Hindi – Chapter 7 Bhagavad Gita And Decision Making Bhagavad Gita Overview – Chaitanya Charan
हरे कृष्ण।
मैं बहुत कृतज्ञ हूँ कि आज मैं आप सभी के बीच उपस्थित हो पाया। पिछले वर्ष हमने भगवद्गीता का एक overview (सार-संग्रह) आरंभ किया था, जिसे हम अब आगे बढ़ाएंगे। उस समय हमने छठे अध्याय तक का अवलोकन किया था और आज से हम सातवें अध्याय से आगे बढ़ेंगे।
लेकिन उससे पहले अब तक के अध्यायों का एक संक्षिप्त पुनरावलोकन कर लेते हैं।
हम गीता को कई दृष्टिकोणों से समझ सकते हैं, पर एक मुख्य दृष्टिकोण है – ‘गीता as a guide for decision making’, अर्थात निर्णय लेने की एक आध्यात्मिक मार्गदर्शिका।
अर्जुन धर्मसंकट में हैं — एक ओर उनका कर्तव्य है, दूसरी ओर उनके अपने स्वजन। वे असमंजस में हैं, और भगवान श्रीकृष्ण उन्हें निर्णय करने की क्षमता प्रदान कर रहे हैं।
गीता के विभिन्न अध्यायों में भिन्न-भिन्न विषयों की चर्चा होती है, लेकिन इन सभी चर्चाओं का मूल उद्देश्य यही है — अर्जुन की निर्णय लेने की क्षमता को स्पष्ट करना।
अब निर्णय दो प्रकार के होते हैं:
- प्रायोगिक (Practical/Logistical) – जैसे मंदिर कहाँ बनाना है, पुस्तकें छपवानी हैं या नहीं, ये निर्णय किसी कार्य की योजना से जुड़े होते हैं।
- तात्त्विक (Conceptual/Philosophical) – जैसे मंदिर बनाना चाहिए या नहीं, किस कार्य को प्राथमिकता दी जाए, संन्यास लेना उचित है या नहीं, ये निर्णय गहरे तात्त्विक चिंतन पर आधारित होते हैं।
जैसे एक डॉक्टर तय करता है कि कौन-सी दवा देनी है, यह व्यावहारिक निर्णय है। लेकिन अगर किसी मरीज की स्थिति गंभीर है और इलाज कठिन है, तो यह निर्णय कि इलाज करवाना है या जीवन के शेष समय को शांति से जीना है — यह एक तात्त्विक निर्णय बन जाता है।
तो गीता का मार्गदर्शन किस प्रकार का है?
प्रायोगिक नहीं — यह तात्त्विक और दार्शनिक मार्गदर्शन है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यह नहीं कह रहे कि तुम्हारी सेना अधिक शक्तिशाली है या दुश्मन की कमज़ोर। वे यह भी नहीं गिन रहे कि किस पक्ष में कितने योद्धा हैं। उनका पूरा फोकस अर्जुन की चेतना और दृष्टिकोण को स्पष्ट करने पर है।
गीता के पहले छह अध्यायों को हम तीन स्तरों पर बाँट सकते हैं —
- जीव (individual soul)
- जगदीश (Supreme Lord)
- जगत (material world)
- Chapters 1–6: जीव की पहचान और उसके अनुसार कर्मयोग का मार्ग।
- Chapters 7–12: भगवान की पहचान और उसके अनुसार भक्तियोग का मार्ग।
- Chapters 13–18: जगत की प्रकृति और उसके अनुसार ज्ञानयोग का मार्ग।
तो जैसे कोई निशानेबाज़ तीर एक ही लक्ष्य की ओर चलाता है, पर अलग-अलग दिशाओं से – वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन को युद्ध का निर्णय लेने के लिए अलग-अलग योगों के माध्यम से प्रेरित कर रहे हैं —
पहले कर्मयोग, फिर भक्तियोग, और फिर ज्ञानयोग।
गीता में श्रीकृष्ण संवाद के रूप में शिक्षा देते हैं। अर्जुन के मन में जो शंकाएं और संकल्पनाएं आती हैं, उनका उत्तर देते हुए वे क्रमशः गहराई से मार्गदर्शन देते हैं।
पहले छह अध्यायों में क्या हुआ?
अर्जुन को यह भ्रम था कि युद्ध करना attachment है और युद्ध छोड़ देना detachment या वैराग्य है — और वैराग्य श्रेष्ठ है।
भगवान समझाते हैं कि केवल त्याग दिखने से कोई संन्यासी नहीं बन जाता। वास्तविकता यह है कि
- कर्म को अनासक्त भाव से किया जाए तो वह कर्मयोग बनता है।
- त्याग को सही चेतना से किया जाए तो वह सच्चा संन्यास बनता है।
- और अगर त्याग दिखावे का हो, या कर्म भोग के उद्देश्य से हो, तो दोनों ही अधोमुखी हो सकते हैं।
भगवान कौनसे मार्गों को स्वीकार करते हैं?
- कर्मयोग,
- ज्ञानयोग,
- ध्यानयोग,
- भक्तियोग — चारों को स्वीकार करते हैं।
पर इन सब में वे भक्तियोग को सर्वोच्च मानते हैं। और अर्जुन के लिए तो विशेष रूप से कर्मयोग को प्राथमिक मानते हैं, क्योंकि वे एक गृहस्थ, योद्धा और ज़िम्मेदार व्यक्ति हैं।
Chapter 6 के अंत में अर्जुन पूछते हैं:
ध्यानयोग बहुत कठिन है। चंचल मन को स्थिर करना बहुत कठिन लगता है।
तो भगवान आश्वस्त करते हैं — अभ्यास और वैराग्य से यह संभव है।
और फिर कहते हैं — ध्यानयोगियों में भी जो भक्तिपूर्वक मेरी भक्ति करता है, वही मुझमें सबसे श्रेष्ठ है। (6.47)
अब अध्याय 7 से एक बड़ा परिवर्तन आता है —
अब तक गीता में अनासक्ति पर बल था। अब से आसक्ति — परंतु भगवान से — पर बल है।
यहां श्रीकृष्ण कहते हैं — “मय्यासक्त मनाः पार्थ…” — हे अर्जुन! अपने मन को मुझमें आसक्त करो।
यहां से गीता का केंद्र बिंदु बदलता है — केवल आत्मज्ञान या मोक्ष प्राप्त करना नहीं, भगवान से प्रेमपूर्ण संबंध बनाना लक्ष्य हो जाता है।
जैसे कोई जेल में हो और उसे केवल बाहर निकलना हो, तो वह केवल मुक्ति चाहता है।
पर यदि उसे पता चले कि बाहर उसका कोई करीबी रिश्तेदार है — धनवान, कृपालु और प्रेमी — तो अब उसका लक्ष्य केवल जेल से निकलना नहीं, बल्कि उस संबंध को जीना भी बन जाता है।
भक्ति यही दृष्टिकोण है।
इसलिए कर्मयोग में ज़ोर है अनासक्ति पर,
और भक्तियोग में ज़ोर है भगवदासक्ति पर।
कर्म योग में मुख्य बात कर्म नहीं, योग है —
अर्थात ईश्वर से जुड़ाव और निष्काम भाव।
भक्ति योग में मुख्य बात है — भगवान के प्रति प्रेमपूर्ण आसक्ति।
तो सबसे पहले भगवान सातवें अध्याय की शुरुआत में तीन मुख्य बातें बताते हैं:
- Reality — यथार्थ क्या है?
- Rarity — भगवान में मन लगाना कितना दुर्लभ है?
- Relevance — भगवान का हमारे जीवन में क्या महत्व है?
1. Reality:
भगवान बताते हैं कि सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है — और वह है मन को भगवान में लगाना।
पर यह बहुत दुर्लभ है।
2. Rarity:
“मनुष्याणां सहस्रेषु…” — हजारों में कोई एक व्यक्ति सिद्धि की तलाश करता है, और उनमें से भी कोई एक भगवान को वास्तव में जान पाता है।
लोग अलग-अलग क्षेत्रों में सिद्धि (perfection) की तलाश करते हैं —
- डॉक्टर चाहते हैं कि वे सबसे कुशल डॉक्टर बनें,
- क्रिकेटर नंबर 1 बनना चाहता है,
- व्यवसायी सबसे बड़ा बनना चाहता है।
पर केवल चाहने से कुछ नहीं होता — उसके लिए मेहनत, तपस्या, और समर्पण चाहिए। और यह सब कर के भी सिद्धि प्राप्त करना सरल नहीं है।
उदाहरण:
पिछले वर्ष जनवरी में एक भक्त ने कहा, “2024 मेरे जीवन का सबसे श्रेष्ठ वर्ष होगा!”
मैंने पूछा, “क्यों?”
उन्होंने कहा, “मैंने 108 न्यू ईयर रेज़ोल्यूशंस लिए हैं!”
मैंने (सम्मानपूर्वक) कहा:
“ये रेज़ोल्यूशन्स नहीं, ये एक wish list है।”
अक्सर हम बहुत सारे संकल्प लेते हैं, लेकिन कुछ ही दिन में भूल जाते हैं या छोड़ देते हैं।
कोई भक्त कह रहा था, “मैंने ऐसा रेज़ोल्यूशन लिया है जो मैंने जीवन में कभी नहीं लिया!”
क्या?
“अब से मैं कोई रेज़ोल्यूशन कभी लूंगा ही नहीं!”
संदेश:
सिद्धि पाना कठिन है, उसमें टिके रहना और भी कठिन है।
और सबसे कठिन — यह समझना कि सच्ची सिद्धि क्या है?
भगवान कहते हैं —
सच्ची सिद्धि न तो महान बल्लेबाज़ बनना है, न गायक, न लेखक।
जीवन की सच्ची सिद्धि है — भगवान की भक्ति, भगवान का प्रेम।
और यह समझने वाले लोग — अत्यंत दुर्लभ हैं।
3. Relevance:
अब प्रश्न आता है —
भगवान का हमारे जीवन में महत्व क्या है?
क्यों हमें उनके बारे में जानना और उनसे जुड़ना चाहिए?
जब मैं नया-नया भक्ति में आया था, तो रिश्तेदारों को भक्ति का परिचय दे रहा था।
मेरे एक चाचा बोले — “भगवान वहां सुखी हैं, मैं यहां सुखी हूं — सब ठीक है।”
इससे स्पष्ट होता है कि कई लोगों को भगवान की प्रासंगिकता (relevance) समझ में नहीं आती।
भगवान हमें क्यों चाहिए?
A. Proximity — भगवान कितने करीब हैं?
भगवान चौथे से बारहवें श्लोक तक बताते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत उनकी शक्तियों से ही चल रहा है —
“भूमिरापोऽनलो वायुः…” — ये सब प्रकृति के तत्त्व भगवान से ही उत्पन्न हुए हैं।
भगवान कहीं दूर नहीं हैं —
“रसोऽहम् अप्सु कौन्तेय…” — पानी में स्वाद मैं हूँ।
“प्रकाशः सर्वस्य तेजसाम्…” — तेजस्विता में प्रकाश मैं हूँ।
एक प्रसिद्ध श्लोक है:
“मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥”
— सम्पूर्ण जगत मुझसे व्याप्त है।
भगवान कहते हैं —
“सूत्रे मणिगणाय इव” — जैसे माला के मोतियों को एक अदृश्य धागा जोड़ता है, वैसे ही यह जगत भी मुझसे जुड़ा है।
हमें क्या करना है?
जो दृश्य है (visible) — उससे अदृश्य (invisible) की ओर जाना है।
एक दृष्टांत:
जब मैं इंग्लैंड गया था, तो केम्ब्रिज में न्यूटन का प्रसिद्ध स्थान देखा जहाँ सेब गिरा था।
वहाँ का “न्यूटन ट्री” आज वैज्ञानिकों के लिए एक तीर्थस्थल जैसा है।
क्यों?
क्योंकि न्यूटन ने फल गिरते देखा, लेकिन उससे गुरुत्वाकर्षण के अदृश्य सिद्धांत को पहचाना।
वैज्ञानिक वही होता है जो दृश्य से अदृश्य तक जाए।
तो क्या भगवान को नहीं देख सकते?
सही बुद्धि से देखो — तो हर चीज़ में भगवान दिखाई देंगे।
हमारा जगत में जो कुछ भी सुंदर, शक्तिशाली, या आकर्षक है — वह भगवान की झलक है।
I am the underlying, unifying essence of everything.
B. Vision of God:
मंदिर में भगवान का विग्रह, चित्र, सत्संग — हमें उनकी अनुभूति करवाते हैं।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मंदिर के बाहर भगवान नहीं हैं।
“तद् दूरे तद् अन्तिके…” — भगवान दूर भी हैं, और निकट भी।
वास्तव में कोई भी व्यक्ति, चाहे जितना निकट हो, भगवान जितना करीब नहीं हो सकता।
वह सदा हमारे हृदय में हैं —
“ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति…” (गीता 18.61)
4. Attainability — क्या भगवान को पाया जा सकता है?
भगवान केवल करीब हैं — ऐसा नहीं।
वे attainable भी हैं — प्राप्त हो सकते हैं।
13 से 19 श्लोकों में भगवान यह बताते हैं —
“कौन कौन व्यक्ति मुझे प्राप्त करते हैं?”
और “किस भाव से प्राप्त करते हैं?”
यह अगला भाग है, जिसे हम अगले खंड में विस्तार से देख सकते हैं।
भगवान कहते हैं:
“दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥” (भगवद्गीता 7.14)
भावार्थ:
यह सारा जगत त्रिगुणात्मक माया से युक्त है, और यह माया अत्यंत दुस्तर है। लेकिन जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर सकते हैं।
यह जगत एक मूवी थिएटर के समान है
जब हम मूवी थिएटर में जाते हैं, तो सबसे पहले क्या होता है?
- बाहर की लाइटें बंद हो जाती हैं – यह है आवरणात्मक शक्ति (covering power)।
- स्क्रीन पर लाइट ऑन होती है – यह है प्रक्षेपात्मक शक्ति (projecting power)।
आवरणात्मक शक्ति हमें यह भूलने पर मजबूर करती है कि हम कौन हैं, हम कहां हैं।
प्रक्षेपात्मक शक्ति हमारी चेतना को झूठे दृश्य की ओर फेंक देती है — हम पूरी तरह फिल्म में खो जाते हैं।
अगर फिल्म इतनी शानदार बनी हो कि उसमें से आंखें हटाना ही असंभव हो जाए, तो वह हमें जकड़ लेती है।
इसीलिए कुछ फिल्मों को कहते हैं — unputdownable — जिन्हें हम छोड़ नहीं सकते।
यह जगत भी वैसा ही है — मोह से इतना भरपूर कि हम उसमें खो जाते हैं।
हम सोचते हैं: “अब से मैं यह मूवी (माया) नहीं देखूंगा,”
लेकिन अपने बल से यह करना बड़ा कठिन है।
भगवान क्या कहते हैं
यदि तुम मेरी शरण में आओगे, तो मैं तुम्हें इस माया से बाहर निकाल दूंगा।
जब हम भगवान की शरण लेते हैं —
- तब हमारे आस-पास की लाइटें (ज्ञान) धीरे-धीरे ऑन होने लगती हैं।
- और मायिक दृश्य की चमक (भ्रम) धीरे-धीरे डिम होने लगती है।
मान लीजिए आप कोई वीडियो देख रहे हैं —
अगर उसकी क्वालिटी बहुत कम हो जाए (जैसे 1p), तो वह बोरिंग लगने लगेगा।
उसी तरह, जब भक्ति से हमारा विवेक जागता है —
तो यह मायिक संसार हमें कम आकर्षक लगने लगता है।
भक्ति का प्रभाव
भक्ति करने से क्या होता है?
- प्रक्षेपात्मक शक्ति (illusion power) का प्रभाव कम होता है।
- और आध्यात्मिक जागरूकता (spiritual perception) बढ़ने लगती है।
इसलिए भगवान कहते हैं —
“माम एव ये प्रपद्यन्ते…” — जो मेरी शरण में आते हैं, वही माया को पार कर सकते हैं।
आध्यात्मिक प्रगति का अर्थ क्या है
शुरुआत में —
- जगत बहुत बड़ा लगता है,
- और भगवान बहुत छोटे।
हमें लगता है:
“भगवान हैं ठीक है… जब अच्छा लगेगा तो मंदिर या कीर्तन में चले जाएंगे।”
पर असली सुख तो इस दुनिया में है — ऐसा लगता है।
पर जैसे-जैसे हम भक्ति में आगे बढ़ते हैं —
- जगत छोटा होता जाता है,
- और भगवान बड़े होते जाते हैं।
हम समझते हैं कि:
“भगवान से मिलने वाला सुख इस जगत के सुख से कहीं श्रेष्ठ है।”
प्रारंभिक भक्त कौन होते हैं
गीता 7.16 में भगवान कहते हैं —
“चतुर्विधा भजन्ते मां…” — चार प्रकार के लोग मेरी भक्ति करते हैं:
- दुःख में पड़े हुए
- धन चाहने वाले
- जिज्ञासु (जिज्ञासा रखने वाले)
- ज्ञानी (सत्य के जिज्ञासु)
प्रारंभिक अवस्था में हम अक्सर भगवान को माध्यम मानते हैं —
“भगवान से कुछ पाना है — धन, शक्ति, सुख…”
एक उदाहरण
मैं एक बार उत्तर भारत में एक हनुमान मंदिर गया।
मंदिर के बाहर लिखा था:
“तुम तो हो बाल ब्रह्मचारी, मुझे दे दो एक नारी!”
(हास्य में, लेकिन संकेत स्पष्ट है)
लोग भगवान की शरण में तो आते हैं —
लेकिन भगवान के लिए नहीं,
बल्कि जगत के लिए।
फिर क्या होता है
गीता 7.19 में भगवान कहते हैं:
“बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥”
अनेकों जन्मों के बाद, जो ज्ञानी होता है वह मुझमें शरण लेता है — यह जानकर कि वासुदेव ही सब कुछ हैं। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है।
अब भक्त का दृष्टिकोण बदल जाता है —
वह अब भगवान को माध्यम नहीं,
लक्ष्य मानने लगता है।
एक और उदाहरण
श्रील प्रभुपाद — वे केवल एक सफल व्यवसायी नहीं बनना चाहते थे।
उनका उद्देश्य था —
“धन के माध्यम से अपने गुरुदेव की सेवा करना।”
निष्कर्ष
हम भगवान में आसक्ति तब विकसित कर सकते हैं —
जब हमें यह एहसास हो जाए कि:
“वासुदेवः सर्वमिति” — भगवान ही सब कुछ हैं।
जब यह समझ जागती है —
तभी भक्ति में मन रमेगा, और तब ही माया से पार जाना संभव होगा।
भगवान में आसक्ति और हमारी कामनाएँ
कुछ लोग मंदिर में आकर भगवान के सामने हाथ जोड़ते हैं — और उनकी प्रार्थना देखने में तो लगती है कि वे बहुत भावपूर्ण हैं, मानो पूरी दुनिया को भूलकर भगवान से बात कर रहे हों।
लेकिन जब उनसे पूछा जाए कि “आप क्या प्रार्थना कर रहे हैं?” तो पता चलता है कि—
भगवान में नहीं, किसी सांसारिक वस्तु में उनकी आसक्ति है।
दिल्ली के एक मंदिर में एक बार एक युवक बहुत श्रद्धा से प्रार्थना कर रहा था। उससे पूछा गया, “क्या प्रार्थना कर रहे हो?”
उसने कहा, “मैं एक लड़की से प्रेम करता हूं, आज मैं उसके माता-पिता से मिलने जा रहा हूं — प्रार्थना कर रहा हूं कि भगवान उन्हें ‘हाँ’ कहने के लिए प्रेरित कर दें।”
यह अच्छा है कि वह मंदिर में आया, भगवान से बात कर रहा है।
पर ध्यान दीजिए: उसे भगवान नहीं, भगवान से कोई वस्तु चाहिए।
भगवान ‘माध्यम’ हैं, ‘लक्ष्य’ नहीं।
जब तक हमारे लिए भगवान एक साधन (means) हैं किसी संसारिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए —
तब तक हमारा मन स्थिर नहीं रहेगा।
- अगर वो वस्तु मिल गई तो हम कहेंगे: “Thank you Bhagwan, bye-bye!”
- अगर नहीं मिली, तो हम कहेंगे: “भगवान से बात करना ही छोड़ दो।”
और यदि भगवान न लक्ष्य हैं, न ही माध्यम — तो वह क्या है?
नास्तिकता।
जिसमें भगवान का कोई स्थान ही नहीं होता।
कुछ लोग भगवान को लक्ष्य मानते हैं, लेकिन माध्यम नहीं।
ऐसे लोग ज्ञान-योग या ध्यान-योग के पथ पर होते हैं।
उन्हें पता नहीं होता कि परम सत्य वास्तव में भगवान ही हैं।
गीता 12.5 में भगवान कहते हैं:
“क्लेशोऽधिकतरस्तेषां अव्यक्तासक्तचेतसाम्”
— जो लोग अव्यक्त ब्रह्म को पाने का प्रयास करते हैं, उनके लिए यह मार्ग अत्यंत कठिन होता है।
गीता 7.16–18 में भगवान कहते हैं कि जो भक्त मेरी शरण में आते हैं, वे चार प्रकार के होते हैं —
लेकिन केवल ज्ञानी ही वह होता है,
जो मुझे ‘साधन’ और ‘लक्ष्य’ — दोनों मानता है।
यदि हम भगवान की पूजा नहीं करते, तो विकल्प क्या है?
कुछ लोग देवताओं की पूजा करते हैं, कुछ ब्रह्म-ज्योति की।
भगवान स्पष्ट करते हैं कि—
देवताओं की शक्तियाँ भी मेरी ही दी हुई हैं।
ब्रह्म ज्योति भी मेरी ही प्रभा है।
कोई कहता है, “मैं इस कंपनी में नहीं जाऊंगा, क्योंकि वहां का बॉस पसंद नहीं है। मैं दूसरी कंपनी में काम करूंगा।”
पर बाद में पता चलता है — दूसरी कंपनी भी उसी मालिक की है!
उसी प्रकार, देवता भी परमेश्वर के अधीन ही कार्य करते हैं।
इसलिए भगवान कहते हैं — मन मुझ पर लगाओ।
गीता 7.20–25 में भगवान बताते हैं कि—
“जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, उन्हें जो फल मिलता है, वह भी मुझसे ही आता है।”
“मयैव विहितान हि तान्”
फिर किसी और के पास क्यों जाएँ?
सीधे भगवान में मन लगाएँ।
मोक्ष का स्रोत भी भगवान ही हैं
गीता के अंतिम भाग (7.26–30) में भगवान बताते हैं कि—
पूरा संसार, जन्म-मरण का चक्र, कर्मों का जाल — सब कुछ मेरे अधीन है।
जो मुझसे विमुख होकर इच्छा और द्वेष में उलझ जाते हैं,
वही संसार में बंध जाते हैं।
पर जो पुण्यवान होते हैं,
जिनका मन द्वन्द्वों से ऊपर उठ जाता है,
वह मेरी भक्ति करते हैं — “मां दृढव्रता भजनते।” (7.28)
जो मोक्ष चाहते हैं, वे अंततः मेरी ही शरण में आते हैं।
कुछ आचार्यों के अनुसार,
गीता 7.29 में बताया गया “मोक्ष-कामी” एक पाँचवी श्रेणी है —
जबकि अन्य कहते हैं कि वह ज्ञानी की ही उन्नत अवस्था है।
अंतर क्या है?
- ज्ञानी परम सत्य को जानना चाहता है — “What is ultimate reality?”
- मोक्ष-कामी केवल बन्धन से मुक्त होना चाहता है — “This is a jail — I want out!”
पर दोनों अंततः भगवान की शरण में आते हैं —
चाहे राजा की तलाश में हों, या जेल से बाहर निकलने की कोशिश में।
निष्कर्ष:
- जब तक भगवान साधन हैं, पर लक्ष्य नहीं — मन अस्थिर रहेगा।
- जब भगवान साधन और लक्ष्य दोनों बन जाते हैं — मन स्थिर होता है।
- और जब भगवान से हमारा संबंध स्थायी हो जाता है —
तभी हमारा भजन स्थायी होता है।
प्रिय।
जो ज्ञान से समझ रहा है कि भगवान ही परम सत्य हैं — उसे भी भगवान यहाँ पर “प्रिय” नहीं कह रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि वह भगवान को प्रिय नहीं है, पर भगवान ने उसे “प्रिय” नहीं कहा क्योंकि अभी तक उसका भगवान में रूचि नहीं है।
हम लोग जैसे सोचते हैं — “मुझे इस जेल से बाहर निकलना है, और बाहर निकलने के लिए यह व्यक्ति बहुत उपयोगी है — इसलिए मैं उसके पास जा रहा हूँ।”
तो इस भावना से भी व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त कर सकता है, पर भगवान के प्रति मन पूर्ण रूप से नहीं लग पाया है।
तो इस अध्याय में भगवान पर मन क्यों लगाना चाहिए — इसके लिए अलग-अलग कारण बताए गए हैं।
जितना हम इन कारणों को समझेंगे, उतना ही हमें भगवान में मन एकाग्र करना संभव हो पाएगा।
सारांश में:
आज हमने इस अध्याय की चर्चा की।
उससे पहले हमने आधे अध्याय का एक overview किया — देखा कि भगवद्गीता किस प्रकार से अर्जुन को निर्णय (decision) लेने में मार्गदर्शन देती है।
चाहे कर्मयोग से हो, ज्ञानयोग से हो या भक्ति योग से — ultimately निर्णय लेना है — युद्ध करना है।
गीता decision making को कई दृष्टिकोणों से देखती है:
- आत्मा पर focus करती है, तो कहती है – आत्मा अमर है, कर्मयोग से आगे बढ़ो।
- ईश्वर पर focus करती है, तो कहती है – भगवान सबके साथ हैं, भक्ति योग करो।
- जगत पर focus करती है, तो कहती है – यह प्रकृति तीन गुणों से संचालित है, ज्ञानयोग के द्वारा समझो।
6.47 में बताया गया था कि सभी योगों में भक्ति श्रेष्ठ है — जैसे सीढ़ियों से चढ़ना।
7.1 में बताया कि भक्ति योग एक लिफ्ट के समान है।
फिर इस अध्याय में मुख्य बात क्या रही?
मन को कृष्ण में लगाना बहुत दुर्लभ है — मनुष्याणां सहस्रेषु… (7.3)।
फिर बताया कि भगवान हमसे बहुत दूर नहीं हैं — वे तो हमारे अत्यंत समीप हैं — हमने देखा “मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणायिव” (7.7)।
फिर attainability — क्या हम भगवान को प्राप्त कर सकते हैं? हाँ, “बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान मां प्रपद्यते” (7.19)।
फिर हमने उदाहरण देखा — जैसे कोई बहुत आकर्षक movie होती है, तो हम उसे देखना छोड़ नहीं पाते।
लेकिन अगर उसी movie के रंग हल्के हो जाएं, आवाज धीमी हो जाए — तो आकर्षण कम हो जाता है।
ऐसे ही जब हम भगवान की शरण में आते हैं, तब माया का आकर्षण धीरे-धीरे घटने लगता है।
फिर श्लोक 7.20–7.24 में देखा:
लोग देवताओं की पूजा करते हैं, निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं — पर वह शक्ति कहाँ से आती है?
वह भगवान से ही आती है।
इसलिए अगर हम समझ जाएं कि सारे विकल्पों के मूल स्त्रोत भगवान ही हैं — तो मन और दृढ़ता से भगवान में लग सकता है।
और अंत में भगवान बताते हैं (7.29):
“जरा-मरण-मोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये” — जो लोग जन्म-मरण से मुक्ति चाहते हैं, वे मेरी शरण में आते हैं।
यह मोक्ष-कामी ज्ञानी होते हैं, जिनका वर्णन 7.16 में भी आता है।
यहाँ आचार्य गणों में मतभेद है — कुछ कहते हैं कि यह ज्ञानी 5वीं श्रेणी है, कुछ कहते हैं कि यह 4वीं श्रेणी (ज्ञानी) का ही विस्तार है।
कोई परम सत्य को खोजना चाहता है, कोई केवल मोक्ष चाहता है।
जैसे कोई जेल से बाहर निकलना चाहता है — कोई बाहर के राजा को जानना चाहता है।
पर दोनों भगवान की ओर आ रहे हैं — इसलिए भगवान कहते हैं: “प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थं अहं स च मम प्रियः” (7.17)।
प्रश्न-उत्तर में:
आपका प्रश्न बहुत सुंदर था — जीव और भगवान के बीच संबंध को लेकर जो भिन्न-भिन्न दर्शन हैं — अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, और अंततः अचिंत्य भेदाभेद।
इन दार्शनिक मतों का क्रमिक विकास pendulum की तरह हुआ — पहले एक ओर (अद्वैत), फिर दूसरी ओर (द्वैत), फिर संतुलन (विशिष्टाद्वैत), और फिर समन्वय (अचिंत्य भेदाभेद)।
चैतन्य महाप्रभु का दर्शन अंतिम संतुलित समन्वय के रूप में सामने आता है।
महाप्रभु ने मध्व संप्रदाय से दीक्षा क्यों ली — यह ऐतिहासिक रहस्य है।
संभवतः एक strategic alliance था — अद्वैतवाद का खंडन करने हेतु द्वैतवाद के प्रभावशाली वैचारिक समर्थन की आवश्यकता थी।
पर महाप्रभु स्वयं किसी विशेष संप्रदाय को ज़ोर से नहीं रखते — बल्कि कृष्ण प्रेम और भक्ति को ही केंद्र में रखते हैं।
अंत में:
हम भगवान से यही प्रार्थना करें कि —
“हे भगवान, आप ही हमारे साध्य (उद्देश्य) बनें, और आप ही हमारे साधन (निमित्त) बनें।”
ताकि हमारा मन स्थिर और गहराई से आप में लग सके।
हरे कृष्णा।
प्रश्न:
धन्यवाद।
एक अंतिम प्रश्न — हरि कृष्ण वर्मा जी,
अभी आपने बताया कि भक्ति योग सबसे महत्वपूर्ण है।
लेकिन क्या इसके साथ-साथ हमें ज्ञान योग, कर्म योग और ध्यान योग का भी गहराई से अध्ययन नहीं करना चाहिए?
उत्तर:
हाँ, यह ज़रूरी है कि हम उन सारे योगों को पढ़ें नहीं, पर समझें — कि उनका उद्देश्य क्या है।
ऐसा नहीं है कि भक्ति योग इधर है और बाकी सारे योग उधर हैं, और वे हमारे लिए अप्रासंगिक हैं।
नहीं — वास्तव में भक्ति योग एक समन्वय (synthesis) है।
भक्ति योग में ही कर्म भी है, ज्ञान भी है, और ध्यान भी है।
इसलिए ज़रूरी नहीं है कि हम अलग से ज्ञान योग या ध्यान योग के शास्त्रों का पूरा अध्ययन करें,
लेकिन भगवद्गीता में उनका जितना वर्णन आया है, उसे अवश्य समझना चाहिए।
प्रश्न:
तो क्या हमें थोड़ा-बहुत हर योग का ज्ञान होना चाहिए?
उत्तर:
हाँ, ज़रूर।
जैसे मान लीजिए — हमें कोई बीमारी है और इलाज लेना है।
अब आयुर्वेद है, ऐलोपैथी है, होम्योपैथी है, नैचुरोपैथी है —
तो इलाज शुरू करने से पहले हमें थोड़ा तो समझना होगा कि कौन-सी पद्धति हमारे लिए सही है।
पर एक बार जब हम इलाज तय कर लेते हैं —
तो फिर सभी पद्धतियों को गहराई से पढ़ने की ज़रूरत नहीं रहती।
उसी तरह हमें योग मार्गों का एक ओवरव्यू ज़रूर समझना चाहिए — ताकि हम भक्ति का चुनाव समझदारी से करें।
फिर भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ते हुए, हमें ज्ञान की ज़रूरत है —
पर ध्यान रखें कि “ज्ञान” और “ज्ञान योग” एक चीज़ नहीं हैं।
ज्ञान यानी ज्ञान (knowledge) — वह तो सभी को चाहिए।
लेकिन “ज्ञान योग” यानी ज्ञान को ही मार्ग मानना — यह अलग बात है।
भक्ति में ज्ञान एक साधन है, पर ज्ञान ही साध्य नहीं है।
जब कोई केवल ज्ञान को साध्य मानता है, और भक्ति को माध्यम —
तो वहाँ भक्ति का भाव नहीं होता।
हमारे लिए प्राथमिकता है — भक्ति।
ज्ञान उस भक्ति को गहरा करने का माध्यम बनता है, न कि उसका विकल्प।
प्रश्न:
अभी आपने जो genuine renunciation के दो प्रकार बताए थे — उसमें आपने जो genuine renunciation कहा, वह सबसे महत्वपूर्ण बताया।
तो उसमें क्या ध्यान और ज्ञान योग पर ज़ोर दिया गया है?
उत्तर:
नहीं।
वहाँ मैं “genuine renunciation” से भीतर की वैराग्य भावना की बात नहीं कर रहा था —
बल्कि संन्यास आश्रम, यानी जीवन-व्यवस्था के रूप में त्याग की बात कर रहा था।
भगवान अर्जुन से कह रहे हैं — तुम्हारे लिए संन्यास आश्रम (formal renunciation) उपयुक्त नहीं है।
कर्म योग के पथ में तुम गृहस्थ होकर भी त्याग कर सकते हो।
गenuine renunciation का अर्थ है — अगर कोई व्यक्ति संन्यास आश्रम में है और उसके भीतर वैराग्य भी है, तो वह सही है।
लेकिन अगर किसी ने केवल दिखावे के लिए संन्यास लिया है, और भीतर राग-द्वेष अभी भी हैं —
तो वह पाखंडी कहलाएगा।
तो मैं जब “genuine renunciation” कह रहा हूँ —
तो उसका अर्थ है भीतर और बाहर दोनों में समरस वैराग्य,
न कि केवल बाहरी रूप।
प्रश्न:
Thank you very much, प्रभु जी।
आपके उत्तर से स्पष्टता आई — विशेषकर श्रीमद्भागवत की गहराई में।
उत्तर:
आपका भी धन्यवाद।
हरे कृष्णा 🙏