Hindi – Chapter 6 Bhagavad Gita And Decision Making Bhagavad Gita Overview – Chaitanya Charan
हरे कृष्णा।
तो आज हम भगवद गीता का छठा अध्याय शुरू कर रहे हैं।
इसे शुरू करने से पहले, हम अब तक भगवद गीता के पहले पाँच अध्यायों का एक संक्षिप्त पुनरावलोकन करेंगे। भगवान श्रीकृष्ण का उद्देश्य है अर्जुन को यह समझाने में मदद करना कि उन्हें क्या करना चाहिए – युद्ध करना या नहीं करना। अर्जुन जो प्रश्न पूछते हैं, वह एक विश्वव्यापी (universal) प्रश्न है: “सही कार्य क्या है? धर्म क्या है?” इसके उत्तर में भगवान अलग-अलग दृष्टिकोणों से बताते हैं कि कर्म योग करना, कर्म संन्यास से बेहतर है।
अर्जुन उस समय एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहाँ संन्यास का बहुत सम्मान था। ऋषि-मुनि, जिन्होंने वैराग्य स्वीकार किया है, उन्हें समाज में विशेष सम्मान मिलता था। इसलिए भगवान जो कह रहे हैं – कि कर्म योग श्रेष्ठ है – वह ऐसा प्रतीत होता है मानो वे संन्यास का विरोध कर रहे हों। परंतु वास्तव में भगवद गीता का संदेश दो स्तरों पर कार्य करता है – एक है विशेषतः अर्जुन के लिए दिया गया संदर्भ (contextual), और दूसरा है सार्वभौमिक (universal)।
भगवान ने अर्जुन की स्थिति और उसकी प्रवृत्ति (disposition) को ध्यान में रखते हुए उपदेश दिया है। बाद में, भगवान भक्ति योग के बारे में भी बताएंगे। जो सार्वभौमिक सत्य है, वह यह है कि वैराग्य के मार्ग को भी महत्त्व दिया गया है, यद्यपि गीता में उस पर ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया गया है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका महत्त्व नहीं है, बल्कि गीता की चर्चा उस पर केंद्रित नहीं है। सांस्कृतिक रूप से, जो व्यक्ति संसार का त्याग करता है, उसे सामान्यतः ज़्यादा सम्मान मिलता है, क्योंकि उसने संसार की चकाचौंध के परे जाने की आकांक्षा को दृढ़ता से अपनाया है।
अभी, अध्याय 5 और 6 का संबंध बहुत रोचक है। इसमें हमें यह समझने को मिलता है कि अलग-अलग योगों के माध्यम से व्यक्ति भौतिक चेतना से आध्यात्मिक चेतना की ओर बढ़ सकता है। अध्याय 5 के अंत में और अध्याय 6 की शुरुआत में भगवान उसी विषय को दोहराते हैं – कि संन्यास और योग (यहाँ योग से आशय कर्म योग से है) दोनों ही अच्छे हैं, परंतु योग श्रेष्ठ है।
भगवान कहते हैं – “ना ही असंयस्त संकल्पो योगी भवति कश्चन” – अर्थात जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों और मन को नियंत्रित नहीं करता, वह न योगी बन सकता है, न संन्यासी। इसलिए यह आवश्यक है कि केवल बाहरी रूप से संन्यास लेने से कुछ नहीं होता, बल्कि आंतरिक रूप से भौतिक चेतना से ऊपर उठना ज़रूरी है।
हर योग से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, परंतु यह आवश्यक नहीं कि सारे योग पूर्णतः अलग-अलग हों। एक व्यक्ति कर्म योग की साधना करके आगे ध्यान योग या भक्ति योग की ओर भी बढ़ सकता है।
भगवान अध्याय 5 के श्लोक 25 से 29 तक यह स्पष्ट करते हैं। फिर अध्याय 6 में वही बात को विस्तार से बताते हैं।
समझने के लिए हम एक पर्वत का उदाहरण ले सकते हैं, जिसकी चोटी तक पहुँचने के कई मार्ग हैं। कोई इस रास्ते से, कोई उस रास्ते से, कोई दूसरे रास्ते से ऊपर जा सकता है। वैसे ही ब्रह्म स्थिति – “मैं शरीर नहीं आत्मा हूं” – को अलग-अलग मार्गों से प्राप्त किया जा सकता है।
परंतु भगवान को समझना और उनसे प्रेमपूर्वक संबंध बनाना – यह केवल भक्ति योग से संभव है। भक्ति योग एक सीधा मार्ग है जो आत्मा को भगवान से जोड़ता है। अन्य योग भी उन्नति में सहायक हैं, पर परम पूर्णता – भगवान की प्राप्ति – भक्ति योग से ही होती है।
अध्याय 5 के अंत में भगवान बताते हैं कि कर्म योग से भी ब्रह्म निर्वाण संभव है। और अध्याय 18 में वे फिर इसे दोहराते हैं। इसका ढांचा भी रोचक है – जैसे अध्याय 6 के अंत में प्रश्नोत्तर रूप में कई श्लोक आते हैं (श्लोक 32–36 में) और फिर 37–45 में उनका उत्तर।
शुरुआत के श्लोकों में बताया गया है कि योगी बनने के लिए क्या पात्रता होनी चाहिए – मन पर नियंत्रण अनिवार्य है।
अध्याय का ढांचा देखें तो, श्लोक 10 से 23 तक भगवान बताते हैं कि ध्यान योग का अभ्यास करते हुए व्यक्ति कैसे पूर्णता की ओर जाता है। इसमें परिपूर्णता का अर्थ चेतना की स्थिति से है – व्यक्ति की internal consciousness क्या है।
इसको समझना थोड़ा तकनीकी है – जैसे जब हम किसी व्यक्ति को देखते हैं, तो उसके चेहरे के भावों से अनुमान लगाते हैं – डर, गुस्सा, आनंद आदि। पर एक चीज़ है उसका अनुभव और दूसरी चीज़ है वह किसे देख रहा है।
आध्यात्मिक अनुभव की चर्चा करते हुए, भगवान पहले योगी की अंतर की अनुभूति बताते हैं – यानी उसका subjective अनुभव – और फिर वह किसे अनुभव कर रहा है – object of realization – उसका उल्लेख करते हैं।
यहाँ भगवान स्पष्ट रूप से ब्रह्म, परमात्मा और भगवान शब्दों का उपयोग नहीं करते, पर उनके सिद्धांतों का वर्णन ज़रूर करते हैं – श्लोक 28 में ब्रह्म, 29 में परमात्मा और फिर आगे भगवान का संकेत मिलता है।
आध्यात्मिक चेतना के विभिन्न स्तर होते हैं, जिन्हें योग शास्त्र (विशेषकर पतंजलि योग सूत्र) में बताया गया है – जैसे मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरोध। भगवान इनका विस्तार से उल्लेख नहीं करते, पर ध्यान योग की सिद्ध अवस्था – एकाग्रता और फिर निरोध – का संकेत देते हैं।
निरोध का अर्थ है – चित्तवृत्तियों का पूर्ण निरोध – और यह योग का उच्चतम स्तर माना जाता है। गीता के अंतिम अध्याय में भी भगवान एकाग्रता का ज़िक्र करते हैं।
भगवद गीता अध्याय 6 – मन का नियंत्रण और संन्यास की पात्रता
अध्याय 18 के श्लोक 72 में भी भगवान इसी विषय का उल्लेख करते हैं।
अब “निरोध” का क्या अर्थ है?
“एकाग्रता” का अर्थ होता है – जब व्यक्ति पूरी तरह से एक चीज़ पर ध्यान केंद्रित करता है। यह हम सामान्य जीवन में भी अनुभव करते हैं। लेकिन “निरोध” उससे आगे की अवस्था है – जब मन पूरी तरह से भौतिक प्रलोभनों और विकर्षणों से अप्रभावित हो जाता है।
उस स्थिति में मन एक तरह से materially inert हो जाता है – वह किसी भी चीज़ की ओर आकर्षित नहीं होता, उसमें कोई विकार नहीं आता, वह किसी भी प्रकार के दोष (गुण-दोष) से रहित होता है। यह पूर्णतया शांत और निर्विकार स्थिति होती है।
भगवान यहाँ दो बार “practice to perfection” का उल्लेख करते हैं – लेकिन दोनों बार अलग-अलग दृष्टिकोण से। इसलिए हम उस पर थोड़ी चर्चा करते हैं।
भगवान बार-बार इस बात पर ज़ोर देते हैं कि वैराग्य लेने से पहले मन पर नियंत्रण बहुत ज़रूरी है।
भगवान कहते हैं कि परिपूर्णता प्राप्त करने के लिए दो मार्ग हैं – पहला है आरुरुक्षु अवस्था (शुरुआती साधक) और दूसरा है आरूढ़ अवस्था (सिद्ध साधक)। यह वैसा ही है जैसे कोई सीढ़ी चढ़ रहा हो – नीचे की सीढ़ियाँ आरुरुक्षु के लिए हैं और ऊपर की सीढ़ियाँ आरूढ़ के लिए।
आरुरुक्षु को कर्म करना ज़रूरी है – क्योंकि उसके द्वारा ही वह अपने मन को शुद्ध करता है। लेकिन आरूढ़ अवस्था में व्यक्ति कर्म त्याग की ओर बढ़ता है – वहाँ “शम” आवश्यक होता है। “शम” का अर्थ है – केवल शरीर को ही नहीं, बल्कि मन को भी शांत रखना।
तो जब मन नियंत्रण में आ जाता है, तभी कोई आरूढ़ अवस्था के योग्य होता है।
यह मन का नियंत्रण इतना आवश्यक क्यों है?
हम आत्मा हैं – हमारे पास मन है – और हमारे चारों ओर समाज है।
आज की दुनिया में, हमारे मन की सबसे बुरी प्रवृत्तियाँ समाज द्वारा नियंत्रित होती हैं।
उदाहरण के लिए, अगर किसी को गुस्सा आता है, तो वह गाली देना चाहता है। परंतु अगर उसके आसपास लोग हैं, तो वह सोचता है – “लोग क्या कहेंगे?” – और वह खुद को रोक लेता है।
मन हर क्षण हज़ारों विचार प्रस्तुत करता है। अगर हम हर प्रस्ताव पर विचार भी करने लगें, तो हम मानसिक रूप से बहुत थक जाएंगे। लेकिन समाज का प्रभाव हमें उन विचारों को क्रियान्वित करने से रोकता है।
मान लीजिए, कोई प्रवचन ऑनलाइन सुन रहा है – अकेले अपने कमरे में। अगर उसे नींद आ जाए तो वह आराम से लेट सकता है – कौन देख रहा है? लेकिन वही व्यक्ति अगर सत्संग में बैठा हो तो वह थोड़ा-सा भी झपकी लेने में झिझकता है – समाज की उपस्थिति उसका नियंत्रण करती है।
कभी-कभी समाज का प्रभाव हमारे मन की बुरी प्रवृत्तियों को बढ़ा भी देता है।
जैसे अगर कोई शराब नहीं पीना चाहता, पर उसके दोस्त सब पीते हैं, तो वह दबाव में आकर पी लेता है। इसलिए समाज के प्रभाव से हम या तो नियंत्रित रहते हैं, या भटकते हैं।
अब सवाल है – समाज का त्याग कब करना चाहिए?
केवल तब, जब मन पूर्णतया नियंत्रण में हो।
अन्यथा, समाज के बिना, मन हमें पागल बना सकता है।
भक्ति मार्ग में भी ब्रह्मचारी और संन्यासी होते हैं – लेकिन वहाँ समाज का त्याग नहीं किया जाता।
भक्त संन्यास लेते हैं, परंतु भक्तों के संग में रहते हैं। यह भक्ति का संन्यास है – अलग प्रकार का।
ज्ञान और ध्यान के मार्ग में जो संन्यास लिया जाता है, वह सामान्यतः एकाकी संन्यास होता है – जैसे किसी योगी की अपनी एकांत गुफा होती है, जहाँ वह अकेले ध्यान करता है। हर योगी की अपनी जगह होती है, जिसे वह साझा नहीं करता।
बौद्ध परंपरा में भी यही होता था – हर साधु की अपनी कुटिया या गुफा होती थी।
क्यों?
क्योंकि ध्यान और अष्टांग योग के मार्ग में संबंधों को मोह का कारण माना जाता है।
वहाँ पूर्णता का अर्थ है – सभी संबंधों से परे हो जाना।
लेकिन भक्ति मार्ग में संबंधों का त्याग नहीं, भगवान से प्रेममय संबंध का विकास किया जाता है।
इसलिए भक्ति में संन्यास लेने के बाद भी हम भक्तों के संग में रहते हैं – क्योंकि वहाँ संग ज़रूरी है।
अब समाज के जो मानक होते हैं, वे भी नियंत्रण के लिए उपयोगी हैं।
उदाहरण के लिए, शराब पीने वालों के बीच भी एक नैतिक सीमाएं होती हैं।
यदि किसी पार्टी में युवकों का समूह शराब पी रहा है, तो वे तय करते हैं – “आज तुम ड्राइवर हो, तुम नहीं पिओगे।” – ताकि सब सुरक्षित घर लौट सकें।
यह एक तरह की तपस्या है – शराबियों में भी!
यहाँ तक कि शराब पीने वाले भी उन लोगों को बुरा कहते हैं जो नशे में गाड़ी चलाते हैं – “वे सबको बदनाम कर देते हैं।”
इसका अर्थ यह नहीं कि शराब पीना अच्छा है, लेकिन इससे भी अधिक बुरा है – शराब पीकर वाहन चलाना।
यानी समाज के अपने मानक होते हैं, जो व्यक्ति के भीतर की बुराइयों को नियंत्रित करते हैं।
अब अगर कोई व्यक्ति पूरी तरह समाज का त्याग कर दे – जबकि उसका मन अभी भी प्रबल है – तो वह 5 पत्नियों और 1 इंद्रिय के साथ पथभ्रष्ट हो सकता है।
(यह प्रतीकात्मक भाषा है – 5 मन = पंचेंद्रियाँ, और 1 इंद्रिय = मन)
इसलिए भगवान बार-बार यह कहते हैं कि – संन्यास की पात्रता के लिए दो बातें आवश्यक हैं:
- मन का नियंत्रण (Control of the Mind)
- समान दृष्टि (Equal Vision)
जब तक व्यक्ति को शराब में आसक्ति है – तब तक वह किसी विकल्प को तुच्छ समझेगा।
लेकिन जब उसकी दृष्टि समान हो जाती है – चाहे वह गन्ने का रस हो, दूध हो, या शराब – तब उसका मन शांत रहता है।
इसका अर्थ यह नहीं कि सब एक समान है, परंतु मन का कोई विशेष आकर्षण नहीं रह जाता।
इसका पहला स्तर है – मन को जबरदस्ती नियंत्रित करना।
लेकिन दूसरा, और सच्चा स्तर है – मन का स्वाभाविक रूप से शांत हो जाना।
जब व्यक्ति को सब में ईश्वर दिखाई देता है – सब वस्तुएँ उसे ईश्वर से जुड़ी लगती हैं – तब उसकी दृष्टि सम हो जाती है।
तभी सच्चा संन्यास संभव होता है।
प्रवचन: श्रीमद्भगवद्गीता — अध्याय 6 (ध्यान योग)
जब हमारे मन में किसी के प्रति शत्रुता हो, तो मन शांत कैसे रह सकता है? यदि मन में द्वेष है, तो वह बेचैन रहेगा। इसीलिए भगवान कहते हैं कि मन की शांति का अर्थ है — वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति समान दृष्टि विकसित करना।
वस्तुओं के प्रति समान दृष्टि प्राप्त करना अपेक्षाकृत सरल है, परंतु व्यक्तियों के प्रति यह दृष्टि प्राप्त करना कहीं अधिक कठिन है। भगवान पहले यह बताते हैं कि जो व्यक्ति वस्तुओं को समदृष्टि से देख पाता है, वह मन पर विजय पाने में सफल हो सकता है। लेकिन उससे भी ऊंचा वह है जो व्यक्तियों को भी समान दृष्टि से देख पाता है। ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से प्रगति करता है, और तभी वह एकांत जंगल में भी मन के साथ शांति से रह सकता है।
क्योंकि जब हम अकेले होते हैं, तो वास्तव में हम अकेले नहीं होते — हम अपने मन के साथ होते हैं। और यदि मन भोग की इच्छाओं से भरा है, तो वह स्वयं हमारे लिए शत्रु बन जाता है।
इसलिए कहा जा सकता है कि “जब तक मन शत्रु है, तब तक समाज हमारी रक्षा करता है।”
और समाज के इस संरक्षण को हम तभी छोड़ सकते हैं जब मन हमारा मित्र बन जाए।
भगवान पहले समझाते हैं कि ध्यान योग का अभ्यास करने से पहले मन का शत्रु-पक्ष समाप्त होना चाहिए। जब तक मन भोग-सुख में आसक्त है — यह मिलेगा, उससे दुख होगा, इत्यादि — तब तक मन चंचल रहेगा और हम स्थिर नहीं हो पाएंगे। ऐसे में समाज का सहयोग आवश्यक है — विशेषकर उन लोगों का जो आत्मसंयमी हों, नैतिक हों, और भक्ति में तत्पर हों।
भगवान यहां यह संकेत दे रहे हैं कि संन्यास को जल्दबाज़ी में नहीं लेना चाहिए।
इसके बाद वे बताते हैं कि जब व्यक्ति परिपक्व होता है, तब वह ध्यान योग का अभ्यास कर सकता है।
ध्यान की विधि (श्लोक 10–14):
इन श्लोकों में भगवान पहले बाह्य विधियों का वर्णन करते हैं — जैसे शरीर, गला और सिर को एक सीध में रखना; इधर-उधर न देखना; दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर स्थिर करना। इसका अर्थ यह नहीं कि हमें नाक के किनारे कुछ विशेष देखना है, बल्कि यह केवल एक “बाह्य एकाग्रता का केंद्र” है।
जैसे-जैसे बाहर की वस्तु कम आकर्षक होती है, हमारी चेतना अंदर की ओर मुड़ती है। इसलिए ध्यान की बाह्य विधि हमें आंतरिक अनुभव के लिए तैयार करती है।
आहार-विहार का संयम (श्लोक 16–17):
भगवान कहते हैं — ना तो बहुत अधिक खाना चाहिए, ना बहुत कम; ना बहुत अधिक सोना चाहिए, ना अत्यंत कम। संतुलन ही साधना का मूल है।
यह संयम केवल गृहस्थों के लिए नहीं, बल्कि सन्यासियों के लिए भी आवश्यक है। शरीर यदि अस्वस्थ होगा, तो साधना नहीं हो सकेगी। इसलिए शरीर की देखभाल आवश्यक है।
समाधि की अवस्था (श्लोक 20–23):
जब मन भीतर स्थिर हो जाता है, तब साधक आत्मा को देखता है, परम सत्य को अनुभव करता है, और ऐसा सुख प्राप्त करता है जिसकी तुलना में कोई भी भौतिक सुख अर्थहीन लगता है।
यह अवस्था “योग” की पूर्णता मानी जाती है — “तं विद्याद् दुःख संयोग वियोगं योगसंज्ञितम्”।
योग का अर्थ है — उस स्थिति में पहुँचना जहां आत्मा का मिलन परमात्मा से होता है, और दुःखों से पृथकता होती है।
योग की जीवनशैली (युक्त आहार विहार, युक्त चेष्टा)
योग केवल एक आसन में बैठने की विधि नहीं है — यह एक जीवनशैली है। इसलिए भगवान कहते हैं — जीवन में संयम, संतुलन, और साधना का निरंतर अभ्यास आवश्यक है।
परमात्मा की सर्वव्यापकता (श्लोक 29–30):
भगवान कहते हैं — जो योगी सब प्राणियों में आत्मा को देखता है, और सब आत्माओं में परमात्मा को देखता है — ऐसा व्यक्ति वास्तव में परम योगी है।
श्लोक 30 में भगवान एक अद्भुत आश्वासन देते हैं:
“यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति, तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।”
जो मुझे सबमें देखता है और सबको मुझमें देखता है, वह मुझसे कभी विलग नहीं होता, और मैं उससे नहीं।
यह गीता के उन विरले श्लोकों में से है जहां भगवान ऐसा सीधा आश्वासन देते हैं।
सर्वश्रेष्ठ योगी कौन? (श्लोक 32):
जो व्यक्ति सब जीवों को अपने समान देखता है, और समझता है कि हर जीव भगवान से जुड़कर सुखी हो सकता है — ऐसा करुणा से भरा योगी ही “सर्वश्रेष्ठ योगी” है।
अर्जुन के प्रश्न (श्लोक 33–34):
इस गहन शिक्षण के बाद अर्जुन प्रश्न उठाते हैं —
“हे कृष्ण! यह जो आपने योग का मार्ग बताया है, वह मेरे लिए अत्यंत कठिन प्रतीत होता है। मेरा मन चंचल है, और उसे वश में करना कठिन है।”
यहाँ अर्जुन की समस्या साधारण नहीं है। वे वनवास के समय हिमालय में जाकर तप कर चुके हैं, योग साधना कर चुके हैं। फिर भी वे कहते हैं कि “मैं युधिष्ठिर और दुर्योधन को एक समान दृष्टि से नहीं देख सकता।”
यह मानसिक चुनौती है, न कि केवल शारीरिक। अर्जुन स्पष्ट कर रहे हैं कि समान दृष्टि प्राप्त करना — यह मेरे लिए संभव नहीं है।
यहाँ भगवान एक आदर्श शिक्षक की भांति प्रतिक्रिया देते हैं — वे न अर्जुन को डांटते हैं, न निराश करते हैं, बल्कि उन्हें एक ऐसा मार्ग बताते हैं जो प्रगतिशील है और व्यावहारिक भी।
श्रेष्ठ शिक्षक कौन होते हैं?
अक्सर हम किसी व्यक्ति को यह बताते हैं कि “ऐसे करो”, “ऐसा मत करो”—और यह ज़रूरी भी होता है। परंतु एक सच्चा शिक्षक केवल निर्देश नहीं देता, वह दृष्टिकोण (vision) देता है।
निर्देश (instruction) केवल कार्य करने के तरीके से संबंधित होता है—”यह करो”, “वह मत करो”—पर दृष्टिकोण यह समझाता है कि क्यों करना है, और उसका अर्थ क्या है।
जब हम किसी को केवल निर्देश देते हैं, तो वह व्यक्ति शायद कार्य तो कर लेता है, लेकिन उस कार्य का मर्म नहीं समझ पाता। पर जब उसे दृष्टिकोण मिल जाता है, तो वह स्वयं सोच सकता है:
“क्या यह कार्य मेरे लिए उपयुक्त है?”, “क्या मैं इसे कर पाऊँगा?”, और—”अगर नहीं, तो मुझे क्या करना चाहिए?”
भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन को सीधे यह नहीं कहते कि “तुम ध्यान योग मत करो।”
बल्कि वह ध्यान योग का वर्णन करते हैं, जिससे अर्जुन स्वयं यह निष्कर्ष निकालता है कि — “यह मार्ग मेरे लिए कठिन है।”
इससे स्पष्ट होता है कि भगवान ने उसे सोचने का दृष्टिकोण दिया, निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी।
भगवान का उत्तर क्या है?
भगवान श्रीकृष्ण ध्यान योग को न तो अस्वीकार करते हैं और न ही स्पष्ट समर्थन देते हैं।
वे कहते हैं:
“मन को नियंत्रित करना कठिन अवश्य है, लेकिन अभ्यास (abhyāsa) और वैराग्य (vairāgya) से यह संभव है।”
यह अभ्यास और वैराग्य, केवल ध्यान योग में ही नहीं, बल्कि हर आध्यात्मिक मार्ग के लिए आवश्यक सिद्धांत हैं।
इसलिए भगवान किसी एक मार्ग का पक्ष नहीं लेते, बल्कि हर मार्ग के लिए मूलभूत सिद्धांतों पर ज़ोर देते हैं।
अर्जुन का दूसरा प्रश्न:
अर्जुन पूछते हैं:
“यदि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक मार्ग पर चलता है, परंतु पूर्णता प्राप्त करने से पहले मृत्यु हो जाए या उसका मन विचलित हो जाए, तो उसका क्या होगा?”
यह चिंता स्वाभाविक है। अर्जुन दो परिस्थितियाँ प्रस्तुत करता है:
- व्यक्ति का संकल्प कमज़ोर पड़ जाए और वह साधना अधूरी छोड़ दे।
- व्यक्ति की आयु पूरी हो जाए और वह मृत्यु को प्राप्त हो।
इस पर भगवान दो संभावनाएँ बताते हैं:
1. जो व्यक्ति थोड़ी आध्यात्मिक प्रगति करके मार्ग से हट गया:
- ऐसे व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
- वह वहाँ पर लंबे समय तक पुण्य फल भोगता है।
- फिर पृथ्वी पर जन्म लेता है, एक सुसंस्कृत और धनवान परिवार में (श्रीमतीं गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते)।
यह जन्म उसे भौतिक संघर्षों से मुक्त करता है, जिससे वह अपने अधूरे आध्यात्मिक पथ को फिर से आगे बढ़ा सकता है।
2. जो व्यक्ति अत्यधिक प्रगति कर चुका था पर पूर्णता नहीं मिली:
- ऐसा योगी अत्यंत भक्तिपूर्ण परिवार में जन्म लेता है।
- वह परिवार आध्यात्मिक रूप से प्रगाढ़ होता है, जिससे व्यक्ति को बाल्यकाल से ही ईश्वरभक्ति का वातावरण प्राप्त होता है।
- वहाँ से वह अपने पूर्वजन्म की साधना को स्मरण करता है और शीघ्र ही पूर्णता प्राप्त करता है।
भगवान कहते हैं:
“नेहाभिक्रमणाशोऽस्ति” – इस मार्ग में कभी हानि नहीं होती।
कोई भी आध्यात्मिक प्रयास व्यर्थ नहीं जाता—न इस लोक में, न परलोक में।
अंत में भगवान स्पष्ट करते हैं:
सभी योगियों में भक्ति योगी श्रेष्ठ है।
“योगिनामपि सर्वेषां… भक्तियुक्तो मम”
जो योगी भगवान का निरंतर चिंतन करता है, वह सर्वोच्च योगी है।
भगवान अर्जुन को निर्देशात्मक रूप से नहीं कहते कि “तुम भक्ति योग अपनाओ”, बल्कि वे विभिन्न मार्गों का विश्लेषण करके यह स्पष्ट करते हैं कि भक्ति योग सबसे प्रभावशाली और व्यावहारिक मार्ग है। अगले अध्याय में वह बताते हैं कि कैसे बिना अन्य प्रक्रियाओं से गुज़रे, सीधे भक्ति योग में प्रवेश किया जा सकता है।
इस अध्याय का सारांश:
यह अध्याय पाँच भागों में विभाजित है:
- 1–10: मन नियंत्रण और वैराग्य की आवश्यकता।
- 11–32: ध्यान योग की प्रक्रिया और स्थिति।
- 33–36: अर्जुन की शंका – “ध्यान योग कठिन है”, और उसका समाधान – अभ्यास और वैराग्य।
- 37–45: योगभ्रष्ट व्यक्ति की गति – स्वर्ग, पुनर्जन्म और आगे की प्रगति।
- 46–47: विभिन्न योगियों में श्रेष्ठ – भक्ति योगी।
इस प्रकार, भगवान कर्म योग और ध्यान योग से भक्ति योग की ओर मार्गदर्शन करते हैं।
अंत में:
जब समाज में रहते हैं, तो सामाजिक मर्यादा हमें नियंत्रित करती है।
परंतु यह केवल “नियम” है—regulation, न कि purification।
शुद्धिकरण का अर्थ है:
मन में जो वासनाएं हैं, उनका उन्मूलन।
नियम से हम उन्हें दबा सकते हैं, पर हटाते नहीं।
“Regulation is control; purification is transformation.”
धन्यवाद।
हरे कृष्णा।
Regulation का अर्थ है कि जो अंदर है वह बाहर किस हद तक आ रहा है — उस पर कुछ नियंत्रण हो रहा है।
तो जब समाज होता है, तो अंदर बहुत कुछ हो सकता है, लेकिन उससे क्या बाहर आ रहा है — उस पर कुछ नियंत्रण रहता है।
भगवद गीता में ऐसे सीधे कोई श्लोक नहीं हैं जहाँ भगवान सकाम कर्मियों और निष्काम कर्मियों का स्पष्ट अंतर कर रहे हों।
ऐसा नहीं है कि भगवान कहते हैं, “अब मैं कर्मियों के बारे में बता रहा हूँ।”
भगवान तो एक समग्र वर्णन कर रहे हैं।
तो हम विश्लेषण के स्तर पर, या आचार्यों के मार्गदर्शन से देख सकते हैं कि — यह श्लोक निष्काम कर्मियों के लिए है, यह श्लोक सकाम कर्मियों के लिए है।
तो सामान्यतः भगवान कर्मियों और भक्तों — दोनों के बारे में बताते हैं।
अब फ़र्क क्या है? Terms of practice में —
एक तरह से देखा जाए तो कर्म योग में जो साधना होती है, उसका वर्णन भगवान ज़्यादा नहीं करते हैं।
But in general, it is more of meditation — मतलब वह व्यक्ति चिंतन करता है कि “मैं एक आध्यात्मिक प्राणी हूँ”, “I am a spiritual being”, — उस पर ध्यान देता है।
जैसे भगवान पाँचवें अध्याय में कहते हैं —
यहाँ ध्यान का मतलब केवल बैठकर ध्यान करना नहीं है — बल्कि चिंतन करना है कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं भौतिक नहीं हूँ।
पर भक्ति योग में जो ध्यान होता है, वह है meditation on God।
यहाँ ध्यान होता है — general spirituality पर नहीं — बल्कि realization of Krishna पर।
तो एक दृष्टिकोण से हम इसे ऐसे समझ सकते हैं:
मान लीजिए कोई व्यक्ति है, जिसने कोई गुनाह किया है — जैसे अपने परिवार से झगड़ा कर लिया — और वह इतना बड़ा झगड़ा हो गया कि उसे जेल भेज दिया गया।
अब वह व्यक्ति बहुत बुरी परिस्थिति में है — तो वह जेल से बाहर निकलना चाहता है।
अब जेल से बाहर आकर क्या करना है — वह बाद की बात है।
पहले उसे बाहर निकलना है।
दूसरी तरफ, वही व्यक्ति सोचता है — “मुझे बाहर निकलना है, पर मैं अपने परिवार से भी संबंध सुधारना चाहता हूँ।”
तो वह जेल से ही परिवार को खत लिखता है, कभी मिल भी लेता है — और धीरे-धीरे संबंध जोड़ता है।
तो जब वह बाहर जाता है, तो वह केवल जेल से बाहर नहीं आता — वह घर भी जा सकता है।
तो इसी का रूपक है —
कर्म योग का मतलब है: Just get out of the jail.
समझना कि यह भौतिक जगत एक बंधन है — यहाँ जो भी भोग होगा वह बंधन का कारण बनेगा।
इसलिए किसी भी तरह से मुझे इस जेल से बाहर निकलना है।
अब जेल से बाहर आकर क्या करना है — इसकी चिंता बाद में।
तो यह है कर्म योग।
पर भक्ति योग में क्या है? — Reunion with family.
जैसे कोई व्यक्ति जेल में है, पर उसका उद्देश्य केवल जेल से निकलना नहीं है —
बल्कि अपने परिवार से पुनः मिलना है।
तो उसके लिए जेल से बाहर निकलना ज़रूरी है — पर उद्देश्य अलग है — और स्पष्ट है।
तो वैसे ही —
कर्म योग का उद्देश्य है: Liberation, केवल मुक्ति।
पर भक्ति योग का उद्देश्य है: Loving union with Krishna.
कि भगवान — जो परम प्रेम के स्रोत हैं — न केवल इस भौतिक जगत से निकलना है,
बल्कि भगवान की प्राप्ति भी करनी है।
तो इस दृष्टिकोण से —
बाहरी रूप से कर्म योग और भक्ति योग दोनों ही “कर्म” में आते हैं — दोनों action में भाग लेते हैं।
ध्यान योग, अष्टांग योग आदि renunciation के मार्ग हैं।
पर कर्म योग और भक्ति योग — दोनों में बहुत समानता है।
और जो भिन्नता है — वह है purpose में, और goal की संकल्पना में।
हाँ, यह सत्य है कि भक्ति को किसी विधि में बाँधा नहीं जा सकता।
जैसे भगवान स्वराट हैं — स्वतंत्र हैं — वैसे ही भक्ति भी स्वतंत्र है।
तो जब हम कोई विद्या कर रहे हैं, तो उसका उद्देश्य महत्वपूर्ण होता है।
जैसे — जब हम किसी से प्रेम करते हैं,
तो हर संबंध में कुछ अपेक्षाएँ होती हैं, कुछ जिम्मेदारियाँ होती हैं।
उन जिम्मेदारियों को पूरा करना आवश्यक है,
पर किस भाव से उन्हें पूरा कर रहे हैं — यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
जैसे एक माँ अपने बच्चे का ध्यान रखती है, और एक डेकेयर में भी कोई उसका ख्याल रखता है —
दोनों उसका ख्याल रखते हैं — लेकिन भावना में भारी अंतर होता है।
तो भक्ति में जो कार्य है — वह हमारी भगवान को प्राप्त करने की इच्छा की अभिव्यक्ति है।
तो क्या केवल उन कार्यों से ही भक्ति जागृत होगी? — ऐसा नहीं है।
भक्ति के कार्य — the practices of devotion — are expressions of our desire for devotion.
जब हम जप करते हैं, मंगल आरती करते हैं, कथा सुनते हैं, उपवास करते हैं —
तो हम भगवान की प्राप्ति के लिए अपनी इच्छा व्यक्त कर रहे होते हैं।
हम दिखाते हैं कि — “भगवान! मैं आपके लिए कितना उत्सुक हूँ, कितना आतुर हूँ!”
और यह देखकर भगवान प्रसन्न होते हैं।
Actions are important because actions are expressions of intentions.
हमारी अपेक्षाएँ, हमारी अभिलाषाएँ — इन कार्यों से प्रकट होती हैं।
तो भक्ति ऐसा नहीं है कि कोई कहे — “हे भगवान! मैं पाँच सालों से रोज़ जप कर रहा हूँ — अब तो आप मुझे शुद्ध भक्ति दे ही दो!”
ऐसे भगवान को बाध्य नहीं किया जा सकता।
पर इसका मतलब यह नहीं है कि भक्ति के नियमों का कोई मूल्य नहीं है।
वह जो नियम हैं — वे concrete माध्यम हैं भगवान को दिखाने के लिए कि —
“मैं आपकी भक्ति को कितनी तीव्रता से चाहता हूँ।”
जैसे कोई कहता है — “मैं राष्ट्रप्रेमी हूँ।”
पर उसके घर में कहीं राष्ट्रध्वज नहीं है, वह स्वतंत्रता दिवस पर कुछ नहीं करता,
उसे राष्ट्रगान की स्पेलिंग नहीं आती, गीत याद नहीं है, और झंडा पहचान भी नहीं पाता —
तो कैसा राष्ट्रप्रेम है वह?
जो अंदर है, वह बाहर भी दिखना चाहिए — और स्पष्ट रूप में दिखना चाहिए।
तो भक्ति में दो बातों की चर्चा होती है — नियम-आग्रह।
“नियम-आग्रह” के दो अर्थ हो सकते हैं:
- कोई नियमों पर ही आग्रह कर रहा है — “मैं नियम कर रहा हूँ, इसलिए मुझमें भक्ति है।”
- या दूसरा — “नियमों की ज़रूरत ही नहीं है।”
यह दोनों ही दृष्टिकोण unhealthy हैं।
तो हमें क्या करना है?
Devotion and rules — दोनों को समझना है।
Rules are ways to express our devotion.
नियम रास्ते के समान हैं।
मान लीजिए — आज मैं यहाँ से मुंबई जाना चाहता हूँ।
अगर मुझे रास्ता पता है — तो जाना आसान होगा।
रास्ता नहीं पता — तो मुझे खेतों, पहाड़ों से जाना पड़ेगा — जो मुश्किल होगा।
तो केवल रास्ते पर रहना काफी नहीं — मुझे रास्ते से मुंबई की ओर जाना है।
तो कोई अगर केवल नियमों पर ही टिका है — वह समझता है, “रास्ता ही सर्वश्रेष्ठ है।”
नहीं — रास्ते से जाना कहाँ है, यह महत्वपूर्ण है।
दूसरा कहे — “रास्ते की ज़रूरत नहीं” —
हाँ, रास्ते के बिना भी जा सकते हैं,
पर वह यात्रा बहुत कठिन होगी।
इसलिए —
नियम-आग्रह और नियम-वर्जन — दोनों से बचना चाहिए।
और नियमों को भक्ति के लिए साधन के रूप में अपनाना चाहिए।
ठीक?
तो बहुत-बहुत धन्यवाद।
श्रीमद् भगवद गीता की — जय।
श्रील प्रभुपाद की — जय।