Hindi – Chapter 2 Part 2 Bhagavad Gita And Decision Making Bhagavad Gita Overview – Chaitanya Charan
भगवद्गीता का द्वितीय अध्याय: एक विवेचन
द्वितीय अध्याय निर्णय लेने में मार्गदर्शन करता है। इसमें कुल 72 श्लोक हैं, जिन्हें छह मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है:
- श्लोक 1–10: अर्जुन का आत्मसमर्पण – अर्जुन शरणागत होकर पूछते हैं: “धर्म क्या है?”
- श्लोक 11–30: आत्मा का ज्ञान – भगवान आत्मा की अमरता और युद्ध न करने के कारणों का खंडन करते हैं।
- श्लोक 31–37: क्षत्रिय धर्म – श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि युद्ध करना उसका धर्म है, जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
- श्लोक 38–53: कर्मकांड और कर्मयोग की तुलना – श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्मफल की आसक्ति त्याग कर युद्ध करना श्रेष्ठ है।
- श्लोक 54–72: स्थितप्रज्ञ के लक्षण – अंत में, भगवान उस व्यक्ति के गुण बताते हैं जो आत्मज्ञान में स्थित है।
मुख्य विषय: भगवान का उद्देश्य और शिक्षण पद्धति
भगवान अर्जुन को तीरंदाजी की उपमा से शिक्षा देते हैं। जैसे कोई कुशल धनुर्धर लक्ष्य को हर दिशा से भेदता है, वैसे ही श्रीकृष्ण अर्जुन को अलग-अलग दृष्टिकोणों से प्रेरित करते हैं कि उसे युद्ध करना चाहिए।
कभी वे कर्मकांड के आधार पर लाभ बताते हैं, तो कभी भावों से परे कर्मयोग का उपदेश देते हैं। यह शिक्षण पद्धति दर्शाती है कि श्रीकृष्ण न केवल दिव्य वक्ता हैं, बल्कि अत्यंत कुशल शिक्षक भी हैं।
कर्मकांड बनाम कर्मयोग
भगवान बताते हैं कि:
- कर्मकांड के फल अस्थायी (क्षणिक) होते हैं।
- कर्मयोग के फल शाश्वत और आत्मोन्नति की ओर ले जाते हैं।
श्लोक 40 में भगवान कहते हैं:
“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥”
इसका अर्थ है – कर्मयोग में कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता, न ही इसका कोई नकारात्मक परिणाम होता है।
प्लॉट ट्विस्ट और रुचि की जागृति
भगवान 2.37 में कर्मकांड की तर्ज पर युद्ध के लाभ बताते हैं, पर अगले ही श्लोक 2.38 में कहते हैं:
“सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।”
यहाँ वे अर्जुन से कहते हैं कि सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय की चिंता किए बिना युद्ध करो। यह प्रतीत होता है जैसे वे अपने पहले कथन से उल्टा कह रहे हैं – पर वास्तव में यह गहराई में ले जाने की रणनीति है। इस विरोधाभास (Plot Twist) से श्रोता की रुचि और गहराई से जुड़ जाती है।
शिक्षा का क्रम और श्रोता की पात्रता
भगवान वहीं से शिक्षा शुरू करते हैं जहाँ अर्जुन स्थित है – यानी कर्मकांड के स्तर से। वैदिक संस्कृति में अधिकांश लोग धर्म, अर्थ, और काम तक सीमित रहते हैं – मोक्ष का मार्ग गिने-चुने ज्ञानी या वैरागी अपनाते हैं।
इसीलिए गीता में भगवान क्रमशः:
- कर्मकांड
- कर्मयोग
- ज्ञानयोग
- ध्यानयोग
- और अंततः भक्ति योग
का वर्णन करते हैं।
आसक्ति और उत्तरदायित्व में अंतर
भगवान कभी यह नहीं कहते कि फल की परवाह मत करो, बल्कि वे यह कहते हैं कि फलों में आसक्त मत हो। ‘परवाह न करना’ गैर-जिम्मेदारी है, जबकि ‘अनासक्ति’ का अर्थ है निष्काम सेवा भावना से कार्य करना।
उदाहरण:
अगर एक बच्चा परीक्षा के समय पढ़ाई नहीं करता और कहता है “मैं अनासक्त हूं”, तो यह अनासक्ति नहीं, बल्कि गैर-जिम्मेदारी है।
भगवद्गीता का संदेश है – कर्तव्य करो, पर आसक्त मत हो।
भगवद्गीता केवल एक शास्त्र नहीं, बल्कि एक कुशल संवाद है, जो उद्देश्य (Purpose) की पूर्ति हेतु विभिन्न प्रक्रियाओं (Processes) को प्रस्तुत करता है। इसका उद्देश्य है – व्यक्ति को भावबंधन से मुक्त करना। यह मुक्ति विभिन्न मार्गों से संभव है: कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, और सर्वोच्च रूप में – भक्ति योग।
श्रीकृष्ण एक शिक्षक के रूप में यह सिद्ध करते हैं कि हर शिष्य की स्थिति से संवाद शुरू कर, उसे धीरे-धीरे सत्य की ओर ले जाना ही सच्चा मार्गदर्शन है।
भगवद्गीता में भगवान का संदेश: फ़ल से आसक्ति क्यों न रखें?
भगवान कहते हैं: “फ़ल से आसक्त मत हो।” इसका क्या अर्थ है?
इसका एक अर्थ यह है कि कर्तव्य करते समय यह मत सोचो कि परिणाम मिलेगा या नहीं, उसी आधार पर तुम्हारा समर्पण तय हो। अगर हम सोचें कि “फल नहीं मिलेगा तो कार्य क्यों करें?” — तो यह दृष्टिकोण गलत है।
हमें कर्तव्य करना ही है, क्योंकि वह हमारा उत्तरदायित्व है। हमें ऐसे कार्य करना है कि फल मिले, लेकिन केवल फल पाने के लिए नहीं करना है।
उदाहरण के लिए, माता-पिता बच्चों का पालन-पोषण करते हैं ताकि वे अच्छे नागरिक और भक्त बनें, लेकिन यदि बच्चा सही दिशा में न जाए, तो क्या वे उसे त्याग देंगे? नहीं — वे फिर भी उसे प्रेम से सुधारने का प्रयास करते रहते हैं। यही त्याग और निस्वार्थता का भाव है।
यहां हमें दो बातें समझनी होंगी: एक है लक्ष्य (Goal या ध्येय) और दूसरा है फल (Result)। दोनों समान नहीं हैं। लक्ष्य पहले तय होता है, फल बाद में आता है।
जैसे अर्जुन ने युद्ध में हर दिन कोई लक्ष्य तय किया — जैसे जयद्रथ वध का संकल्प। लेकिन फल उसके बाद ही आया। भगवान कहते हैं:
“Action comes first, result comes after.”
लक्ष्य पर ध्यान देने से हमारा उत्साह और संकल्प मज़बूत होता है। लेकिन यदि हम फल से आसक्त हो जाएं, तो वह हमें कर्तव्य से भटका सकता है।
मान लीजिए कोई क्रिकेटर आखिरी बल्लेबाज है और 150 रन चाहिए। अगर वह हर गेंद पर यही सोचता रहे कि “150 रन कैसे होंगे?” तो वह हतोत्साहित हो जाएगा। लेकिन अगर वह बस अगली गेंद पर ध्यान दे — तो वह खेल सकता है।
फल की संभावना जब बहुत कम हो, तो व्यक्ति निराश हो जाता है और कर्म ही छोड़ देता है। इसलिए फल को लक्ष्य की प्रेरणा मानो, पर आसक्ति मत बनाओ।
अर्जुन का दृष्टिकोण यही था — उन्हें युद्ध जीतने का लाभ दिख रहा था, लेकिन प्रियजनों की मृत्यु का हानि भी। वह सोच रहे थे कि ये राज्य का लाभ उस हानि के आगे अर्थहीन है।
इसलिए भगवान ने कहा —
“सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय — इन सबको समान मानकर कर्तव्य करो।”
क्योंकि हर कार्य के कई स्तर पर परिणाम होते हैं।
उदाहरण के लिए — यदि कोई प्रवचन कर रहा है और श्रोता रुचि नहीं दिखा रहे, तब भी वक्ता को यह सोचना चाहिए कि यह नेट प्रैक्टिस है, ताकि वह आगे और बेहतर बोल सके।
हो सकता है —
- किसी एक को समझ में आ जाए
- वक्ता का अभ्यास हो जाए
- या भगवान का नाम प्रचारित हो जाए
यह सब भी फल हैं — जिन्हें हम तुरंत न देख पाएं, पर होते अवश्य हैं।
इसीलिए, जब हम केवल तात्कालिक फल को ही देखने लगते हैं, तो हमारी दृष्टि सीमित हो जाती है।
जैसे किसी छात्र ने पढ़ाई की और उसे नंबर नहीं मिले, लेकिन उस पढ़ाई से मिली समझ आगे चलकर उसकी नौकरी या जीवन में मदद कर सकती है।
कई बार मार्क्स में औसत रहने वाले लोग जीवन में ऊँचे पद पर पहुंच जाते हैं — क्योंकि उन्होंने विषय को गहराई से समझा था।
अतः, कर्म करना हमारा धर्म है — और फल?
वह ईश्वर के हाथ में है।
हमारा ध्यान केवल इस पर हो कि हम कर्तव्य को श्रद्धा और समर्पण से करें — फल आए, न आए, उसकी चिंता नहीं।
जिस विषय का व्यावहारिक ज्ञान है, वह उन्होंने अच्छे से प्राप्त किया है। इससे उन्हें निश्चित रूप से लाभ हो सकता है।
कभी-कभी हमें ऐसा अनुभव होता है कि जो तत्काल फल मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला — परंतु दीर्घकालीन रूप में उससे बड़ा फल मिल सकता है।
जब हम ‘कर्मयोग’ की बात करते हैं, तो शास्त्र यह सिखाते हैं कि कर्म करते समय उसके फल के प्रति आसक्त न हो। सामान्यतः जब शास्त्र ‘फल’ त्यागने की बात करते हैं, तो इसका आशय होता है भौतिक इच्छाओं और भौतिक आसक्तियों का त्याग। भगवान आगे स्पष्ट करते हैं कि आध्यात्मिक इच्छाएं अच्छी होती हैं — जैसे “भगवान की प्राप्ति” की इच्छा। ऐसी इच्छाएं त्याज्य नहीं, बल्कि वांछनीय हैं।
इसलिए जब भगवान कहते हैं कि “फल से आसक्त मत रहो”, तो उसका तात्पर्य है — भौतिक फल से आसक्ति न रखो।
तुम युद्ध कर रहे हो — उसमें तुम जीतोगे या हारोगे, लाभ होगा या हानि — इसकी चिंता मत करो।
युद्ध का फल चाहे जो हो, यदि तुम बिना फल की आसक्ति के कर्तव्य करोगे, तो उससे मुक्ति की प्राप्ति होगी — जो कि सर्वोच्च फल है।
भगवान कई स्थानों पर कहते हैं कि आध्यात्मिक फल उत्तम हैं। भक्ति, प्रेम, और भगवत्प्राप्ति — ये सब एक प्रकार की मुक्ति ही हैं। इसलिए मुक्ति को त्याज्य समझना उचित नहीं।
अब जब भगवान अर्जुन से कहते हैं कि “फल की अपेक्षा मत रखो”, तो अर्जुन के मन में यह प्रश्न उठता है कि:
“ऐसा व्यक्ति, जो इस तरह स्थित होता है, वह कैसा होता है?”
क्योंकि अर्जुन स्वयं द्वंद्व में है — उसे युद्ध करना है या नहीं, यह तय नहीं कर पा रहा है। पहले भगवान ने कहा — “युद्ध करो।” फिर कहा — “कर्तव्य करो पर फल की आसक्ति मत रखो।” अब वे कह रहे हैं — “ऐसे कर्तव्य करने से तुम शांत, स्थितप्रज्ञ हो जाओगे।”
तो अर्जुन पूछता है:
“स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के लक्षण क्या हैं?”
“वह कैसे बोलता है?”
“कैसे बैठता है?”
“कैसे चलता है?”
यहां अर्जुन लाक्षणिक (non-literal) प्रश्न कर रहा है — जैसे “कैसे बोलता है?” से आशय है कि कठिनाइयों में उसकी वाणी कैसी होती है, “कैसे बैठता है?” का अर्थ है उसकी इंद्रियनिग्रह की अवस्था, आदि।
ये चारों प्रश्न प्रतीकात्मक हैं। भगवान भी इनका उत्तर प्रतीकात्मक और गहराई से देते हैं।
उदाहरणतः:
- भाषिते किम्? → वह व्यक्ति सुख-दुख में कैसा बोलता है? उसकी वाणी कैसी होती है?
- किं आसीत? → वह किस प्रकार इंद्रियों का संयम करता है?
- किं ब्रजेत? → वह अपने कर्मों में इंद्रियों को कैसे लगाता है?
भगवान इन प्रश्नों का उत्तर क्रमशः श्लोकों 2.55 से लेकर 2.71 तक देते हैं:
- 2.55 में स्थितप्रज्ञ की वाणी की विशेषता।
- 2.58-61 में इंद्रियों को संयमित करने की विधि (कछुए के उदाहरण से)।
- 2.62-71 में इच्छाओं की उत्पत्ति, विनाश, और अंततः मुक्ति की स्थिति का वर्णन।
मुख्य बिंदु यह है:
जब अर्जुन को युद्ध करना है, तो उसे अपने इंद्रियों को वश में रखते हुए कर्तव्य पर केंद्रित रहना है। यदि वह भीष्म या द्रोण की व्यक्तिगत पहचान के आधार पर युद्ध में भावुक हो गया, तो उसका कर्तव्यच्युत होना निश्चित है।
भगवान यही समझा रहे हैं:
- कर्तव्य करो, फल की चिंता मत करो।
- अपने चिंतन को विषयों से हटाकर भगवान में लगाओ।
- जो इंद्रियों को नियंत्रित करके, आध्यात्मिक लक्ष्य पर केन्द्रित होता है, वही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
अंत में भगवान यह भी कहते हैं कि जब हम कोई कार्य करते हैं, तो यह न देखें कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं, बल्कि यह देखें कि कर्तव्य क्या है।
यही कर्मयोग का सार है —
“कर्तव्य पर ध्यान दो, न कि दुनिया की धारणा पर।”
मान लीजिए हम गाड़ी चला रहे हैं।
तो जब हम गाड़ी चला रहे होते हैं, तो हमें ध्यान कहाँ देना चाहिए? — सामने की ओर।
लेकिन कभी-कभी क्या होता है? जब मैं अमेरिका जाता हूँ, तो कई बार खुद ड्राइव नहीं करता, बल्कि कोई और ड्राइव कर रहा होता है और मैं पास वाली सीट पर बैठा होता हूँ।
ऐसे में कभी-कभी भक्त मुझसे कोई प्रश्न पूछते हैं।
मैं उनसे पूछता हूँ, “अगर मैं उत्तर दूँगा, तो क्या आप मेरा उत्तर सुनकर ध्यान भटकाओगे?”
तो कोई मज़ाक में जवाब देता है, “यह आपके उत्तर पर निर्भर करता है।”
अब, अगर कोई बहुत गंभीर प्रश्न है, तो हम कहते हैं — “ड्राइविंग किसी और को दे दीजिए, हम दोनों पीछे बैठते हैं और पूरी तरह चर्चा पर ध्यान देते हैं।”
क्योंकि अगर कोई गाड़ी चला रहा है, तो इंद्रियों को पूरी तरह सड़क पर केंद्रित करना होता है।
लेकिन “इंद्रियों को लगाना” का मतलब यह नहीं कि वे कहीं भी भटकें — बल्कि, ज़रूरत के अनुसार नियंत्रित रूप से लगाना है।
ठीक उसी तरह, भगवान अर्जुन को भी यही बता रहे हैं —
“जब तुम युद्ध करोगे, तो हो सकता है कोई तुम्हारी निंदा करे।”
अब शास्त्रों में “निशा” का जो उपयोग होता है, वह अक्सर उन लोगों के लिए किया जाता है जो भौतिक दृष्टि से सोचते हैं।
इस संदर्भ में, भगवान कह रहे हैं कि जो लोग कर्मकांड के स्तर पर सोचते हैं — वे तुम्हारे युद्ध को स्वार्थ या विजय की लालसा से प्रेरित मानेंगे।
वे यह नहीं समझ पाएंगे कि तुम धर्म की रक्षा के लिए युद्ध कर रहे हो।
लेकिन तुम्हें उनकी बातों की चिंता नहीं करनी है।
तुम्हें क्या करना है?
पूर्ण एकाग्रता से युद्ध करना है — अपने मन को अपने कर्तव्य से भर देना है।
लोग तुम्हारे बारे में क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, वह बातें कानों के रास्ते मन में आ सकती हैं,
पर उन्हें मन में टिकने मत देना।
मन को अपने कर्तव्य और लक्ष्य से पूर्णतः भर दो — तब ही तुम उनसे विचलित नहीं होगे।
अंततः भगवान कहते हैं —
“यदि तुम इस प्रकार जीवन जीते हो, और अंत समय तक इसी मनोभाव में स्थित रहते हो, तो तुम परम सिद्धि को प्राप्त करोगे।”
यहाँ पहली बार भगवान “अंतकाल” की महत्ता का उल्लेख करते हैं।
इस प्रकार भगवान अर्जुन को समझाते हैं — अर्जुन ने प्रश्न पूछा था, और भगवान ने उत्तर भी विस्तारपूर्वक दिया।
कभी-कभी ऐसा होता है कि जब प्रवचन चल रहा होता है, और कोई श्रोता बीच में कोई प्रश्न पूछता है, तो उत्तर देते-देते विषय थोड़ा इधर-उधर हो सकता है।
परन्तु एक कुशल शिक्षक वही होता है, जो चाहे प्रश्न किसी भी दिशा में जाए, उत्तर देकर मुख्य विषय पर वापस लौट आए।
यहाँ भी अर्जुन ने 2.54 में जो प्रश्न पूछा था — स्थितप्रज्ञ के लक्षणों को लेकर — भगवान 2.55 से लेकर 2.72 तक विस्तार से उत्तर देते हैं।
2.55 थोड़ा सा प्रसंग से हटकर प्रतीत हो सकता है, पर 2.58 से 2.72 तक भगवान उसी संदर्भ में अर्जुन को कर्तव्यपालन की स्पष्ट दृष्टि प्रदान करते हैं।
तो इस प्रकार हमने गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम दो भागों को देखा।
पहले भाग (2.38–2.53) में कर्मकांड और कर्मयोग की तुलना हुई और उनका स्पष्टीकरण हुआ।
यहाँ भगवान ने यह स्पष्ट किया कि उद्देश्य रखना अच्छी बात है,
लेकिन अगर हम फल के प्रति आसक्त हो जाते हैं, तो वही हमें कर्तव्य से विचलित और भ्रमित कर सकता है।
फिर अर्जुन ने प्रश्न किया — “स्थितप्रज्ञ कौन है?”
तो भगवान ने स्थितप्रज्ञ के चार प्रमुख लक्षण बताए और यह भी समझाया कि इंद्रिय-संयम और समत्वबुद्धि ही स्थितप्रज्ञता की निशानी है।
इस पूरे संवाद में हमने देखा कि भगवान कितनी कुशलता से अर्जुन को उसके युद्ध धर्म की ओर लाते हैं।
भगवान विषय से भटकते नहीं हैं — वे जानबूझकर अर्जुन को उसके धर्म और कर्तव्य की ओर प्रेरित करते हैं।
और अब जबकि भगवान ने यह सब स्पष्ट किया है, फिर भी अर्जुन अभी भी भ्रम में रहेगा —
अर्जुन का यह भ्रम, और भगवान कैसे उस भ्रम को दूर करते हैं — इसकी चर्चा हम अगले प्रवचन में करेंगे।
बहुत-बहुत धन्यवाद।
श्रीमद्भगवद्गीता की जय।
श्रील प्रभुपाद की जय।
सभी गौर भक्तों की जय।