Hindi – Chapter 2 Part 1 Bhagavad Gita And Decision Making Bhagavad Gita Overview – Chaitanya Charan
Sorry I go late
तो हम जो अभी यहाँ पर भगवद गीता का सार देख रहे हैं, वह कई प्रवचनों की एक सीरीज़ का हिस्सा है। इसका मूल विषय यह है कि अर्जुन को एक बहुत बड़ा फ़ैसला करना है। दो धर्म हैं उनके सामने:
1. कुल धर्म – जिसके अनुसार उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिए क्योंकि सामने वाले उनके रिश्तेदार हैं।
2. क्षत्रिय धर्म – जिसके अनुसार उन्हें युद्ध करना चाहिए क्योंकि दूसरे पक्ष आक्रामक हैं।
अब अर्जुन इस निर्णय को नहीं कर पा रहे हैं।
पहले अध्याय में अर्जुन की समस्या को दर्शाया गया है। शुरुआत में अर्जुन युद्ध करने आए हैं।
1.2 से 1.20 तक अर्जुन पूरी तरह तैयार हैं युद्ध के लिए।
पर 1.21 से 1.46 तक, अर्जुन कहते हैं कि यदि मैं क्षत्रिय धर्म का पालन करूंगा, तो मेरे कुल का नाश हो जाएगा।
यहाँ अर्जुन की दुविधा शुरू होती है:
क्या क्षत्रिय धर्म का पालन करूँ जिससे मुझे यश मिलेगा?
या कुल धर्म का पालन करूँ, जिससे अधोगति से बचा जा सके?
दूसरे अध्याय की शुरुआत में भगवान अर्जुन को शोक में देखकर उन्हें उपदेश देते हैं। अर्जुन कह रहे हैं कि ये मेरी हिचकिचाहट कमजोरी नहीं है – यह मेरी थॉटफुलनेस (विचारशीलता) है।
वे पूछते हैं:
क्या आप मेरे स्थान पर होते, तो अपने गुरु पर आक्रमण करते?
क्या आप ऐसा राज्य चाहते, जो अपने ही लोगों के खून से लथपथ हो?
तो अर्जुन यह नहीं कह रहे कि उन्हें युद्ध नहीं करना है, वह यह पूछ रहे हैं कि:
धर्म क्या है? सही निर्णय क्या है?
यह प्रश्न सर्वव्यापी है – वह यह नहीं पूछ रहे कि “मेरा धर्म क्या है”, बल्कि पूछ रहे हैं – धर्म क्या है? The right thing to do – सही कार्य क्या है?
अर्जुन कहते हैं कि अगर मैं क्षत्रिय धर्म का पालन करके सम्पूर्ण पृथ्वी का राजा बन जाऊं, या स्वर्ग प्राप्त कर लूं – फिर भी यह शोक जो मेरे अंदर है, वह नहीं जाएगा। इसलिए वह कहते हैं, “मैं युद्ध नहीं करूंगा” (2.9)।
पर अंतर क्या है?
पहले अध्याय में अर्जुन ने युद्ध न करने का निर्णय किया था।
दूसरे अध्याय में वह कहते हैं, “जब तक मुझे सही समझ न आए, तब तक मैं युद्ध नहीं करूंगा।”
यह एक inquiry है, एक जिज्ञासा – clarity के बिना कोई निर्णय नहीं।
जैसे कोई मरीज डॉक्टर से पूछता है:
“जब तक मुझे यह न समझ आ जाए कि chemotherapy और radiotherapy में क्या अंतर है, मैं कोई इलाज नहीं लूंगा।”
यह एक सोच-समझकर लिया गया निर्णय है – no treatment without understanding.
अब भगवान थोड़े प्रसन्न हो जाते हैं।
क्यों?
क्योंकि युद्धभूमि जैसी अनपेक्षित जगह पर उन्हें अर्जुन के और विश्व के कल्याण के लिए तत्वज्ञान देने का अवसर मिला है।
यहाँ से गीता की मुख्य शिक्षा शुरू होती है।
हम किसी शास्त्र का सार कैसे समझें?
शास्त्र का सार समझने के लिए पाँच बातें देखी जाती हैं:
- शुरुआत में क्या कहा गया है?
- अंत में क्या कहा गया है?
- किस बात पर ज़ोर (emphasis) दिया गया है?
- किस बात की बार-बार पुनरावृत्ति (repetition) की गई है?
- कोई वाक्य अगर कहा जाए – “अगर कुछ न भी समझे तो बस यही बात याद रखना” – तो वह क्या है?
इन्हीं सूत्रों को स्वामीजी भगवद गीता पर लागू करते हैं।
गीता में पहला उपदेश – 2.11 में मिलता है:
“अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे…”
यह पहला instructive वचन है।
अंतिम उपदेश – 18.66 में:
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज…”
इसके बाद के श्लोक 67–71 में फलश्रुति (गीता की महिमा) है और 72 में अर्जुन का अंतिम उत्तर।
तो इन दो instructive वचनों से हम देख सकते हैं कि गीता का मुख्य सन्देश क्या है।
अब अर्जुन की समस्या क्या थी?
उन्हें यह नहीं पता था कि सही फ़ैसला क्या है?
यह अज्ञान और मोह के कारण हुआ।
तो गीता का उद्देश्य है अर्जुन के इस अज्ञान को दूर करना – ताकि वह जान सके:
सही निर्णय क्या है?
सही कार्य क्या है?
भगवान बताते हैं कि हमारी पहचान दो स्तरों पर होती है:
- Functional Identity (व्यावहारिक पहचान):
जैसे – मैं इंजीनियर हूँ, ब्रह्मचारी हूँ, माता हूँ, पिता हूँ, डॉक्टर हूँ, भारतीय हूँ, इत्यादि। - Spiritual Identity (आध्यात्मिक पहचान):
भगवान के अंश, आत्मा के रूप में हमारी शाश्वत पहचान।
हर Functional Identity के साथ एक कर्तव्य जुड़ा होता है।
जैसे – एक माता का एक कर्तव्य होता है, एक डॉक्टर का एक अलग कर्तव्य होता है।
तो अर्जुन का प्रश्न है:
“धर्म क्या है?”
“मेरे लिए सही कार्य क्या है?”
लेकिन भगवान गीता के लगभग पूरे दूसरे अध्याय में धर्म शब्द का उपयोग ही नहीं करते।
क्यों?
क्योंकि वह पहले अर्जुन को उसकी आध्यात्मिक पहचान का ज्ञान देते हैं।
पहले आत्मा को समझो, फिर कार्य को समझो।
तो सार में:
पहले पहचान तय करो, फिर कार्य तय करो।
बिना सही पहचान के, सही कार्य संभव नहीं।
हां या ना — सीधा उत्तर देना हमेशा उपयुक्त नहीं होता।
कभी-कभी कुछ सवाल इतने जटिल, संवेदनशील और उत्तेजक (provocative) होते हैं कि उनका उत्तर देने से पहले संदर्भ (background) समझाना ज़रूरी हो जाता है।
उदाहरण के लिए:
अगर कोई पूछे, “क्या हम चंद्रमा पर गए थे या नहीं?”
तो कोई वैज्ञानिक हां कह सकता है, और कोई व्यक्ति कह सकता है नहीं।
लेकिन श्रील प्रभुपाद जी का जो दृष्टिकोण है, वह इतना सरल और सीधा नहीं है। उन्होंने अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग संदर्भ में चंद्रमा विषय पर बात की है।
तो जब सवाल संवेदनशील हो, तो बेहतर होता है कि पहले उसकी पृष्ठभूमि (background) स्पष्ट की जाए, ताकि उत्तर को ठीक से समझा जा सके। यदि बिना संदर्भ के उत्तर दे दिया जाए, तो सुनने वाले का मन बंद हो सकता है।
उत्तर ऐसा होना चाहिए जो श्रोता के मन को खोले, न कि बंद करे।
इसीलिए भगवान कृष्ण भी गीता में पहले अर्जुन को पृष्ठभूमि समझा रहे हैं, ताकि वह उत्तर ग्रहण करने के लिए तैयार हो सकें।
पहले पहचान समझो, फिर कर्तव्य।
To understand what duty or dharma is, one must first understand their identity.
Identity → Duty.
पहचान → कर्तव्य।
भगवान क्या कहते हैं?
आपकी एक मूलभूत पहचान (fundamental identity) है — आप आत्मा हैं।
और केवल आप ही नहीं, प्रत्येक जीव आत्मा है।
भगवान कभी भी व्यावहारिक पहचान (functional identity) को अस्वीकार नहीं करते।
उदाहरण:
श्लोक 2.30 और 2.12-13 में, भगवान आत्मा की बात करते हैं, लेकिन 2.40 में वह अर्जुन को “कौन्तेय” कहते हैं — यह अर्जुन की व्यावहारिक पहचान को स्वीकार करना है।
Function identity is not rejected — it is subordinated to fundamental identity.
यहाँ एक और उदाहरण देखें:
अगर मैं अमेरिका जाऊँ और वहाँ प्रवचन दूँ कि हम आत्मा हैं, तो यह ठीक है।
लेकिन इमिग्रेशन ऑफिसर के सामने अगर मैं कहूं “I am a soul, I don’t belong to this world,” तो वह स्वीकार नहीं करेगा।
मुझे अपना भारतीय पासपोर्ट दिखाना ही पड़ेगा।
तो निष्कर्ष यह है:
हमें व्यावहारिक पहचान को नहीं ठुकराना है, पर उसके आधार पर ही सारे कार्य नहीं करने हैं।
हमें अपनी मूलभूत आत्मिक पहचान को भी याद रखना है।
यह है गीता की multi-level identity की अवधारणा।
हमारी पहचान अनेक स्तरों पर होती है — और सबसे पहले हमें यह समझना चाहिए कि:
हम आत्मा हैं।
लेकिन आत्मा का ज्ञान क्यों दिया जा रहा है?
क्योंकि अर्जुन शोक कर रहे हैं।
उनका कहना है कि युद्ध करने से मेरे रिश्तेदार, गुरु, वरिष्ठ जन, सब मारे जाएंगे।
तो भगवान आत्मा की उस विशेषता पर बल देते हैं जो शोक का समाधान कर सके — और वह है:
आत्मा का विनाश नहीं होता।
भगवान कई श्लोकों में यही बात कहते हैं — आत्मा न जल सकती है, न कट सकती है, न मारी जा सकती है।
इसलिए जिनके लिए अर्जुन शोक कर रहे हैं, वे वास्तव में नष्ट नहीं होंगे।
पर प्रश्न आता है — शरीर तो नष्ट होगा, और उससे तो दुख होगा?
तो भगवान यह भी बताते हैं कि:
शरीर का विनाश एक कपड़े बदलने जैसा है।
जैसे पुराने कपड़े छोड़कर नए कपड़े पहने जाते हैं।
इस प्रकार आत्मा का ज्ञान, अर्जुन के कुल के प्रति शोक को दूर करने में सहायक होता है।
आगे बढ़ते हुए, भगवान आत्मा के अविनाशी होने के दो मुख्य परिणाम (implications) बताते हैं:
- 2.31–2.37 – स्वर्ग की प्राप्ति का दृष्टिकोण
- 2.38–2.53 – मुक्ति की प्राप्ति का दृष्टिकोण
आत्मा का ज्ञान सिर्फ सैद्धांतिक नहीं है, उसे प्रयोग में लाना पड़ता है।
भगवान अर्जुन से कहते हैं:
यदि तुम इस धर्म युद्ध में मारे गए, तो स्वर्ग जाओगे।
यदि तुम विजयी हुए, तो पृथ्वी का राज्य पाओगे।
दोनों ही स्थिति में तुम्हारा कल्याण है।
इस प्रकार भगवान अर्जुन की कुल धर्म वाली चिंता को पहले आत्मा के ज्ञान से शांत करते हैं, और फिर कर्तव्य (duty) के स्तर पर समझाते हैं कि युद्ध करना क्यों उचित है।
यहाँ हमें एक बात और समझनी चाहिए — श्रोता की योग्यता के अनुसार स्पष्टता (clarity) दी जाती है।
Audience का स्तर जितना ऊँचा होगा, उतना गहराई से स्पष्टीकरण की आवश्यकता होगी।
जैसे किसी नए डॉक्टर को इलाज की बुनियादी बातें पता होती हैं,
लेकिन जटिल केस में उसे भ्रम हो सकता है।
उसी प्रकार अर्जुन को तत्वज्ञान था,
लेकिन युद्ध के उस क्षण में वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि किस ज्ञान को अपनाना है और किसे छोड़ना है।
पहले अध्याय में भी अर्जुन स्वर्ग और नरक का उल्लेख करते हैं।
तो वह अगले जन्म को मानते हैं।
पर मोह का अर्थ है — सम्यक रूप से भ्रम।
जब ज्ञान होते हुए भी निर्णय नहीं हो पा रहा हो, वही मोह है।
अब क्या हो रहा है?
हो सकता है कि जो ज्ञान एक वरिष्ठ डॉक्टर के पास है, वही ज्ञान एक कनिष्ठ डॉक्टर के पास भी हो। पर अंतर कहाँ है? अंतर अनुभव का है। कौन सी चीज़ कब देखनी है, यह अनुभव से आता है। यही मुख्य बात है — कि सिर्फ जानकारी होना पर्याप्त नहीं, अनुभव से समझना होता है कि किस क्षण कौन-सी बात महत्वपूर्ण है।
उदाहरण के लिए, जब कोई वरिष्ठ डॉक्टर कहता है, “अरे, ऐसा भी हो सकता है। मैंने पहले देखा है कि इसका यह असर हुआ था,” तब वह अनुभव से बोलता है। और शायद वह निर्णय लेता है कि यह दवाई नहीं देनी है, बल्कि दूसरी देनी है।
इसी तरह, श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता में इतना कुछ “नया” नहीं बता रहे हैं — वह उसे स्मरण करा रहे हैं, जगाने का प्रयास कर रहे हैं।
जैसे कोई अच्छा प्रशिक्षित नया डॉक्टर भी हो सकता है — उसे किताबों से ज्ञान तो है, पर वह अनुभव नहीं है कि उस ज्ञान को कब, कहाँ और कैसे लागू करना है। यही भूमिका गीता में श्रीकृष्ण निभा रहे हैं।
गीता का उद्देश्य केवल सूचना देना नहीं है — बल्कि अर्जुन की दृष्टि को शुद्ध और स्पष्ट करना है।
अर्जुन, युद्ध के परिणामों को लेकर भ्रमित हो चुका है — विशेषकर अगले जन्म के परिणामों को लेकर। वह सोचता है कि युद्ध करने से पाप लगेगा और नरक प्राप्त होगा। पहला अध्याय (1.44) में वह नरक का उल्लेख करता है, और दूसरे अध्याय (2.8) में स्वर्ग की बात करता है।
तो हम कह सकते हैं:
“Arjuna’s vision is farsighted, but not farsighted enough.”
अर्जुन दूर की सोच तो कर रहा है, लेकिन वह अभी भी आध्यात्मिक रूप से अपरिपक्व है।
जब भगवान कहते हैं — “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय…” (2.22)
तो वह समझा रहे हैं कि मृत्यु का अर्थ अंत नहीं है। भीष्म और द्रोण जैसे वृद्ध योद्धाओं का शरीर छूटेगा, पर आत्मा को नया शरीर मिलेगा। और चूंकि वे धार्मिक और नीतिमान हैं, इसलिए उनकी अधोगति नहीं होगी। वे या तो स्वर्ग जाएंगे या भगवत-प्राप्ति करेंगे।
ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण लाभ है:
“Knowledge gives clarity about the future — as much as it can be seen.”
भविष्य कोई पूर्ण रूप से नहीं जान सकता, पर ज्ञान से हम संभावना और दिशा समझ सकते हैं।
उदाहरण: अगर किसी को पता न हो कि सिगरेट पीना नुकसानदायक है, तो वह फैशन समझकर पीता रहेगा। पर जिसे ज्ञान है, वह समझता है कि इससे फेफड़े खराब हो सकते हैं — भले ही वह नुकसान 5 साल में हो या 50 साल में।
अर्जुन की जो पहले की समझ थी, उसमें वह सोचता था —
“मैं इन सबको मारूंगा, इसलिए मैं पापी बनूंगा और नरक में जाऊंगा।”
पर श्रीकृष्ण उसे यह दृष्टिकोण बदलकर बता रहे हैं —
“अगर तुम युद्ध नहीं करोगे, तब तुम्हें पाप लगेगा।”
यहाँ अर्जुन की समस्या हिंसा से घृणा नहीं है, बल्कि अपनों के प्रति हिंसा करने की हिचकिचाहट है।
कई लोग कहते हैं कि अर्जुन शांतिप्रिय था, और भगवान ने उसे युद्ध के लिए उकसाया।
पर यह ऐसा कहना है जैसे कोई सेना का कमांडर हो और कहे, “मैं हमेशा शांति से रहूंगा।”
योद्धा का धर्म है कि वह न्याय के लिए युद्ध करे।
अर्जुन ने कई युद्ध लड़े हैं, यह उसका स्वभाव और धर्म दोनों है।
पर इस बार उसका संघर्ष आंतरिक है —
“मैं अपनों पर, जिनका मुझे आदर है, कैसे शस्त्र उठाऊँ?”
इसीलिए भगवान अर्जुन को बताते हैं —
“तुम्हारा युद्ध करना ही उन सबका कल्याण करेगा।”
गीता के इस खंड में तीन मुख्य बातें स्पष्ट होती हैं:
- मूल पहचान का ज्ञान (Self-realization):
हम आत्मा हैं, शरीर नहीं — यह ज्ञान अर्जुन को दिया गया। - कुल धर्म के प्रति स्पष्टीकरण:
अर्जुन की चिंता थी कि कुल का नाश होगा, पर भगवान बताते हैं कि आत्मा न नाश होती है, न उत्पन्न — इसलिए कुल का “विनाश” नहीं हो रहा है। - धर्म के साथ व्यावहारिकता:
आत्मा का ज्ञान हमें यह नहीं कहता कि व्यावहारिक जीवन से भागें। हमें समाज में अपने धर्म अनुसार कार्य करना है — अर्जुन को क्षत्रिय धर्म निभाना है।
अगर वह क्षत्रिय धर्म करेगा, तो या तो पृथ्वी प्राप्त करेगा या स्वर्ग — दोनों ही स्थिति में उसका कल्याण निश्चित है।
पर अगर वह युद्ध से पीछे हटता है, तो उसे पाप और बदनामी दोनों मिलेगी।
अंततः, भगवान अर्जुन को केवल कर्म नहीं, बल्कि सही भावना और दृष्टिकोण से कर्म करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं —
“Do the right thing, with the right intention.”
भगवान चाहते हैं कि अर्जुन न केवल धर्म का पालन करे, बल्कि मुक्ति के मार्ग पर भी आगे बढ़े।
अगले प्रवचन में हम गीता के दूसरे अध्याय के दूसरे भाग में देखेंगे कि भगवान मुक्ति और स्थिरबुद्धि व्यक्ति के लक्षण कैसे समझाते हैं।
बहुत-बहुत धन्यवाद!
श्रीमद् भगवद्गीता की जय!