
- कार्य (Action) – क्या किया गया?
- परिणाम (Consequence) – उसका फल क्या हुआ?
उदाहरण: अगर कोई लाठी से किसी को मार रहा है, तो वह बुरा हो सकता है। लेकिन अगर वह लाठी किसी चोर, गुंडे या आतंकवादी को मारने के लिए है, तो वह कर्तव्य हो सकता है।
तो केवल कर्म नहीं, उसका संदर्भ (Context) भी देखना ज़रूरी है।
तीसरे अध्याय में भगवान ने परिणामों के संदर्भ में बताया — जैसे कि अर्जुन अगर युद्ध नहीं करेगा, तो समाज में भ्रम फैलेगा, लोग अपने कर्तव्य से विचलित होंगे।
पाँचवें अध्याय में भगवान उद्देश्य की चर्चा करते हैं — किस भावना से कर्म करना चाहिए ताकि बंधन न हो।
भगवान “यज्ञ” की बात क्यों करते हैं?
चौथे अध्याय में, विशेषकर श्लोक 24 में, भगवान कहते हैं:
“ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्…”
(जो व्यक्ति यज्ञ की भावना से कार्य करता है, उसका संपूर्ण कर्म ब्रह्म में लीन हो जाता है।)
यह मायावादी दृष्टिकोण नहीं है, बल्कि भगवान यहाँ बताते हैं कि अगर कार्य त्याग और सेवा की भावना से किया जाए — बिना स्वार्थ — तो वह यज्ञ बन जाता है।
अर्जुन सोच सकता है, “युद्ध यज्ञ कैसे हो सकता है?”
भगवान उत्तर देते हैं — अगर वह कर्तव्य, समाज की रक्षा और धर्म के लिए किया जा रहा है, तो वह यज्ञ के समान है।
महाभारत में भी कुरुक्षेत्र को “यज्ञस्थल” कहा गया है:
- अर्जुन यज्ञकर्ता ब्राह्मण है,
- उसका धनुष गांडीव आहुति का चमचा,
- रणभूमि अग्नि,
- और जो सैनिक मरेंगे, वे यज्ञ की आहुति हैं।
निष्कर्ष:
भगवान अर्जुन को यह बता रहे हैं कि कर्म केवल क्रिया नहीं है — उसका उद्देश्य, भावना और परिणाम भी मायने रखते हैं।
जो व्यक्ति इन तीनों को ध्यान में रखकर बिना स्वार्थ कर्म करता है, वह बंधन से मुक्त हो जाता है।
अर्जुन को समझाया जा रहा है कि युद्ध करना उसका कर्तव्य है — और अगर वह इससे भागता है, तो वह अकर्म नहीं, बल्कि कर्तव्य से पलायन होगा — जो भी कर्मबन्धन का कारण बनेगा।
क्योंकि अभी कार्य हम यज्ञ के भाव में कर सकते हैं — यह समझना आसान नहीं है, इसी समझ में भगवान कह रहे हैं कि ज्ञान ज़रूरी है।
तो फिर श्लोक 34 से 42 तक भगवान क्या करते हैं? — ज्ञान के बारे में बताते हैं।
तो सबसे पहले बताते हैं — यह जो अगर समझना है, तो ज्ञान जो है…
इसको ज्ञान की महिमा कह सकते हैं या ज्ञान के पहलू कह सकते हैं — aspects — इसके अलग-अलग पहलू बताते हैं भगवान।
तो सबसे पहले बताते हैं कि यह ज्ञान आपको गुरु से प्राप्त करना है।
अब यहाँ पर जो भगवान उल्लेख करते हैं, वह बहुवचन में है — एकवचन नहीं है।
ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः — ज्ञानी नहीं, ज्ञानिनः।
मतलब ऐसा नहीं है कि केवल एक गुरु के पास जाना है।
हमारे अनेक गुरु होते हैं।
ऐसा होता है — एक दीक्षा गुरु हो सकते हैं, पर हमारे अनेक शिक्षा गुरु होते हैं।
अनेक लोगों से हम ज्ञान प्राप्त करते हैं।
ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः।
हाँ, पहले बोलते हैं — आप गुरु से ज्ञान प्राप्त करो।
और ज्ञान प्राप्त करोगे तो क्या होगा?
आप पुनः मोह में नहीं आओगे।
और यहाँ पर भगवान खुद के बारे में एक और बार उल्लेख कर रहे हैं — “तुम समझ जाओगे कि सारे जीव मुझमें स्थित हैं, सारे जीव मेरे अंश से हैं।”
इसका उल्लेख फिर पंद्रहवें अध्याय में, नौवें अध्याय में भी आएगा।
फिर उसके बाद में वह कहते हैं — यह कैसे होगा कि आप मोह से मुक्त हो जाओगे?
उसके लिए — यहाँ पर गुरु से ज्ञान प्राप्त करना है।
उससे क्या होगा?
आप मोह से मुक्त हो जाओगे,
और खास करके जिस प्रकार के मोह में तुम हो अभी, उससे तो मुक्त हो जाओगे।
और यह मुक्त कैसे होगे — उसके लिए भगवान दो उपमाएं देते हैं:
एक है नाव की उपमा — जैसे कोई सागर के पार नाव चली जाती है।
और दूसरी है अग्नि की उपमा।
इन दोनों उपमाओं का विशेष भाव है —
जो एक तरह से — कोई नाव से सागर के पार चला जाता है — तो सागर वैसा ही रहता है, पर वह व्यक्ति सागर में नहीं रहता है।
तो मतलब — जगत वैसा ही रहेगा, पर इस ज्ञान के आधार से हम भवसागर से पार हो जाएंगे।
पर जो अग्नि का उदाहरण है — वह कैसे है?
अग्नि किसी चीज़ को जलाती है — तो जलाकर वह चीज़ राख में बदल जाती है, वह चीज़ रहती नहीं है।
तो वह जो है, वह उदाहरण है — हमारे अंतःकरण की conditioning के लिए।
जो हमारे भीतर की अशुद्धता है — उसका विनाश हो जाएगा।
तो एक उदाहरण है outer conditioning — बाहर की परिस्थिति के लिए।
और एक उदाहरण है inner conditioning — अंतरंग दशा के लिए।
और फिर उसके बाद में 38वें श्लोक में भगवान बताते हैं — किस तरह से अगर आप यह ज्ञान समझ लोगे, तो आप अंतरंग सुख प्राप्त कर लोगे।
“चिरेण आत्मनि विन्यति,”
“आत्मनि एव आत्मना तुष्टः” — कि आप अंदर से ही सुख प्राप्त करोगे।
मतलब — यह क्या हो जाएगा?
आंतरिक संतुष्टि भी आ जाएगी।
तो यहाँ पर आनंद और संतोष — इन दोनों के बारे में बात होती है।
फिर उसके बाद में दो श्लोकों में एक तरह से contrast करके भगवान इस ज्ञान में श्रद्धा की आवश्यकता बताते हैं।
कि अभी जो भगवान बता रहे हैं — यह एक तरह का अद्भुत ज्ञान है, अनुपम ज्ञान, असाधारण ज्ञान —
कि तुम कर्म कर सकते हो पर बंधन में नहीं फँसोगे।
तो यह सारा ज्ञान समझने के लिए श्रद्धा चाहिए।
तो पहले भगवान बोलते हैं — श्रद्धा होगी तो क्या होगा?
फिर बाद में बताते हैं — श्रद्धा नहीं होगी तो क्या होगा?
श्रद्धा होगी — तो तुम ज्ञान समझ पाओगे,
ज्ञान समझ पाओगे — तो अनुशीलन कर पाओगे,
और फिर तुम शांति प्राप्त कर पाओगे —
“श्रद्धावान् लभते ज्ञानं, तत्परः संयतेन्द्रियः, ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् अचिरेणाधिगच्छति।”
और फिर अगले श्लोक में बताते हैं — अगर आप श्रद्धा नहीं रखोगे, तो क्या हो जाएगा?
“संशयात्मा विनश्यति” —
जो कि संशय है — उसका विनाश हो जाएगा।
और फिर 41वें श्लोक में भगवान बताते हैं —
तो ज्ञान के अलग-अलग पहलू बताते हुए भगवान कहते हैं —
इसलिए आप ज्ञान से खुद को equip कर लो।
खुद को आप सक्षम, खुद को मजबूत बना लो।
और फिर ज्ञान की तलवार से युद्ध करो।
ज्ञान की तलवार से — जो अज्ञान तुम्हारे हृदय में है,
अज्ञान के जो संशय हैं — उनको मिटा दो।
तो आखिर दो श्लोकों में क्या होता है?
“Fight with the sword of knowledge.”
कि आप ज्ञानासिना आत्मनः संशयं छिन्धि —
हाँ, तो यह जो ज्ञान है — यह सिर्फ बुद्धि में बैठाने के लिए नहीं है।
यह ज्ञान आप इस्तेमाल करोगे, तो आपके अंदर जो अज्ञान है — उसे आप निकाल सकते हो।
यह अज्ञान निकल जाएगा —
“उत्तिष्ठ भारत!” — अर्जुन, उठो और युद्ध करो।
तो इसमें क्या होता है?
पुनः — इससे अर्जुन का मोह हो जाता है।
तो आप बोल रहे हैं — उठो-उठो — यह बाहरी कार्य है।
पर आप युद्ध अंदर करो — अज्ञान से।
तो क्या आप चाहते हैं कि मैं युद्ध करूं या युद्ध न करूं?
यह सवाल अर्जुन पाँचवे अध्याय में पुनः पूछेंगे।
और तभी भगवान और स्पष्टीकरण करेंगे — किस तरह से अंतरंग चेतना, जो उद्देश्य होता है —
उसी उद्देश्य के भाव से व्यक्ति बंधन में फँसता है या नहीं फँसता।
तो सारांश में,
आज जो हमने चर्चा की — जो 42 श्लोक हैं —
उसमें सबसे पहले चार श्लोक इसलिए हैं, क्योंकि इस तरह बता देंगे कि वो एक तरह से उनकी पात्रता है —
qualification for teaching this knowledge —
विज्ञान बताने के लिए किस तरह से सक्षम हैं —
खुद का पद बताते हैं।
और फिर बताते हैं — कि आप कर्म करो, पर यज्ञ के भाव में।
यज्ञ के भाव में करोगे — तो आप कर्म बंधन में नहीं फँसोगे।
तो यज्ञ मतलब — एक क्रिया है अग्नि में आहुति देना —
पर उसका भाव क्या है?
जो हमारे भोग के लिए हो सकता है — उसे किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए त्याग करना —
sacrifice है।
और आखिर में — 42 तक —
Aspects of spiritual knowledge —
कि आध्यात्मिक ज्ञान के अलग-अलग पहलू क्या हैं — उनके बारे में चर्चा की।
Expected:
कैसे यह ज्ञान गुरु से प्राप्त होता है
उससे हम मोह से मुक्त हो जाते हैं,
और श्रद्धा चाहिए इस ज्ञान के लिए,
और इस ज्ञान से व्यक्ति सक्षम हो जाता है युद्ध करने के लिए।
तो बहुत बहुत धन्यवाद, हरे कृष्णा।
कोई सवाल है किसी का?
वह इसलिए बता रहे हैं — ताकि अर्जुन समझे कि अलग-अलग प्रकार से यज्ञ होता है —
तो रणभूमि में जो तुम कर रहे हो — वह भी एक यज्ञ ही है।
यह बताने के लिए भगवान यज्ञों का वर्णन कर रहे हैं।
मतलब जैसे — यज्ञ का भाव अलग-अलग जगह पर हो सकता है।
तो जो अधिकांश रूप से कार्य बता रहे हैं भगवान — वह कैसे हैं?
धार्मिक, नैतिक, अच्छे कार्य हैं।
तो वह बाहर से यज्ञ नहीं दिखते, पर वह सब अच्छे कार्य हैं।
तो यह सब कार्य भी अगर यज्ञ हैं,
तो अगर तुम युद्ध करने वाले हो — तो युद्ध भी यज्ञ ही है।
तो अर्जुन के मन में युद्ध को लेकर —
विशेषकर अपने ही रिश्तेदारों से युद्ध करने को लेकर जो नकारात्मक भाव है —
उसको हटाने के लिए भगवान बता रहे हैं —
कि यज्ञ के बारे में सकारात्मक रूप से देखो।
अर्जुन के मन में युद्ध के बारे में नकारात्मक विचार हैं,
पर यज्ञ की संकल्पना साकार मत करो।
पर अर्जुन इन दोनों को जोड़ नहीं पा रहे —
“यह कैसे यज्ञ हो सकता है?”
तो अर्जुन के मन में जो यज्ञ की संकल्पना है —
भगवान बता रहे हैं — यज्ञ इतना ही नहीं है —
यज्ञ यह भी है, और यह भी है —
तो यह युद्ध करना भी यज्ञ ही है।
इसके लिए वह यज्ञ के अनेक प्रकार बताते हैं।
तो भक्ति योग और ज्ञान योग में जो ज्ञान है, उसमें फ़र्क़ क्या है?
अभी भक्ति योग के ज्ञान में जो केंद्र है — वह भगवान होते हैं।
जीव को स्वयं के संदर्भ में देखें तो उसमें तीन फ़र्क़ हैं:
- Intent
- Content
- Consequence
ज्ञान योग में intent क्या है?
Oneness — कि कैसे मैं और भगवान एक हैं।
(हम यह शब्द इस्तेमाल नहीं करते पर कुछ लोग कहते हैं — हमें भगवान बनना है।)
पर यह oversimplification है।
मायावाद का अर्थ क्या है?
मायावादी यह नहीं कहते कि हम भगवान हैं।
बल्कि — भगवान और हम दोनों मिथ्या हैं।
केवल ब्रह्म सत्य है।
तो वे यह नहीं कहते कि हम भगवान बनेंगे,
बल्कि — भगवान और हम दोनों भ्रम हैं,
जिसे हम transcend करेंगे जब हम मुक्ति पाएँगे।
तो भगवान भी मोह हैं, मैं भी मोह हूँ —
पर इस मोह से निकलने के लिए भगवान का चिंतन करना है।
पर उसमें जोर होता है — कि मैं और भगवान एक हैं।
पर भक्ति योग में क्या होता है?
Greatness of God
हम भगवान की महिमा सुनते हैं — ज्ञान सुनते हैं,
तो हमें क्या अनुभव होता है?
भगवान कितने महान हैं।
अध्यात्मिक स्तर पर हाँ — हम भी सच्चिदानंद हैं,
भगवान भी सच्चिदानंद हैं।
पर भक्ति में जब हम ज्ञान सुनते हैं —
तो हम यह नहीं सुनते कि हम ब्रह्म हैं।
हम कहते हैं — भगवान के अनंत गुण हैं —
“अनंत गुण संपन्न नारायण,”
जैसे रामानुजाचार्य कहते हैं।
तो हम भगवान के गुणों को जानना चाहते हैं —
उनकी महिमा जानना चाहते हैं।
इससे होता है — softening of the heart।
हमारा हृदय मक्खन जैसा कोमल हो जाता है —
जैसे कृष्ण उसे चुरा लेते हैं।
(लीला संदर्भ)
भक्तिमय ज्ञान में हम क्या देखते हैं?
भगवान कितने करुणामय हैं,
कितने दयालु हैं —
और हम उनके शरण में जाना चाहते हैं।
तो यहाँ पर intent — moksha नहीं, बल्कि
प्रेम होता है।
तो ज्ञान शब्द एक है,
पर उसमें बहुत सा फ़र्क़ है —
- क्यों वह ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं
- किस ज्ञान पर ज़ोर दे रहे हैं
- उससे क्या फल होता है
यही अद्वैत और भक्ति के बीच फ़र्क़ है।
बहुत बहुत धन्यवाद।
श्रीमद्भगवद्गीता की जय।
जय गौर, श्रीमान।