Hindi – Chapter 1 Bhagavad Gita And Decision Making Bhagavad Gita Overview – Chaitanya Charan
शायद धृतराष्ट्र को यह आभास था कि उसका पुत्र (दुर्योधन) युद्ध में पराजित होगा, पर वह उस अपरिहार्य परिणाम से डर रहा था।
वह जानता था कि जो होना है, उसे टाल नहीं सकता, फिर भी वह उसका सामना नहीं करना चाहता था।
कमज़ोरी और क्रूरता में क्या अंतर है?
कमज़ोरी में व्यक्ति जानता है कि सही क्या है, लेकिन उसे करने की शक्ति नहीं होती।
जबकि क्रूरता में व्यक्ति सही और गलत का बोध ही खो देता है — जो गलत है, वही उसे सही प्रतीत होता है।
धृतराष्ट्र की दुविधा इसी सीमारेखा पर खड़ी है — वह केवल भ्रम या मोह नहीं है, बल्कि गहराई में जाकर एक नैतिक संकट है।
तीन प्रकार की शुरुआतें — गीता की समझ के लिए:
- Textual शुरुआत – गीता का पहला श्लोक: “धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे…”, जो 1.1 से आरंभ होता है।
- Conceptual शुरुआत – जहाँ से गीता का मूल विषय शुरू होता है: अर्जुन का प्रश्न और उसका मानसिक संघर्ष।
- Speaker-centered शुरुआत – जहाँ से श्रीकृष्ण का उपदेश शुरू होता है: अध्याय 2, श्लोक 11 से।
गीता के पांच लक्षण (लक्षण पंचक):
- उत्पत्ति (Origin) – ग्रंथ की शुरुआत कहाँ से होती है?
- उपसंहार (Conclusion) – अंत में क्या निष्कर्ष निकलता है?
- अपूर्व (Uniqueness) – क्या कुछ ऐसा है जो इस ग्रंथ को विशेष बनाता है?
- अभ्यास (Repetition) – कौन-सी बात बार-बार दोहराई गई है?
- उद्धार (Emphasis) – कौन-सी बात को विशेष रूप से ज़ोर देकर कहा गया है?
धृतराष्ट्र का पहला प्रश्न — गीता की शुरुआत का रहस्य:
धृतराष्ट्र का प्रश्न — “धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः…” — सिर्फ एक साधारण सवाल नहीं है।
यह उसके भीतरी द्वंद्व को प्रकट करता है। वह जानता है कि उसका पुत्र धर्म से विचलित है, लेकिन फिर भी उसे रोक नहीं पाता।
उसका एक भय यह भी है कि कुरुक्षेत्र का “धर्म क्षेत्र” होना कहीं दुर्योधन पर प्रभाव न डाल दे — शायद वह युद्ध से पीछे हट जाए या हार जाए।
धर्मक्षेत्र क्यों कहा गया?
क्योंकि वहां धर्म प्रकट होने वाला है — न केवल उपदेश के रूप में, बल्कि व्यवहार के रूप में भी।
गीता का पहला शब्द “धर्म” है और यह दर्शाता है कि यह ग्रंथ धर्म के उद्घाटन और प्रदर्शन का माध्यम है।
वक्ता का उद्देश्य और ईश्वर की योजना:
कई बार वक्ता एक बात कह रहा होता है, लेकिन श्रोता उसी बात में कुछ अलग, गहराई वाला संदेश अनुभव करता है।
भगवद्गीता में ज्ञान केवल वक्ता (कृष्ण) के माध्यम से नहीं आता — बल्कि श्रोता की प्रामाणिकता और भगवान की कृपा से वह और गहराई में प्रकट होता है।
कमज़ोरी और क्रूरता — विवेक और संकल्प:
हर व्यक्ति में दो शक्तियाँ होती हैं:
- Conscience (विवेक बुद्धि) – जो बताती है क्या सही है।
- Willpower (संकल्प शक्ति) – जो सही कार्य करने की शक्ति देती है।
कमज़ोरी में विवेक होता है, पर संकल्प कमज़ोर होता है।
क्रूरता में विवेक ही नहीं होता, इसलिए गलत को सही समझा जाता है।
दुर्योधन की राजनीतिक चतुराई:
युद्ध शुरू होने से पहले दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाता है — भीष्म के पास नहीं, क्योंकि भीष्म को वह उकसा नहीं सकता था।
लेकिन द्रोण को वह उनके पुराने शत्रु द्रुपद का स्मरण दिलाकर उकसाता है।
यह एक राजनेता की मानसिकता है — वह जानता है कि किसको कैसे प्रेरित करना है।
कृष्ण बनाम दुर्योधन — प्रेरणा की भिन्नता:
जब अर्जुन कहता है कि वह युद्ध नहीं करेगा, तब कृष्ण उसे गहराई से मार्गदर्शन देते हैं — तर्क, भावना और अध्यात्म के साथ।
जबकि दुर्योधन केवल उकसाता है, भावनाओं से खेलता है।
गीता में यह स्पष्ट दिखाया गया है कि कैसे कृष्ण और दुर्योधन के प्रेरणास्रोत और प्रेरणा के तरीक़े बिल्कुल भिन्न हैं।
दुर्योधन एक भौतिकवादी दृष्टिकोण वाला व्यक्ति था, इसलिए वह लोगों को भौतिक दृष्टिकोण से उकसाने की कोशिश करता है।
वह तुलना करता है, संख्या गिनता है, और सेनाओं की ताक़त का विश्लेषण कर यह दर्शाना चाहता है कि उसकी सेना श्रेष्ठ है। लेकिन यह तुलना उसके भीतर चल रही असुरक्षा को भी दर्शाती है। जब वह अपनी सेना को “अपर्याप्त” या “असीमित” कहता है, तो स्पष्ट नहीं होता कि वह आत्मविश्वास से बोल रहा है या भ्रमित होकर।
इसके विपरीत, कृष्ण कभी भी अर्जुन को उकसाते नहीं हैं।
वे केवल उसे समझाते हैं, प्रेरित करते हैं — आध्यात्मिक दृष्टिकोण से।
यहाँ से भगवद गीता एक गहरा अंतर दिखाती है: दुर्योधन लोगों को manipulate करता है, जबकि कृष्ण उन्हें elevate करते हैं।
दुर्योधन बार-बार द्रोणाचार्य और भीष्म को उकसाता है।
भीष्म एक समय के बाद इस बात से थक जाते हैं। संजय बताते हैं कि जब दुर्योधन बार-बार बोलता है, तो अचानक सबकुछ रुकता है — जैसे फुटबॉल में कोच बहुत बातें कर रहा हो और अचानक रेफरी सीटी बजाकर खेल शुरू कर देता है।
भीष्म शंख बजाते हैं, और इसके साथ ही बाकी कौरव पक्ष भी शंख बजाता है।
अब दूसरी ओर, पांडव पक्ष की एंट्री होती है — और इसी समय भगवान श्रीकृष्ण की पहली बार गीता में उपस्थिति होती है (श्लोक 1.14)।
यह दृश्य एक नाटकीय एंट्री जैसा है — जैसे किसी फ़िल्म में नायक की पहली झलक। लेकिन यहाँ कृष्ण नायक नहीं, नायक के सारथी के रूप में आते हैं।
सिर्फ एक ही सारथी का उल्लेख किया गया है — श्रीकृष्ण का।
बाकी किसी सेनापति या सारथी का उल्लेख नहीं किया गया, क्योंकि कृष्ण की उपस्थिति ही इतनी महत्वपूर्ण है।
दुर्योधन ने पहले कृष्ण का नाम तक नहीं लिया — क्योंकि उसकी दृष्टि में कृष्ण युद्ध नहीं कर रहे थे, तो उनका कोई महत्व नहीं था।
लेकिन संजय जब वर्णन करता है, तो सबसे पहले कृष्ण का नाम लेता है।
यह अंतर संजय और दुर्योधन की दृष्टि का है — एक में दिव्य दृष्टि है, दूसरे में भौतिक दृष्टि।
दुर्योधन पांडवों का वर्णन करते हुए पहले भीम का नाम लेता है, क्योंकि भीम से उसका व्यक्तिगत द्वेष था।
कृष्ण, अर्जुन के रथ में बैठे थे, लेकिन दुर्योधन उन्हें अनदेखा करता है।
संजय उन्हें सबसे पहले स्थान देता है — यह भागवत दृष्टि की महिमा है।
अब शंख बजाए जाते हैं — कौरव पक्ष भी और पांडव पक्ष भी।
लेकिन पांडवों की शंखध्वनि इतनी ज़ोरदार होती है कि शत्रुओं के हृदय विदीर्ण हो जाते हैं (1.19)।
“स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्” — यह युद्ध का मनोवैज्ञानिक पक्ष दर्शाता है।
यह ऐसा है जैसे क्रिकेट में कोई टीम बड़े आत्मविश्वास से खेल रही हो, लेकिन अचानक एक विकेट गिर जाए —
against the run of play — जैसे अपेक्षा के विपरीत कुछ घटित हो जाए।
गीता की शुरुआत में यह मनोवैज्ञानिक युद्ध स्पष्ट दिखता है:
- पहले श्लोक में धृतराष्ट्र की असुरक्षा दिखाई गई है।
- फिर दूसरे से ग्यारहवें श्लोक तक दुर्योधन की असुरक्षा दिखती है।
- इसके बाद शंखध्वनि होती है — जिसमें पांडव पक्ष की ध्वनि प्रभावशाली होती है, कौरव पक्ष हतोत्साहित होता है।
फिर भी अर्जुन के भीतर संघर्ष पैदा होता है।
और यहीं से गीता का असली संवाद शुरू होता है।
यह दिखाया गया है कि अर्जुन को किसी बाहरी भय से नहीं, बल्कि आंतरिक द्वंद्व से हिचकिचाहट होती है।
जो भी भ्रम या शंका उसे आती है, वह गहरी और मानवीय है।
इसलिए श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन आवश्यक बनता है।
तो अब कृष्ण से अर्जुन क्या कहते हैं?
जब अर्जुन ने अपना धनुष उठाया, तो वह कृष्ण से कहते हैं — “हे कृष्ण! मैं देखना चाहता हूँ — कौन युद्ध करने आया है? मैं अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ।”
यहाँ पर, श्लोक 21 से 24 तक की जो बातचीत है, उसमें eyes (आंखों) का कई बार उल्लेख आता है। अर्जुन बार-बार कहते हैं: “मैं देखना चाहता हूँ”, लगभग तीन बार। आगे भी दृष्टि और देखने का विषय आएगा। बाद में ‘skin’ (त्वचा) का भी उल्लेख होगा — इस पर चर्चा आगे होगी।
लेकिन यहाँ अर्जुन देखना क्या चाहते हैं?
ऐसा नहीं है कि जैसे क्रिकेट मैच में आख़िरी समय में टीम बदल गई हो और अब बल्लेबाज़ आ गया है — तो कोई कहे: “अरे, मुझे देखना है कि कौन-कौन टीम में है? कौन फील्डिंग में है? कौन बॉलिंग कर रहा है?” — युद्ध की तैयारी तो कई महीनों से चल रही थी, और यह भी तय था कि कौन-कौन कौरवों की ओर से लड़ रहा है। अर्जुन को सब पहले से मालूम था।
तो फिर अर्जुन युद्धभूमि के बीच में आकर देखना क्यों चाहते हैं?
इसका कारण है — अर्जुन के हृदय के एक कोने में अभी भी यह भाव था कि शायद युद्ध टल जाए।
पांडवों की ओर से युद्ध टालने के प्रयास पहले भी हुए थे। जब कृष्ण शांति दूत के रूप में गए थे, तब भीम ने कृष्ण से कहा था: “जहाँ तक हो सके, शांति से सुलझाने की कोशिश कीजिए।” तब कृष्ण हँसते हैं और कहते हैं: “अरे, अब जब युद्ध सामने आ गया है, तो तुम भी डर गए? पहले तो बड़े-बड़े शपथ लिए थे — कि उसे मार दूँगा, उसे जला दूँगा!” भीम जवाब देते हैं: “अगर युद्ध हुआ, तो मैं ज़रूर करूंगा… पर मैं युद्ध नहीं चाहता। यह हमारा ही कुल है।”
तो पांडव अंत तक युद्ध टालने का प्रयास कर रहे थे।
अर्जुन के मन में भी यही भाव था कि शायद युद्ध टल जाए — और यदि हो भी, तो इतना भीषण युद्ध न हो।
लेकिन जब अर्जुन रथ को दोनों सेनाओं के बीच में लाकर खड़ा करते हैं और सामने देखते हैं, तब एक कड़वा सत्य उनके मन में गहराई से उतरता है:
“बाप रे! यह तो बहुत भयानक होने वाला है!”
यह स्थिति वैसी है जैसे दो भाइयों के बीच संपत्ति को लेकर झगड़ा हो रहा हो। पिता का देहांत हो चुका हो और अब संपत्ति के बंटवारे को लेकर दोनों पक्ष कोर्ट में पहुँच गए हों। एक भाई धमकी देता है: “मैं कोर्ट में ले जाऊँगा।” लेकिन जब वह कोर्ट में देखता है कि सामने उसका ही भाई और परिवार के अन्य लोग उसके विरुद्ध बैठे हैं, और उसे घृणा से देख रहे हैं — तभी उसे एहसास होता है कि “अरे, यह सच में होने वाला है!”
उसी तरह अर्जुन के मन में बैठता है कि यह तो रक्त की नदी बहने वाली है — और वह भी अपने ही रिश्तेदारों के बीच।
इसे अंग्रेज़ी में कहा जाता है: “Fratricide” — यानी भाई-भाई एक-दूसरे को मार डालें।
अर्जुन योद्धा थे, उन्हें पता था युद्ध क्या होता है। लेकिन जब वे यह सब अपने सामने देखते हैं, तब उन्हें पहली बार यह पूरी गंभीरता से “Register” होता है — यह एक भयावह यथार्थ है।
यहीं से अर्जुन का मन डगमगाने लगता है।
वे कहते हैं: “कृपया रथ को यहाँ खड़ा करें।” और उसके बाद उनकी भावनाएं फूट पड़ती हैं। वे पूरी तरह से मानसिक और भावनात्मक उथल-पुथल में आ जाते हैं।
अब यहाँ पर प्रश्न उठता है — अर्जुन यह निर्णय क्यों नहीं ले पा रहे?
क्या यह करुणा थी?
क्या यह आसक्ति थी?
क्या यह मोह या वासना थी?
इन कारणों का विश्लेषण करने से अर्जुन का द्वंद्व पूरी तरह समझ में नहीं आता।
अगर हम इसे निर्णय लेने की समस्या के रूप में देखें — तो सवाल यह बनता है कि:
“अर्जुन के लिए यह निर्णय इतना कठिन क्यों था?”
क्योंकि जब हम किसी दुविधा में होते हैं, तो वह दुविधा कई प्रकार की हो सकती है।
1. Informational Confusion (जानकारी की दुविधा):
जहाँ हमें बस सही जानकारी नहीं होती — क्या करना है, कहाँ जाना है।
इसका समाधान है: सही जानकारी मिल जाए।
2. Moral Confusion (नैतिक भ्रम):
जहाँ हमें पता नहीं होता कि क्या सही है और क्या गलत।
इसमें मदद मिलती है मार्गदर्शन से — कोई हमें बताए कि क्या उचित है।
3. Ethical Conflict (नैतिक संघर्ष):
जहाँ दोनों विकल्पों में कुछ सही भी है और कुछ गलत भी।
अर्जुन की स्थिति यही थी।
उन्हें न तो जानकारी की कमी थी, न ही यह कि सही क्या है पता नहीं था।
बल्कि दोनों ओर कुछ सही था, कुछ गलत था — और यह निर्णय करना कठिन था कि किसे चुना जाए।
इस तरह के नैतिक संघर्ष का समाधान सिर्फ ज्ञान या इच्छाशक्ति से नहीं होता — इसके लिए Insight (आंतरिक दृष्टि) चाहिए।
जैसे कोविड महामारी के समय कई देशों ने लॉकडाउन किया।
एक ओर लोगों की जान बचाना ज़रूरी था, दूसरी ओर उनकी आजीविका भी महत्वपूर्ण थी।
दोनों ही विकल्प ज़रूरी थे — लेकिन उनमें संतुलन बनाना कठिन था।
ऐसे समय में कोई साफ़ जवाब नहीं होता — निर्णय के लिए चाहिए:
गहरी समझ, विवेक, और आत्मदृष्टि।
और यही अर्जुन को गीता में मिलने वाला था — श्रीकृष्ण के माध्यम से।
तो अर्जुन का जो अभी भ्रम था, वह एक गहरा नैतिक द्वंद्व (ethical confusion) था।
हमारे जीवन में सबसे कठिन फैसले तब आते हैं जब हम नैतिक दुविधाओं में फँसते हैं।
नैतिक दुविधा का मतलब क्या होता है?
यही कि — मेरे लिए कौन सी चीज़ ज़्यादा महत्वपूर्ण है? किसका अधिक मूल्य है?
मान लीजिए कोई व्यक्ति नौकरी कर रहा है। उसे किसी और जगह बेहतर नौकरी मिलती है, पर उसका परिवार वहाँ शिफ्ट नहीं हो सकता। तो अब क्या वह पैसे को ज़्यादा महत्व दे या परिवार के साथ रहने को?
कभी-कभी निर्णय लेना बहुत कठिन हो जाता है कि क्या सही है और क्या नहीं।
अर्जुन की जो दुविधा थी, वह भी एक नैतिक दुविधा थी।
एक तरफ था उनका क्षत्रिय धर्म — कि एक योद्धा को युद्ध करना ही चाहिए।
दूसरी ओर था कुल धर्म — अपने परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदारियाँ।
अब युद्ध किससे हो रहा है?
अपने ही परिवार वालों से — अपने गुरु, अपने बंधु-बांधवों से।
इसे समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए:
मान लीजिए कोई पुलिसवाला है जो बहुत ईमानदार है और उसने कई खतरनाक अपराधियों को पकड़ा है।
अब उसे आदेश मिलता है कि एक अपराधी इस इलाके में छिपा है — पकड़ो या ज़रूरत पड़े तो गोली मारो।
वह वहाँ पहुँचता है, दौड़ के पकड़ने लगता है — तभी वह व्यक्ति गिर जाता है और जब वह उसका चेहरा देखता है, तो पता चलता है — वह उसका छोटा भाई है।
अब क्या करे?
क्या पुलिस धर्म निभाकर गोली मार दे? या भाई धर्म निभाकर उसे बचाए?
यही अर्जुन की स्थिति है।
वह जानते हैं कि क्षत्रिय धर्म है युद्ध करना। पर वह जिनसे युद्ध कर रहे हैं — वे उनके अपने ही हैं।
इसलिए अर्जुन कहते हैं: “स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव?”
(हम अपने ही स्वजनों को मारकर कैसे सुखी रह सकते हैं?)
यह कोई भोग की भावना नहीं है, यह एक धार्मिक भ्रम है।
फिर वह कहते हैं:
कुल क्षय प्रणश्यन्ति कुल धर्मः सनातनाः
(जब कुल नष्ट हो जाते हैं, तो उनके धर्म भी नष्ट हो जाते हैं।)
अर्जुन के तीन मुख्य चिंतन हैं —
1. व्यक्तिगत (Personal)
2. सामाजिक (Sociological)
3. वंशगत / भाविष्यगत (Genealogical)
1. व्यक्तिगत:
उन्हें डर है कि युद्ध करने से पाप लगेगा और वे नरक में जाएँगे। यह डर मृत्यु का नहीं, बल्कि आध्यात्मिक पतन का है।
2. सामाजिक:
यदि इतने सारे कुल नष्ट हो जाएँगे तो धर्म का पालन कौन करेगा?
धार्मिक रीति-रिवाज़ों का पालन करने वाले, धर्म के मार्गदर्शक लोग समाप्त हो जाएँगे।
इससे समाज में अराजकता (disruption) और विनाश (destruction) आ जाएगा।
3. वंशगत:
वे कहते हैं कि वर्णसंकर (intermixture of varnas) उत्पन्न होगा।
यदि नैतिक सीमाएँ न रहें, तो समाज दिशाहीन हो जाएगा।
जैसे एक यूरोपीय नेता ने कहा था:
“Most of Europe and America is born in the back of a car over a bottle of beer.”
(अर्थात् बहुत से बच्चे आकस्मिक संबंधों से पैदा होते हैं, बिना जिम्मेदारी के।)
अगर परिवार में कोई देखभाल करने वाला नहीं होगा, तो बच्चों को सही संस्कार नहीं मिलेंगे, और वे गलत मार्ग पर चले जाएँगे।
आज अमेरिका जैसे देशों में बहुत से अपराधी, टूटी हुई या अव्यवस्थित (dysfunctional) परिवारों से आते हैं।
तो अर्जुन का डर यह नहीं है कि उन्हें मार दिया जाएगा,
बल्कि यह है कि कहीं उनके कर्मों से उनका कुल, समाज और भविष्य की पीढ़ियाँ बर्बाद न हो जाएँ।
इसलिए कहा जा सकता है —
Arjuna is far-sighted but not far-sighted enough.
(अर्जुन दूर की सोच रखते हैं, पर उतनी दूर नहीं जितनी गीता उन्हें दिखाने वाली है।)
और यही दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण उन्हें समझाने वाले हैं।
अर्जुन की यह दुविधा एक महान नैतिक संघर्ष है —
जहाँ वह कह रहे हैं — “मैं युद्ध नहीं करूंगा।”
पर यह पलायन नहीं है, यह नैतिक उलझन का परिणाम है।
सारांश:
आज हमने पाँच मुख्य बिंदुओं पर चर्चा की।
1. भगवद गीता की संरचना को कैसे समझें:
किसी भी ग्रंथ का सार समझने के लिए उसकी शुरुआत, अंत और उनके बीच की repetition पर ध्यान देना चाहिए। जहाँ भी कोई बात अपूर्व रूप से दोहराई जाए, वहाँ यह समझना चाहिए कि उस पर विशेष ज़ोर दिया जा रहा है।
2. गीता की शुरुआत ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ से क्यों होती है:
यह केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं है, बल्कि एक धार्मिक युद्धभूमि है। गीता का मुख्य उद्देश्य इस धर्मक्षेत्र में क्या धर्म है — यह स्पष्ट करना है।
3. दुर्योधन का वर्णन क्यों विस्तृत रूप में हुआ है:
क्योंकि दुर्योधन यह दर्शाता है कि कैसे कोई व्यक्ति दूसरों को manipulate कर सकता है, और इसके विपरीत कृष्ण यह दिखाते हैं कि कैसे सही तर्क और मार्गदर्शन से अर्जुन जैसे महान योद्धा को persuade किया जाता है। गीता में दोनों के दृष्टिकोणों की तुलना की गई है।
4. कृष्ण की सरल लेकिन प्रभावशाली एंट्री:
जब संजय कृष्ण का वर्णन करते हैं, तो वह बहुत ही विनम्र ढंग से होता है — एक सारथी के रूप में। लेकिन जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती है, कृष्ण की भूमिका का वास्तविक महत्व उजागर होता है। पहले धृतराष्ट्र की असुरक्षा, फिर दुर्योधन की और अंत में कौरवों की demoralized स्थिति दिखती है। इसके बावजूद अर्जुन युद्ध से पीछे हटते हैं — जो पूरी expectation के विपरीत है।
5. अर्जुन का नैतिक द्वंद्व:
अर्जुन के भीतर जो संघर्ष है, वह केवल डर या अज्ञान का नहीं, बल्कि ethical confusion का है। जब दोनों ओर सही बातें हों और दोनों ओर कुछ गलत भी हो — तब निर्णय लेना कठिन हो जाता है।
क्षत्रिय धर्म कहता है कि युद्ध करो, लेकिन कुल धर्म कहता है कि अपनों का विनाश मत करो।
अर्जुन सोचते हैं कि यदि उन्होंने कुल का नाश किया, तो उन्हें नरक भोगना पड़ेगा। समाज में धार्मिक परंपराएँ नष्ट हो जाएँगी। यह कुल कोई साधारण कुल नहीं है, बल्कि राजघराना है — जिसके नष्ट हो जाने से पूरे राज्य और समाज पर असर पड़ेगा।
इस प्रकार, पहले अध्याय में अर्जुन की दुविधा एक गहरी नैतिक चिंता के रूप में सामने आती है।
लेकिन जैसे हम दूसरे अध्याय में प्रवेश करेंगे, वहाँ कृष्ण दिखाते हैं कि —
“अर्जुन दूरदर्शी हैं, लेकिन पर्याप्त रूप से दूरदर्शी नहीं हैं।”इसी के साथ:
श्रीमद् भगवद्गीता की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
गौर भक्तवृंद की जय!
तत् गौर प्रेमानंदे — हरि हरि बोल!