Hindi – Chapter 3 Bhagavad Gita And Decision Making Bhagavad Gita Overview Chaitanya Charan
भगवद गीता: प्रश्नों और उत्तरों का प्रवाह
कल हमने एक सवाल पर चर्चा की थी, जिसका जवाब 2.50, 422, 0.72 था। हमने यह भी देखा कि भगवद गीता एक व्याख्यान नहीं है, बल्कि प्रश्नोत्तरों का संग्रह है। गीता के प्रवाह को समझने के लिए, हमें यह देखना होगा कि किस प्रकार का प्रश्न पूछा गया है और उसका उत्तर कैसे दिया गया है।
कोई भी सवाल आने पर, हम उसके बारे में तीन मुख्य प्रश्न पूछ सकते हैं:
- प्रश्न क्या है? (What is the question?) — कभी-कभी लोग ऐसे सवाल पूछते हैं जो स्पष्ट नहीं होते।
- प्रश्न क्यों पूछा गया? (Why the question?) — अगर चर्चा किसी एक विषय पर है और कोई बिल्कुल अलग सवाल पूछता है, तो यह समझना ज़रूरी है कि वह प्रश्न क्यों प्रासंगिक है।
- उत्तर क्या है? (What is the answer?) — सवाल का जवाब क्या है?
हम भगवद गीता के प्रवाह को विभिन्न तरीकों से देख सकते हैं, लेकिन यहाँ हम इसे विशेष रूप से प्रश्नों और उत्तरों के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे।
अर्जुन का भ्रम: शांति और युद्ध
दूसरे अध्याय में, जब भगवान ने धर्म का सवाल उठाया, तो उन्होंने अर्जुन को अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करने पर ज़ोर दिया। इसे करने के लिए उन्होंने दो रास्ते बताए: एक कर्मकांड के स्तर पर, और दूसरा कर्मयोग के स्तर पर। सार यह था कि अर्जुन को युद्ध करना चाहिए।
जब भगवान ने ऐसा कहा, तो तीसरे अध्याय की शुरुआत में अर्जुन ने सवाल पूछा, “आपके वाक्य मुझे मोहित कर रहे हैं, मुझे मिश्रित लग रहे हैं। कृपया मुझे एक चीज़ स्पष्टता से बताएं।” अर्जुन को कौन से वाक्य मिश्रित लग रहे थे और क्यों उन्हें लगा कि भगवान ने स्पष्ट नहीं बताया है?
धारणाओं का महत्व
जब हम कोई सवाल पूछते हैं, तो हर सवाल कुछ धारणाओं से उत्पन्न होता है (Every question arises from a set of conceptions)। यदि वे धारणाएँ अधूरी या गलत हैं, तो कोई भी जवाब समझ में नहीं आएगा।
अर्जुन की दो मुख्य धारणाएँ थीं: युद्ध करें या युद्ध न करें (Fight or Don’t fight)? यानी, कर्म करें या संन्यास लें? अर्जुन को लगा कि यदि उन्हें शांति चाहिए, तो उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, अर्जुन शांति को युद्ध न करने (Peace is associated with not fighting) के साथ जोड़ रहे थे।
भगवान के निर्देश और अर्जुन की दुविधा
भगवान ने स्पष्ट रूप से अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहा था। यह उन्होंने 2.37 और 2.38 में कहा, जहाँ उन्होंने स्वर्ग प्राप्ति या पृथ्वी प्राप्ति के लिए युद्ध करने की बात की, या फिर बिना किसी कामना के युद्ध करने को कहा। 2.48 में उन्होंने कर्म करने को कहा, फल की अपेक्षा किए बिना। दोनों ही जगह पर, भगवान युद्ध करने की बात कर रहे थे।
लेकिन, दूसरे अध्याय के अंत में, श्लोक 70 और 71 में, भगवान शांति का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि उसे शांति मिलेगी (ना काम कामी)। इससे अर्जुन भ्रमित हो गए। एक तरफ भगवान उन्हें युद्ध करने को कह रहे हैं, और दूसरी तरफ शांति की बात कर रहे हैं। अर्जुन को लगा, “आप मुझे युद्ध करने को कह रहे हैं या युद्ध न करने को?” उनके मन में आया, “युद्ध करने से शांति कैसे मिलेगी?”
वास्तव में, अर्जुन बाह्य शांति (external peace) के बारे में बात कर रहे थे, जबकि भगवान अंतरंग शांति (internal peace) के बारे में।
शब्दों का अर्थ: लक्ष्यार्थ और संदर्भ
अंग्रेजी में इसे ‘denotation’ और ‘connotation’ कहते हैं – शब्द का शाब्दिक अर्थ और उसका प्रासंगिक अर्थ। जैसे मुहावरा “लातों के भूत बातों से नहीं मानते।” इसका शाब्दिक अर्थ लें तो समझ नहीं आएगा। इसका अर्थ उसके संदर्भ में ही समझना होगा।
इसी तरह, शांति का अर्थ संदर्भ के अनुसार बदलता है। युद्धभूमि में कोई शांति की बात कर रहा है, तो अर्जुन को लगा कि वह युद्ध न होने की बात कर रहा है।
दूसरे अध्याय में एक और जटिलता है। भगवान कहते हैं, “दूरेण ह्यवरं कर्म” (2.49) — यानी, जो कर्म अधम है उसे दूर रखो। ‘अवर’ का अर्थ है निम्न या घटिया। भगवान कहते हैं कि ऐसे कार्य से दूर रहो जिससे तुम्हें कोई अच्छी प्राप्ति नहीं होगी। अर्जुन की दृष्टि से, अपने ही रिश्तेदारों को मारना एक ‘अवर’ कर्म था।
शिक्षा के पहलू: सरलता और जटिलता
शिक्षा के दो पहलू होते हैं: सरल चीज़ को जटिल बनाना और जटिल चीज़ को सरल करना। उदाहरण के लिए, एक छोटा बच्चा जानता है कि छोटे नंबर से बड़ा नंबर घटाया नहीं जा सकता (3-5 संभव नहीं)। शिक्षक उसे बताता है कि यह संभव है, पर एक अलग स्तर पर (नकारात्मक संख्याएँ)।
कभी-कभी शिक्षा में, हमें सरल चीज़ को जटिल बनाना पड़ता है (complexify the simple), क्योंकि सत्य उतना सरल नहीं होता जितना लगता है। अगर कोई व्यक्ति किसी चीज़ को बहुत सरल मान रहा है, तो उसे उसकी जटिलता समझानी पड़ती है। जैसे, बच्चों को सिखाते हैं कि “यह काला है, यह सफेद है।” लेकिन दुनिया में काले और सफेद चीज़ें बहुत कम हैं; अधिकांश दुनिया ग्रे या अन्य रंगों की है।
अर्जुन सोच रहे थे कि उनके पास केवल दो ही विकल्प हैं: युद्ध करना या युद्ध न करना। लेकिन भगवान ने वास्तव में बताया कि कर्म के अनेक स्तर होते हैं। सबसे नीचे है विकर्म (जो कर्म नहीं करना चाहिए)। भगवान कहते हैं कि अगर तुम युद्ध नहीं करोगे, तो भी वह एक विकर्म होगा। उसके बाद है कर्मकांड (निश्चित विधि-विधान से किया गया कार्य), और उसके ऊपर है कर्मयोग। अभी तक भगवान ने कर्म के तीन स्तर बताए हैं, और तीनों में ‘कार्य’ (action) शामिल है।
कर्म, वैराग्य और अर्जुन की दुविधा
भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में भगवान कृष्ण अर्जुन को कर्म और वैराग्य के बीच की दुविधा से निकालने का प्रयास करते हैं. अर्जुन के मन में केवल दो ही विकल्प हैं: कर्म करना या कर्म न करना. कर्म न करने के संबंध में भगवान स्पष्ट करते हैं कि यह उचित नहीं है, क्योंकि इससे निंदा और पाप लगता है. यह बात विशेषकर 2.33 श्लोक में बताई गई है, जहाँ भगवान कहते हैं कि “तुम्हारी निंदा हो जाएगी और तुम्हें पाप लगेगा.”
इसके अलावा, भगवान उन “पुष्पिताम वाचम्” (यानि लुभावनी बातें) की भी चर्चा करते हैं जो क्षणिक भौतिक फल का वर्णन करती हैं. वे कहते हैं कि ये भी त्यागने योग्य हैं, क्योंकि इनका फल क्षणिक होता है. 4.9 में भगवान अर्जुन को कर्म करने का आदेश देते हैं, और 4.7 से आगे भी इसी बात को दोहराते हैं.
कर्म योग और ज्ञान योग: विभिन्न स्तर
अर्जुन को लगता है कि एक ओर कर्म है और दूसरी ओर वैराग्य है, और उसे समझ नहीं आ रहा कि क्या चुने. भगवान कृष्ण बताते हैं कि कर्म के ही कई स्तर हैं, और इन स्तरों में वैराग्य भी शामिल है. अर्जुन इन विभिन्न स्तरों को समझ नहीं पाता और पूछता है, “मुझे क्या करना चाहिए—कर्म या वैराग्य?”
अगर हम इसे सरल शब्दों में समझें तो, अर्जुन के सामने युद्ध करने (कर्म) और युद्ध न करने (वैराग्य) का विकल्प है. अर्जुन अपनी दृष्टि से देखता है कि युद्ध करने के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं.
- नकारात्मक पहलू (अर्जुन की दृष्टि से): युद्ध करके अपने ही परिवारजनों को मारना (जिसे अंग्रेजी में ‘fratricide’ कहते हैं, यानी भाई-बंधुओं की हत्या). अर्जुन सोचता है कि यह ‘बुरा कर्म’ होगा और इससे पाप लगेगा.
- सकारात्मक पहलू (अर्जुन की दृष्टि से): युद्ध न करने से कोई ‘बुरा कर्म’ नहीं होगा.
- नकारात्मक पहलू (युद्ध न करने का): यह सामाजिक कर्तव्य से विमुख होना है (social irresponsibility). अर्जुन जानता है कि कर्तव्य छोड़ना अच्छी बात नहीं है.
इन दोनों के बीच, भगवान कर्म योग का मार्ग सुझाते हैं. कर्म योग में व्यक्ति अपना सामाजिक कर्तव्य निभाता है, लेकिन अनासक्त भाव से. जैसा कि 2.39 में कहा गया है: “बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि.”
प्रवचन की व्याख्या: एक दर्शक का परिप्रेक्ष्य
कभी-कभी प्रवचनकर्ता सोचते हैं कि वे जो समझा रहे हैं, वह श्रोताओं को समझ आ रहा है. लेकिन श्रोता कह सकते हैं, “सर, आपको लगता है कि आप समझा रहे हैं, लेकिन आप वास्तव में समझा नहीं रहे हैं.”
भगवान कृष्ण अर्जुन की इसी दुविधा को समझते हैं और 3.3 में उसकी संकल्पना से ही शुरुआत करते हैं. वे दो प्रकार के मार्गों की बात करते हैं: कर्म योग और ज्ञान योग.
भगवान कहते हैं कि दोनों मार्ग अच्छे हैं, क्योंकि दोनों से आध्यात्मिक प्रगति हो सकती है. अगर हम आध्यात्मिक स्तर को एक छोर पर और भौतिक स्तर को दूसरे छोर पर रखें, तो दोनों मार्गों (कर्म योग और ज्ञान योग) से व्यक्ति भौतिक स्तर से आध्यात्मिक स्तर तक पहुंच सकता है. इसलिए, दोनों अच्छे हैं.
लेकिन इसके बाद भगवान बताते हैं कि अर्जुन के लिए कौन सा मार्ग अच्छा है. अर्जुन का प्रश्न है: “मुझे क्या करना चाहिए? युद्ध करना है या युद्ध नहीं करना है?”
भगवान जवाब देते हैं कि दोनों अच्छे हैं, लेकिन दोनों की पात्रता अलग-अलग है. इस पूरे अध्याय में इसी की चर्चा होने वाली है.
ज्ञान योग की व्यक्तिगत पात्रता
अगर ज्ञान योग को अपनाना है, तो इसका अर्थ है वैराग्य का मार्ग स्वीकार करना. भगवान कहते हैं कि इसके लिए सबसे पहले व्यक्तिगत पात्रता (individual qualification) होनी चाहिए.
- मिथ्याचारी: यदि व्यक्ति में वास्तविक वैराग्य नहीं है, तो वह मिथ्याचारी बन जाएगा. 3.6 में भगवान कहते हैं, “कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते” (जो व्यक्ति कर्मेन्द्रियों को रोककर मन से विषयों का चिंतन करता है, वह मूढ़ व्यक्ति मिथ्याचारी कहलाता है).
- सामाजिक निर्वाह: भगवान बताते हैं कि यदि सभी वैराग्य ले लेंगे, तो समाज कैसे चलेगा? शरीर का निर्वाह कैसे होगा? 3.8 में भगवान कहते हैं, “शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः” (बिना कर्म किए तेरा शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं होगा).
अध्याय का प्रवाह: कर्म योग की श्रेष्ठता
इस अध्याय के प्रवाह को देखें तो, नौवें श्लोक तक भगवान यह बता रहे हैं कि कर्म योग ज्ञान योग से बेहतर है, खासकर उन लोगों के लिए जो परिपक्व नहीं हैं. भगवान अर्जुन को हर तरह से उसके कर्तव्य कर्म करने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं.
- सामाजिक निर्वाह (यज्ञ): 3.9 से 3.16 श्लोक में भगवान यज्ञ के बारे में बताते हैं. वे कहते हैं कि यदि व्यक्ति अपना कर्म करेगा तो वह यज्ञ करेगा और धर्म का पालन करेगा, जिससे समाज की ज़रूरतें पूरी होंगी. यह एक वैश्विक दृष्टिकोण (cosmic perspective) से बताया गया है.
- मानवीय दृष्टिकोण (नेतृत्व): 3.16 से 3.25 श्लोक में भगवान मानवीय दृष्टिकोण से बात करते हैं. कोई कह सकता है कि संसार तो चलेगा ही, मेरे कर्म करने या न करने से क्या फर्क पड़ेगा? भगवान कहते हैं कि तुम समाज में एक नेता के रूप में हो, और तुम्हें एक आदर्श स्थापित करना चाहिए.
नेता और अनुयायी: वैराग्य का प्रभाव
भगवान आगे बताते हैं कि भले ही तुम वैराग्य के लिए परिपक्व हो, फिर भी तुम्हें समाज के लिए एक उदाहरण स्थापित करना चाहिए. लोग क्या सोचेंगे? यदि कोई व्यक्ति बड़ी मुश्किल में आता है और समस्या के कारण वैराग्य लेता है, तो लोग सोचेंगे कि उसने आध्यात्मिक कारणों से नहीं, बल्कि कठिन समस्याओं से बचने के लिए वैराग्य लिया है. दूसरे लोग भी उसका अनुकरण करेंगे.
- नेता (परिपक्व): यदि नेता वैराग्य के लिए योग्य और परिपक्व है, तो उसके वैराग्य से उसका उद्धार हो सकता है.
- अनुयायी (अपरिपक्व): लेकिन यदि अनुयायी अपरिपक्व हैं और वैराग्य लेते हैं, तो उनका पतन हो सकता है.
इसलिए, भगवान कहते हैं कि तुम्हें अपने कर्मों के दूसरों पर पड़ने वाले परिणामों को भी देखना चाहिए. तुम परिपक्व हो सकते हो, लेकिन दूसरे नहीं हैं.
वैराग्य के प्रकार: परिपक्वता और परिस्थिति
जब हम वैराग्य की बात करते हैं, तो दो संभावनाएं हो सकती हैं:
- परिपक्व (Mature): जो आध्यात्मिक रूप से तैयार हैं और उन्होंने वैराग्य का निर्णय लिया है क्योंकि उनकी आध्यात्मिक रुचि है.
- अपरिपक्व (Immature): जो आध्यात्मिक रूप से तैयार नहीं हैं, लेकिन जीवन में कोई बड़ी समस्या आने पर वैराग्य ले लेते हैं.
यह संभव है कि किसी व्यक्ति के जीवन में कोई समस्या आए और तभी उसमें आध्यात्मिक जागृति हो जाए. लेकिन यह भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति में आध्यात्मिक प्रवृत्ति न हो, और वह केवल समस्याओं से बचने के लिए वैराग्य ले.
यहां आपका पाठ संशोधित किया गया है, इसे और अधिक सुसंगत, स्पष्ट और प्रभावशाली बनाया गया है:
कर्तव्य का महत्व: स्वभाव और सामाजिक भूमिका का संतुलन
तो ऐसे भी लोग हो सकते हैं, और इसी संदर्भ में भगवान बताते हैं कि मैं भी अपना कर्तव्य करता हूँ. इसलिए, तुम्हें भी अपना कर्तव्य करना ज़रूरी है. इस तरह, भगवान अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि उन्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए. मैं इसे थोड़ा और विस्तार से समझाता हूँ, नहीं तो यह आपके लिए पूरी तरह स्पष्ट नहीं होगा. मैं इस अध्याय को पूरा करने के बाद इसे और सरल बनाऊँगा.
भगवान 35वें श्लोक तक (और अगला सत्र 36वें से शुरू होता है) यह बताते हैं कि हर व्यक्ति को कर्म योग करना चाहिए. कर्म योग वैराग्य से बेहतर है, क्योंकि वैराग्य में ज्ञान योग या ध्यान योग हो सकता है, पर वह क्रियात्मक कर्तव्य से बेहतर है. भगवान यहाँ स्वभाव के परिप्रेक्ष्य से समझाते हैं कि हर व्यक्ति का अपना स्वभाव होता है, और हर किसी को अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करना चाहिए.
जैसे अभी तुम, अर्जुन, एक क्षत्रिय हो. अभी तुम कह रहे हो कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, पर क्या होगा? कुछ समय बाद जब तुम्हें कहीं और अत्याचार या कोई बुरा कार्य होता दिखेगा, तो तुम्हारा क्षत्रिय स्वभाव तुरंत जागृत हो जाएगा और तुम युद्ध करने की इच्छा करोगे.
इसे ऐसे समझो, मान लीजिए कोई व्यक्ति पुलिस या सेना में भर्ती हो गया क्योंकि उसमें वास्तव में दूसरों की सुरक्षा करने की इच्छा है. वहाँ कुछ समस्या आती है, कुछ होता है, और वह नौकरी छोड़ देता है. जो व्यक्ति पुलिस में है, वह किसी अपराधी पर आक्रमण कर सकता है, लाठी मार सकता है, गोली चला सकता है, और उसे वास्तव में मेडल मिलेगा. पर बाद में, वही व्यक्ति अभी सेवानिवृत्त हो गया है, नौकरी छोड़ दी है, और बाद में वह देखता है कि कोई गुंडागर्दी कर रहा है. वह जाकर उस गुंडे से लड़ने लगता है.
तब क्या होगा? उसका इरादा अच्छा भी हो सकता है, पर अब उसके पास वह पद नहीं है. तो क्या होगा? जो गुंडागर्दी कर रहा था, तुम भी एक तरह से गुंडा बन गए. तुम अपने स्वभाव के अनुसार कार्य कर रहे हो, लेकिन क्या है? एक व्यक्तिगत प्रकृति होती है और एक बाहरी नियम होता है. यदि तुमने अपनी बाहरी भूमिका, अपने बाहरी कर्तव्य को छोड़ दिया, तो तुम्हारा अंदर का स्वभाव तो नहीं जाने वाला है.
लेकिन तब तुम हिंसा करोगे. अभी तुम कह रहे हो कि मैं हिंसा नहीं करना चाहता क्योंकि इससे कर्म बंधन होता है, यह नहीं करना है – तुम बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो. पर जब तुम्हारा स्वभाव जागृत होगा, तो यह सब नहीं चलेगा. तो बेहतर है कि तुम अपने स्वभाव के अनुसार जो भूमिका है, वह भूमिका रखो.
आत्मा, स्वभाव और सामाजिक भूमिका का संबंध
तो क्या हो रहा है कि यह जो है अभी, एक आत्मा है. और फिर आत्मा के बाहर उसका एक स्वभाव है. यह स्वभाव कहाँ आता है? यह मानव शरीर में होता है. और उसके बाहर, उसकी एक सामाजिक भूमिका (social role) है.
अभी अर्जुन कह रहा है कि वह सामाजिक भूमिका छोड़ देगा. वह वैराग्य लेने वाला है. अर्जुन अभी सोच रहा है कि मैं वैराग्य लूँगा, जिसका अर्थ है कि यह भूमिका यहाँ रह जाएगी और मैं यहाँ चला जाऊँगा. वह क्षत्रिय का पद, क्षत्रिय का कर्तव्य छोड़ देगा. अर्जुन कह रहा है कि यह वैराग्य मतलब उसने अपनी सामाजिक भूमिका को छोड़ दिया. पर क्या है? क्षत्रिय की प्रवृत्ति अभी तक उसके अंदर है. तो अभी क्या होगा? व्यक्ति को अपना कर्तव्य तो करना ही पड़ेगा.
कर्तव्य का आंतरिक संतोष
यहाँ भगवान इसलिए समझा रहे हैं क्योंकि क्या होता है, हर व्यक्ति जो अपना कर्तव्य कर रहा होता है, जब वह अपने स्वभाव के अनुसार वह कर्तव्य करता है, तो उसमें एक तरह से उस व्यक्ति को एक आंतरिक संतुष्टि मिलती है.
मान लीजिए कोई डॉक्टर है. अगर उसमें सही में लोगों की देखभाल करने की प्रवृत्ति है, तो हर डॉक्टर को पैसा चाहिए, हर डॉक्टर को पद चाहिए, हर डॉक्टर को समाज में थोड़ा आदर चाहिए – वह सब तो चाहिए, पर आंतरिक रूप से भी सेवा भाव है. तो क्या है? दूसरों को मदद करना है, दूसरों की तबीयत ठीक करना है.
तो वह जो बाहरी परिणाम है, एक तरह से कैसे हैं? हम एक देख रहे हैं कि क्यों, अगर आप दूसरों का कर्म करोगे, दूसरों के स्वभाव के अनुसार कार्य करोगे तो यह भयावह क्यों है? भगवान बता रहे हैं कि क्यों है इसमें, क्योंकि क्या होता है कि प्रकृति के अनुसार कर्म (action according to nature) जब व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करता है, तो दो चीज़ें होती हैं:
- एक आंतरिक संतुष्टि होती है कि मुझे जो अच्छा लगता है, जो मैं अच्छा कर सकता हूँ, वह मुझे मिल रहा है और मैं उसे कर रहा हूँ.
- कोई लेखक है, उसको लिखने में अच्छा लगता है. कोई संगीतकार है, उसको संगीत में अच्छा लगता है.
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको इतना अच्छा लगता है कि वे हज़ार लोगों के सामने बहुत सुंदर कीर्तन करेंगे. पर वह सही में उनको कितना अच्छा लगता है? जब उनका मन विचलित हो गया होगा, किसी ने कुछ वैसा बोला होगा, वे कोई मुंडन ले लें, करताल ले लें, हारमोनियम ले लें, और खुद अकेले कीर्तन करेंगे. कोई सुन नहीं रहा है, पर वे कीर्तन करते हैं. क्यों? क्योंकि उसमें उनको आंतरिक संतुष्टि मिल रही है. उनको अंतर से ही भगवान का अनुभव हो रहा है. तो जब हम हमारे स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं, तो हम यह कह सकते हैं कि यह सही आध्यात्मिक है.
आंतरिक संतुष्टि बनाम बाहरी प्रोत्साहन: कर्म और समाज पर प्रभाव
यह समझना महत्वपूर्ण है कि आंतरिक संतुष्टि और बाहरी प्रोत्साहन (जैसे पैसा या पहचान) दोनों ही व्यक्तियों के लिए आवश्यक हैं। हालाँकि, जब कोई व्यक्ति केवल बाहरी लाभ के लिए कार्य करता है और उसे अपने काम में कोई आंतरिक सुख नहीं मिलता, तो इसके नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं।
आंतरिक असंतोष के परिणाम
जब कोई व्यक्ति अपने स्वभाव या रुचि के विरुद्ध कार्य करता है, तो उसे उस काम में कोई आंतरिक खुशी नहीं मिलती। उदाहरण के लिए, एक ऐसे व्यक्ति को लें जिसकी रुचि लोगों की सेवा करने में है, लेकिन उसे किसी कॉर्पोरेट कंपनी में मार्केटिंग या विज्ञापन की भूमिका मिल जाती है। ऐसे में, वह व्यक्ति केवल बाहरी पुरस्कारों के लिए काम करेगा, जिससे समाज में समस्याएँ पैदा हो सकती हैं।
- समाज में उपद्रव: आंतरिक संतुष्टि के बिना काम करने वाला व्यक्ति समाज के लिए हानिकारक हो सकता है। एक डॉक्टर, जिसे लोगों की देखभाल करने में रुचि नहीं है, वह बीमार व्यक्ति की बीमारी को और बढ़ा सकता है, अनावश्यक जाँचें करवा सकता है, या ऐसे कार्य कर सकता है जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हों।
- पफाइज़र का उदाहरण: हाल ही में, पफाइज़र कंपनी के एक कार्यकारी ने एक साक्षात्कार में बताया कि कैसे वे कोरोनावायरस के उत्परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए शोध कर रहे हैं। उनका उद्देश्य वायरस के स्वयं उत्परिवर्तित होने से पहले ही उसे उत्परिवर्तित करना है, ताकि उनकी दवाएँ प्रभावी रहें। लेकिन इसमें एक बड़ा खतरा है: यदि यह परिवर्तित वायरस समाज में फैल जाए, तो इससे बड़े पैमाने पर तबाही मच सकती है।
कॉर्पोरेट व्यवहार और नैतिक चिंताएँ
कुछ कंपनियों का व्यवहार भी चिंता का विषय है। अमेरिका में, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में सरकार दवाइयाँ खरीदती है, और लोग सरकार को कर देते हैं। इस तरह, पैसे का लेन-देन सरकार और कंपनियों के बीच होता है। कोविड वैक्सीन के दौरान, कंपनियों ने सरकार से ऐसे कानून पारित करवाए, जिससे उन्हें वैक्सीन से होने वाली किसी भी समस्या के लिए अदालती मामलों से छूट मिल गई। यह एक तरह से उनकी तरफ से सुरक्षा का एक बड़ा कदम था, लेकिन यह नैतिकता पर सवाल उठाता है।
कर्तव्य से विमुख होना
यह केवल कॉर्पोरेट या चिकित्सा क्षेत्र तक सीमित नहीं है। यदि एक राजा को अपने लोगों के कल्याण में सुख नहीं मिलता, तो वह उन्हें नियंत्रित करने और उनका शोषण करने में सुख पा सकता है, अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सकता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से यही कहा था कि यदि वह अपने स्वभाव के अनुसार कार्य नहीं करेगा, तो वह समाज में उपद्रव पैदा करेगा।
आंतरिक संतुष्टि और पूर्व कर्म
हर व्यक्ति को अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करना चाहिए ताकि उसे आंतरिक संतुष्टि मिल सके। यह ज़रूरी नहीं कि सभी को बाहरी पहचान या नाम मिले। बाहरी मान्यता, जैसे कि प्रसिद्धि या धन, व्यक्ति के वर्तमान कर्म के साथ-साथ उसके पूर्व कर्मों से भी निर्धारित होती है।
उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति बहुत अच्छा कीर्तन करता है, लेकिन वह ऐसी जगह पर है जहाँ कोई भक्त नहीं है, तो उसे उतनी पहचान नहीं मिलेगी जितनी किसी ऐसे व्यक्ति को मिलेगी जो हज़ारों भक्तों वाले मंदिर में कीर्तन करता है।
कर्तव्य से विमुख होने का कारण
यदि व्यक्ति को आंतरिक सुख नहीं मिल रहा है और वह केवल बाहरी फल, नाम या ख्याति के लिए कार्य कर रहा है, और यदि उसे वह बाहरी फल नहीं मिलता, तो वह विचलित हो जाता है। ऐसी स्थिति में, व्यक्ति सोच सकता है, “यदि मुझे यह नहीं मिल रहा है, तो मैं यह क्यों करूँ?”
अर्जुन का सवाल यही था: जब भगवान बार-बार कहते हैं कि व्यक्ति को अपना कर्तव्य करना चाहिए, तो फिर लोग अपने कर्तव्य से क्यों विमुख हो जाते हैं? यह इसलिए होता है क्योंकि व्यक्ति स्वार्थी हो जाता है, और यह कर्म योग के मार्ग में एक बाधा है। यह उन लोगों के लिए भी प्रासंगिक है जो जानते हुए भी गलत कार्य करते हैं, हालाँकि उन्हें पाप करने में आनंद नहीं आता।
अर्जुन का भ्रम और कर्तव्य का मार्ग
आपने जो बताया है, उसमें अर्जुन की दुविधा और भगवान कृष्ण द्वारा दिए गए समाधान पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसे और स्पष्ट रूप से समझते हैं:
शुरुआत में, अर्जुन अपनी कमजोरी और क्रूरता के बारे में सवाल पूछते हैं। वह कहते हैं कि व्यक्ति न चाहते हुए भी कुछ ऐसे कार्य क्यों करता है जिनकी उसकी इच्छा नहीं होती, जैसे कोई बाहरी शक्ति उसे नियंत्रित कर रही हो। अर्जुन जानना चाहते हैं कि व्यक्ति अपने कर्तव्य से भ्रष्ट क्यों हो जाता है।
यहाँ ‘काम’ शब्द का अर्थ केवल कामवासना से नहीं है, बल्कि उस शक्ति से है जो व्यक्ति को निष्काम कर्म (निस्वार्थ भाव से कार्य करना) से सकाम कर्म (स्वार्थी भाव से कार्य करना) की ओर खींचती है। अर्जुन युद्धभूमि में युद्ध करने आए थे, लेकिन उनकी युद्ध करने की शक्ति और बुद्धि चली गई थी।
अर्जुन के संदर्भ में ‘काम’
भगवान कृष्ण अर्जुन को जो ‘काम’ और ‘क्रोध’ बता रहे हैं, वह अर्जुन के लिए केवल कामुकता से संबंधित नहीं है। अर्जुन आत्म-नियंत्रित थे, जैसा कि उर्वशी के प्रस्ताव को ठुकराने के उदाहरण से स्पष्ट है। अर्जुन के लिए ‘काम’ का अर्थ है स्वार्थपूर्ण या दूरदर्शिता रहित इच्छाएँ (selfish or short-sighted desires)। अर्जुन जानते थे कि युद्ध करना उनका कर्तव्य है, लेकिन वह इसके विपरीत जा रहे थे।
ज्ञान का आवरण और कर्तव्य का पालन
भगवान समझाते हैं कि भीष्म और द्रोण भी आत्मा हैं, और अर्जुन भी आत्मा हैं, लेकिन यह ज्ञान आवृत्त (ढका हुआ) हो गया है। इस आवरण से परे जाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है, जो भगवान भगवद्गीता में दे रहे हैं।
भ्रम दो कारणों से हो सकता है:
- बौद्धिक भ्रम (Intellectual Confusion): जब व्यक्ति को यह समझ नहीं आता कि क्या सही है और क्या गलत।
- मानसिक भ्रम (Mental Confusion/Desires): जब व्यक्ति को सही-गलत पता होता है, लेकिन फिर भी गलत करने की प्रबल इच्छा होती है।
गीता के आरंभ में (अध्याय 2, श्लोक 7), अर्जुन का भ्रम बौद्धिक था – उन्हें पता नहीं था कि क्या बेहतर है। लेकिन बाद में (अध्याय 3, श्लोक 36) उन्हें समझ आ गया कि युद्ध करना कर्तव्य है, फिर भी वह सोचते थे कि भीष्म जैसे पूजनीय व्यक्ति पर कैसे तीर चलाएँ।
बुद्धि और मन का महत्व
भगवान बताते हैं कि हमारी बौद्धिक स्तर पर भी इच्छाओं और वासनाओं से आवरण हो सकता है। सही कार्य करने के लिए हमें स्पष्ट बुद्धि और स्पष्ट मन की आवश्यकता है। बुद्धि के स्तर पर हमें पता होना चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत, और मन के स्तर पर हमें उस सही कार्य को करने की इच्छा होनी चाहिए।
भगवान कहते हैं कि भले ही मन के स्तर पर वासनाएँ आ जाएँ, हमें बुद्धि के स्तर पर कार्य करना चाहिए। यदि हम बुद्धि के स्तर पर ज़िम्मेदारी से कार्य करेंगे, तो हम आगे बढ़ेंगे।
मिथ्याचारी से कर्मयोगी तक
संक्षेप में, आज की चर्चा इस प्रकार है:
- मिथ्याचारी से कर्मयोगी: भगवान सबसे पहले बताते हैं कि यदि आप वैराग्य के स्तर पर नहीं हैं, तो ढोंग करने (मिथ्याचारी बनने) से समाज का विनाश होगा और आपका पतन होगा। इसलिए कर्म योग करना बेहतर है। (अध्याय 3, श्लोक 1-8)
- ब्रह्मांडीय व्यवस्था (Cosmic Order): कर्म योग से ब्रह्मांड में व्यवस्था बनी रहती है। यज्ञ करने से देवता संतुष्ट होते हैं, जिससे वर्षा और अन्न की प्राप्ति होती है। (अध्याय 3, श्लोक 9-16)
- सामाजिक व्यवस्था (Social Order): कर्म योग से समाज में व्यवस्था बनी रहती है। (अध्याय 3, श्लोक 17-25)
- व्यक्तिगत सामंजस्य (Individual Harmony): कर्म योग से आप अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं, जिससे आप व्यक्तिगत रूप से अच्छी परिस्थिति में रहते हैं। (अध्याय 3, श्लोक 26-35)
- कामवासना से परे (Beyond Kama): अंत में, भगवान बताते हैं कि आप धीरे-धीरे कामवासना से परे जा सकते हैं। (अध्याय 3, श्लोक 37-43)
भगवान इन विभिन्न दृष्टिकोणों से यही बता रहे हैं कि आपको अपना कर्तव्य करना चाहिए। अभी तक भगवान ने भक्ति योग का सीधा उल्लेख नहीं किया है, हालांकि अगले अध्याय में इसका अधिक स्पष्टीकरण आएगा।
बुद्धि का उपयोग
जब अर्जुन भीष्म पितामह पर चिंतन करते हैं, तो उनकी युद्ध करने की दृढ़ता चली जाती है। अर्जुन को बौद्धिक स्तर पर यह देखना होगा कि भीष्म भी एक आत्मा हैं और उनका कर्तव्य उनके और समाज के कल्याण के लिए आवश्यक है।
आपकी बात सही है कि बुद्धि की दो भूमिकाएँ हो सकती हैं। कभी-कभी हम अपनी बुद्धि का उपयोग गलत कार्य को सही ठहराने के लिए करते हैं। अर्जुन ने पहले अध्याय में जो तर्क-वितर्क किया, उसमें उन्होंने अगले जन्म, धर्म, पाप और पुण्य की बात की, लेकिन वह पर्याप्त दूरदर्शितापूर्ण नहीं था।
अर्जुन की दृष्टि में, भीष्म पितामह और कौरवों के प्रति उनकी आसक्ति उनके भ्रम का कारण थी। अर्जुन अपनी बुद्धि से इस आसक्ति को सही ठहरा सकते थे, लेकिन वह भौतिक स्तर पर ही रहता। इसलिए भगवान कहते हैं कि हमें उस बुद्धि को त्यागना होगा जो हमें भौतिक सुख की ओर प्रवृत्त करती है, और उस बुद्धि को स्वीकार करना होगा जो हमें आध्यात्मिक मार्ग की ओर ले जाती है।
स्वभाव की पहचान और कलियुग की समस्या
कलियुग में व्यक्ति के लिए अपना स्वभाव समझना मुश्किल हो जाता है। इसके लिए आत्म-अवलोकन महत्वपूर्ण है। हम विभिन्न कार्य कर सकते हैं और देख सकते हैं कि:
- क्या करना हमें अच्छा लगता है (गुण कर्म विभागशः)।
- किन कार्यों में हम कुशल हैं (क्षमता)।
यदि इन दोनों का किसी एक कार्य में मिलन होता है, तो वह हमारा स्वभाव हो सकता है। जैसे कि एक व्यक्ति कंप्यूटर पर करताल बजाता है और खुश है, लेकिन शायद उसे ताल-सुर की समझ नहीं है, जिससे बाकी लोग खुश नहीं होते। हमें ऐसे कार्यों को पहचानना चाहिए जिनमें हम सहज भी हों और कुशल भी।
अर्जुन का भ्रम और कर्तव्य का मार्ग
आपने अर्जुन की दुविधा और भगवान कृष्ण द्वारा दिए गए समाधान पर विस्तार से चर्चा की है। इसे और स्पष्ट रूप से समझते हैं:
शुरुआत में, अर्जुन अपनी कमजोरी और क्रूरता के बारे में प्रश्न करते हैं। वह जानना चाहते हैं कि व्यक्ति न चाहते हुए भी ऐसे कार्य क्यों करता है जिनकी उसकी इच्छा नहीं होती, मानो कोई बाहरी शक्ति उसे नियंत्रित कर रही हो। अर्जुन समझना चाहते हैं कि व्यक्ति अपने कर्तव्य से भ्रष्ट क्यों हो जाता है।
यहां ‘काम’ शब्द का अर्थ केवल कामवासना से नहीं है, बल्कि उस शक्ति से है जो व्यक्ति को निष्काम कर्म (निस्वार्थ भाव से कार्य करना) से सकाम कर्म (स्वार्थी भाव से कार्य करना) की ओर खींचती है। अर्जुन युद्धभूमि में युद्ध करने आए थे, लेकिन उनकी युद्ध करने की शक्ति और बुद्धि चली गई थी।
अर्जुन के संदर्भ में ‘काम’
भगवान कृष्ण अर्जुन को जो ‘काम’ और ‘क्रोध’ बता रहे हैं, वह अर्जुन के लिए केवल कामुकता से संबंधित नहीं है। अर्जुन आत्म-नियंत्रित थे, जैसा कि उर्वशी के प्रस्ताव को ठुकराने के उदाहरण से स्पष्ट है। अर्जुन के लिए ‘काम’ का अर्थ है स्वार्थपूर्ण या दूरदर्शिता रहित इच्छाएँ (selfish or short-sighted desires)। अर्जुन जानते थे कि युद्ध करना उनका कर्तव्य है, लेकिन वह इसके विपरीत जा रहे थे।
ज्ञान का आवरण और कर्तव्य का पालन
भगवान समझाते हैं कि भीष्म और द्रोण भी आत्मा हैं, और अर्जुन भी आत्मा हैं, लेकिन यह ज्ञान आवृत्त (ढका हुआ) हो गया है। इस आवरण से परे जाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है, जो भगवान भगवद्गीता में दे रहे हैं।
भ्रम दो कारणों से हो सकता है:
- बौद्धिक भ्रम (Intellectual Confusion): जब व्यक्ति को यह समझ नहीं आता कि क्या सही है और क्या गलत।
- मानसिक भ्रम (Mental Confusion/Desires): जब व्यक्ति को सही-गलत पता होता है, लेकिन फिर भी गलत करने की प्रबल इच्छा होती है।
गीता के आरंभ में (अध्याय 2, श्लोक 7), अर्जुन का भ्रम बौद्धिक था—उन्हें पता नहीं था कि क्या बेहतर है। लेकिन बाद में (अध्याय 3, श्लोक 36) उन्हें समझ आ गया कि युद्ध करना कर्तव्य है, फिर भी वह सोचते थे कि भीष्म जैसे पूजनीय व्यक्ति पर कैसे तीर चलाएं।
बुद्धि और मन का महत्व
भगवान बताते हैं कि हमारी बौद्धिक स्तर पर भी इच्छाओं और वासनाओं से आवरण हो सकता है। सही कार्य करने के लिए हमें स्पष्ट बुद्धि और स्पष्ट मन की आवश्यकता है। बुद्धि के स्तर पर हमें पता होना चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत, और मन के स्तर पर हमें उस सही कार्य को करने की इच्छा होनी चाहिए।
भगवान कहते हैं कि भले ही मन के स्तर पर वासनाएं आ जाएं, हमें बुद्धि के स्तर पर कार्य करना चाहिए। यदि हम बुद्धि के स्तर पर जिम्मेदारी से कार्य करेंगे, तो हम आगे बढ़ेंगे।
मिथ्याचारी से कर्मयोगी तक
संक्षेप में, आज की चर्चा इस प्रकार है:
- मिथ्याचारी से कर्मयोगी: भगवान सबसे पहले बताते हैं कि यदि आप वैराग्य के स्तर पर नहीं हैं, तो ढोंग करने (मिथ्याचारी बनने) से समाज का विनाश होगा और आपका पतन होगा। इसलिए कर्म योग करना बेहतर है। (अध्याय 3, श्लोक 1-8)
- ब्रह्मांडीय व्यवस्था (Cosmic Order): कर्म योग से ब्रह्मांड में व्यवस्था बनी रहती है। यज्ञ करने से देवता संतुष्ट होते हैं, जिससे वर्षा और अन्न की प्राप्ति होती है। (अध्याय 3, श्लोक 9-16)
- सामाजिक व्यवस्था (Social Order): कर्म योग से समाज में व्यवस्था बनी रहती है। (अध्याय 3, श्लोक 17-25)
- व्यक्तिगत सामंजस्य (Individual Harmony): कर्म योग से आप अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं, जिससे आप व्यक्तिगत रूप से अच्छी परिस्थिति में रहते हैं। (अध्याय 3, श्लोक 26-35)
- कामवासना से परे (Beyond Kama): अंत में, भगवान बताते हैं कि आप धीरे-धीरे कामवासना से परे जा सकते हैं। (अध्याय 3, श्लोक 37-43)
भगवान इन विभिन्न दृष्टिकोणों से यही बता रहे हैं कि आपको अपना कर्तव्य करना चाहिए। अभी तक भगवान ने भक्ति योग का सीधा उल्लेख नहीं किया है, हालांकि अगले अध्याय में इसका अधिक स्पष्टीकरण आएगा।
बुद्धि का उपयोग
जब अर्जुन भीष्म पितामह पर चिंतन करते हैं, तो उनकी युद्ध करने की दृढ़ता चली जाती है। अर्जुन को बौद्धिक स्तर पर यह देखना होगा कि भीष्म भी एक आत्मा हैं और उनका कर्तव्य उनके और समाज के कल्याण के लिए आवश्यक है।
आपकी बात सही है कि बुद्धि की दो भूमिकाएं हो सकती हैं। कभी-कभी हम अपनी बुद्धि का उपयोग गलत कार्य को सही ठहराने के लिए करते हैं। अर्जुन ने पहले अध्याय में जो तर्क-वितर्क किया, उसमें उन्होंने अगले जन्म, धर्म, पाप और पुण्य की बात की, लेकिन वह पर्याप्त दूरदर्शितापूर्ण नहीं था।
अर्जुन की दृष्टि में, भीष्म पितामह और कौरवों के प्रति उनकी आसक्ति उनके भ्रम का कारण थी। अर्जुन अपनी बुद्धि से इस आसक्ति को सही ठहरा सकते थे, लेकिन वह भौतिक स्तर पर ही रहता। इसलिए भगवान कहते हैं कि हमें उस बुद्धि को त्यागना होगा जो हमें भौतिक सुख की ओर प्रवृत्त करती है, और उस बुद्धि को स्वीकार करना होगा जो हमें आध्यात्मिक मार्ग की ओर ले जाती है।
स्वभाव की पहचान और कलियुग की समस्या
कलियुग में व्यक्ति के लिए अपना स्वभाव समझना मुश्किल हो जाता है। इसके लिए आत्म-अवलोकन महत्वपूर्ण है। हम विभिन्न कार्य कर सकते हैं और देख सकते हैं कि:
- क्या करना हमें अच्छा लगता है (गुण कर्म विभागशः)।
- किन कार्यों में हम कुशल हैं (क्षमता)।
यदि इन दोनों का किसी एक कार्य में मिलन होता है, तो वह हमारा स्वभाव हो सकता है। जैसे कि एक व्यक्ति कंप्यूटर पर करताल बजाता है और खुश है, लेकिन शायद उसे ताल-सुर की समझ नहीं है, जिससे बाकी लोग खुश नहीं होते। हमें ऐसे कार्यों को पहचानना चाहिए जिनमें हम सहज भी हों और कुशल भी।