Hindi – Chapter 8 Bhagavad Gita And Decision Making Bhagavad Gita Overview – Chaitanya Charan
तस्मै श्री गुरवे नमः।
नमः ओं विष्णुपादाय।
कृष्ण प्रेष्ठाय भूतले।
श्रीमते भक्ति वेदांत स्वामी इति नामिने।
नमस्ते सारस्वते देवे गौरवाणी प्रचारिणे।
निर्विशेष शून्यवाद पाश्चात्य देश तारिणे।
वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिंधुभ्य एव च।
पतितानां पावनभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।
जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्तवृंद।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण।
तो आज हम भगवद गीता का आठवां अध्याय देख रहे हैं।
तो quick recap करें कि गीता के तीन विभाग हैं और हम उसके बीच वाले विभाग में हैं – अध्याय 7 से 12 तक।
इस विभाग में भक्ति-योग पर ज़ोर दिया गया है।
क्यों ज़ोर दिया गया है?
क्योंकि हमारे ब्रेन में भी एक सिस्टम होता है: reward and punishment.
Reward यानी अगर आप कुछ करेंगे तो क्या लाभ होगा।
Punishment यानी अगर नहीं करेंगे तो क्या हानि होगी।
सातवें अध्याय में भगवान rewards बताते हैं,
आठवें अध्याय में punishment नहीं, पर उससे होने वाले loss पर फोकस है।
इस अध्याय में भी स्मरण पर ही ज़ोर है।
गिता में एक अध्याय से दूसरे अध्याय का ट्रांज़िशन दो तरह से होता है:
- अर्जुन सवाल पूछते हैं।
- कृष्णा अपनी बात को नेचुरल फ्लो में अगले विषय पर ले जाते हैं।
कृष्ण कभी खुद से ‘अतः तृतीय अध्याय’ जैसे नहीं बोलते — यह व्यासदेव द्वारा अध्याय विभाजन है।
कभी-कभी भगवान ऐसी स्टेटमेंट देते हैं जो स्वयं ही सवाल आमंत्रित करती हैं।
उन्हें English में “question-begging statement” कहा जाता है।
जैसे कोई कहे: “मैं तीन बातें बताऊँगा” – और केवल दो ही बताए, तो तीसरी के बारे में सुनने वाले के मन में सवाल उठता है।
सातवें अध्याय के अंत में भगवान कुछ terms इस्तेमाल करते हैं — familiar शब्द लेकिन unfamiliar meanings.
उदाहरण: “You are on the money.” – इसका मतलब होता है “आप सही हैं,” न कि “पैसे पर बैठे हैं।”
अर्जुन उन terms को ठीक उसी क्रम में दोहराते हैं जैसे कृष्ण ने कहे थे।
इससे लगता है जैसे भगवान अर्जुन का attention टेस्ट कर रहे हैं।
भगवान इन terms का बहुत संक्षेप में उत्तर देते हैं, लेकिन जिन terms को ज़रूरी समझते हैं, उन्हें विस्तार से समझाते हैं — जैसे ‘प्राणकाल’।
भगवान जवाब देते हैं: अक्षरं ब्रह्म परमं…
यहाँ ब्रह्म का अर्थ है – अक्षर। दिव्य, स्थायी तत्व।
‘कर्म’ की भगवान एक विशेष परिभाषा दे रहे हैं:
भूतभावोdbhव karo visargah कर्मसंज्ञितः।
अर्थात वह क्रिया जो आत्मा की मनोवृत्तियों और अगले शरीर के निर्माण में सहायक होती है।
इसका implication है: जैसी हमारी वृत्ति, वैसी हमारी स्थिति।
तो कर्म न केवल शरीर, बल्कि मानसिकता को भी उत्पन्न करता है।
आगे भगवान आदि भूत, आदि यज्ञ आदि शब्दों की व्याख्या करते हैं — और अंत में सबको अपने में केंद्रित कर देते हैं।
यह अध्याय technical शब्दों से भरा है, लेकिन उसका केंद्रीय भाव है: स्मरण।
भगवान श्लोक 8.5 में कहते हैं:
“अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥”
इस श्लोक में तीन बातें हैं:
- अंत समय
- भगवान का स्मरण
- कलेवर त्याग
‘भाव’ शब्द का अर्थ भावना से अधिक है — वह प्रकृति या प्राप्त परिस्थिति को दर्शाता है।
भगवान यहाँ सिर्फ सूचना नहीं दे रहे, वह आश्वासन भी दे रहे हैं।
Guidance बुद्धि के लिए है, और Assurance हृदय के लिए।
डॉक्टर सिर्फ दवा न दे, ये भी कहे — “यह ज़रूर काम करेगी” — यही आश्वासन है।
भगवान मार्गदर्शन भी करते हैं और प्रोत्साहन भी देते हैं।
आगे श्लोक 8.6 में भगवान कहते हैं:
“यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥”
यहाँ ‘भाव’ तीन बार आता है — इसका ज़ोर स्मरण पर है।
आजकल का popular शब्द है ‘Manifest’।
2024 का Oxford Word of the Year भी यही था — manifest।
लोग सोचते हैं — सोचो, visualise करो, और वह सच हो जाएगा।
पर गीता कहती है: अंत समय में जो भाव होगा, वही वास्तविकता बन जाएगी।
तो, आप अपने सपनों को कैसे मैनिफेस्ट कर सकते हैं?
कई बार मुझसे पूछा गया कि “क्या भगवद्गीता में मैनिफेस्टेशन (manifestation) का कोई सिद्धांत है?”
अक्सर हम मैनिफेस्टेशन को एक छोटे स्तर पर समझते हैं — मैं कुछ चाहूँगा, प्रार्थना करूंगा, और वह चीज़ हो जाएगी।
लेकिन भगवद्गीता उससे बहुत ऊँचे स्तर की बात करती है — जो आप चाहेंगे, उसी के अनुरूप आपका संपूर्ण जीवन, शरीर और दुनिया ढल जाएगी।
“भाव भावित:” — इसका अर्थ है कि आपकी जो प्रवृत्ति है, वही आपकी अगली वास्तविकता बन जाती है।
आपका जो “disposition” है, यानी आपकी मनोवृत्ति, वही “manifestation” के रूप में प्रकट होती है।
यह मानसिक स्तर पर शुरू होता है, पर अंततः यह शरीर और परिस्थिति के रूप में मूर्त होता है।
एक मित्र अमेरिका की एक कंपनी में काम करते हैं।
वहाँ उनके इंटरव्यू में एक अजीब सवाल पूछा गया:
“अगर आपको जानवर के रूप में पुनर्जन्म लेना हो, तो कौन सा जानवर बनना चाहेंगे?”
अधिकतर लोगों ने कहा: कुत्ता या बिल्ली।
क्योंकि लोग सोचते हैं — कुत्तों का जीवन बहुत आरामदायक होता है, उन्हें चिंता नहीं होती।
लेकिन अगर कोई मनुष्य जीवन भर कुत्तों से इतना आकर्षित और आसक्त हो जाए, तो अगला जन्म उसी रूप में हो सकता है।
भगवान कहते हैं — “सदा तत्भाव भावितः” — व्यक्ति जिस भावना में जीवन भर डूबा होता है, अंत समय में वही भाव उसके अगले शरीर का कारण बनता है।
यह स्मरण केवल “एक बार” का नहीं है। यह एक “नियमित साधना” है।
कुछ लोग सोचते हैं: “मैं जीवन भर भोग करूंगा और अंत में भगवान को याद करूंगा और मुक्त हो जाऊंगा।”
और कुछ तो यह सोचते हैं — मृत्यु से पहले भगवान का नाम लेकर आत्महत्या कर लेंगे और मुक्त हो जाएंगे।
लेकिन क्या ऐसा होगा? नहीं।
क्योंकि भगवान जिस स्मरण की बात कर रहे हैं वह केवल बाहरी नहीं, बल्कि हमारी अंतःप्रवृत्ति से जुड़ा होता है।
हम जिसे जीवन भर सबसे ज़्यादा चाहते हैं, सबसे ज़्यादा याद करते हैं — वही अंत में स्मरण में आता है।
स्मरण भी दो तरह का होता है:
- Factual Remembrance – जानकारी पर आधारित: जैसे पानीपत का युद्ध कब हुआ?
- Personal Remembrance – भावना और संबंध पर आधारित।
भगवान जिस स्मरण की बात कर रहे हैं, वह व्यक्तिगत स्मरण है।
यह स्मरण रिश्ते पर आधारित होता है।
जैसे अगर किसी व्यक्ति का एक्सिडेंट हो गया और वह ICU में है, तो बाहर खड़े परिवारजन को flashbacks आने लगते हैं —
“वह दिन ऐसा था, वह घटना वैसी थी…” — उसमें भावना होती है, केवल तथ्य नहीं।
भगवान कहते हैं: अंत समय का स्मरण वही होता है जो हमारे लिए जीवन भर सबसे मूल्यवान रहा हो।
हम भक्ति में कृष्ण को स्मरण कर रहे हैं — इसका अर्थ है हम उनके लिए लड़ रहे हैं, किसी के विरुद्ध नहीं।
भक्ति के कुछ विरोधी हो सकते हैं — लेकिन हमारा युद्ध “किसके लिए” है, “किसके विरुद्ध” नहीं, यह मुख्य बात है।
भगवान ने अर्जुन को युद्ध का आदेश दिया, लेकिन एक बार भी कौरवों की क्रूरता को याद करने को नहीं कहा।
उन्होंने कभी नहीं कहा: “द्रौपदी की वस्त्रहरण को याद करो और बदला लो।”
बल्कि उन्होंने कहा: “मेरी योजना का स्मरण करो और उसी के अनुसार कार्य करो।”
कुछ समय पहले मैं एक हिंदू सम्मेलन में गया था। वहां एक व्यक्ति ने कहा — “आप ISKCON वाले हिंदू धर्म के लिए कुछ करते नहीं, आप बस भक्ति करते हैं।”
मैंने उन्हें कई उदाहरण दिए, लेकिन पूछा — “आप किस ‘हिंदू कारण’ की बात कर रहे हैं?”
उन्होंने कहा — “मुसलमानों की गतिविधियों को रोकना।”
मैंने जवाब दिया: “हमें कृष्णभावनामृत में रहना है, न कि ‘anti-Muslim consciousness’ में।”
हिंदू धर्म का अर्थ यह नहीं कि हम किसी अन्य समुदाय के विरोध में जिएं।
अगर कोई केवल उस नफरत में ही डूबा रहेगा, तो वह नफरत ही उसका भाव बन जाएगा।
भगवान कहते हैं — “यम यम वापि स्मरन् भावम्” — अंत समय का भाव ही अगली यात्रा तय करता है।
इसलिए हमें देखना है — हम किस भावना को जीवन भर पोषित कर रहे हैं?
वह भावना ही अंततः हमारा स्मरण बनेगी और स्मरण ही हमारा गंतव्य तय करेगा।
एक तरह से देखा जाए तो भगवान की भक्ति जागृत करना आसान नहीं होता, समय लगता है। लेकिन इस भौतिक जगत में अगर किसी के प्रति शत्रुता जगानी हो या नफरत फैलानी हो, तो वह बहुत जल्दी और आसानी से हो जाती है।
राजनीति में एक कहावत है—“The easiest speech is hate speech,” यानी सबसे आसान भाषण वह होता है जो दूसरों के प्रति घृणा को भड़काए। पर भगवान कभी भी ऐसी कोई घृणा आधारित प्रक्रिया को समर्थन नहीं करते।
हमारे जीवन में खतरे होते हैं और उनका सामना करना पड़ता है, पर हमें उन्हें अपनी चेतना का केंद्र नहीं बनाना है। हमारा फोकस कृष्ण-स्मरण पर होना चाहिए।
इस अध्याय (अध्याय 8) में जो मुख्य विषय है, वह है—कैसे मन को भगवान में लगाया जाए।
भगवान स्वयं कहते हैं कि मृत्यु के समय स्मरण कितना ज़रूरी है (8.27) और इसलिए वह आग्रह करते हैं कि हम जीवनभर स्मरण का अभ्यास करें।
अध्याय 8 के श्लोक 2 से 14 तक में भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि भक्ति-योग करना ध्यान-योग से सरल है।
भगवद गीता में केवल एक ही स्थान है जहाँ भगवान विशेष रूप से कहते हैं कि “यह आसान है”—वह है श्लोक 8.14, जहाँ ‘सुलभः’ शब्द आता है।
यहाँ आचार्यगण बताते हैं कि भक्ति-योग बहुत आसानी से सिद्ध किया जा सकता है, जबकि ध्यान-योग के लिए कठोर तपस्या और ब्रह्मचर्य की आवश्यकता होती है।
मैंने एक बार किसी भक्त से पूछा था कि ‘सुलभः’ शब्द कहाँ सुना है?
वह बोले—“सुलभ शौचालय!”
यह एक हँसी की बात थी, लेकिन इसका गहरा अर्थ यह है कि कुछ शब्द परिस्थिति से इतने जुड़ जाते हैं कि उनका अर्थ संकुचित हो जाता है।
पर यहाँ ‘सुलभः’ का अर्थ है—‘ईज़िली अटेनेबल’, यानी सहजता से प्राप्त होने योग्य।
भगवान छठे अध्याय में अर्जुन को जवाब देते हुए कहते हैं कि ध्यान-योग कठिन है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से संभव है।
अर्जुन के दो मुख्य संशय थे—(1) यह साधना बहुत कठिन है (2) इसमें बहुत समय लगेगा।
इन दोनों का उत्तर भगवान क्रमशः श्लोक 8.14 (सुलभः) और अध्याय 12 के श्लोक 6–7 में देते हैं—जहाँ वह कहते हैं कि भक्ति करने वालों को मैं जल्दी मुक्ति देता हूँ। (न चिरात)
भगवान पहले अर्जुन की बात को स्वीकार करते हैं और फिर समाधान देते हैं।
जैसे एक डॉक्टर कोई मुश्किल ट्रीटमेंट बता दे और फिर कहे, “अगर यह कठिन लगता है, तो मैं एक आसान विकल्प भी देता हूँ।”
ठीक वैसे ही भगवान ध्यान-योग की जगह भक्ति-योग का सरल विकल्प देते हैं।
भगवद गीता के सातवें अध्याय में भक्ति-योग का आरंभिक परिचय आता है, और आठवें अध्याय में उसकी ध्यान-योग से तुलना करते हुए भक्ति की महिमा बताई जाती है।
ध्यान-योग के लिए कठिन तप, ब्रह्मचर्य, जंगल वास, वेदों का अध्ययन आवश्यक है।
पर भक्ति के लिए यह सब अनिवार्य नहीं है।
भक्ति सभी के लिए संभव है—गृहस्थों के लिए भी।
सन्यास भक्ति के लिए अनुकूल है, लेकिन आवश्यक नहीं।
आजकल लोग जो योग करते हैं, वह अक्सर स्व-प्रसन्नता या आकर्षण के लिए होता है, न कि आत्म-साक्षात्कार के लिए।
आधुनिक योग का उद्देश्य है self-attraction, न कि self-realization.
यह भले ही स्वास्थ्यवर्धक हो, परंतु यह प्राचीन योग से भिन्न है, जो आत्मिक उन्नति और ब्रह्म-प्राप्ति के लिए किया जाता था।
ऋषिकेश की एक योगशाला में जब मैंने एक योग शिक्षक से पूछा कि ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ है, तो उन्होंने उत्तर दिया—“Don’t do non-consensual sex.”
यह उत्तर क्रीएटिव तो था पर शास्त्र-सम्मत नहीं था।
शास्त्रों में ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल जबरदस्ती न करना नहीं है, बल्कि इंद्रियों को संयम में रखना है।
आज के समय में जो योग किया जा रहा है, वह भक्ति के मार्ग से अलग दिशा में जा रहा है।
इसीलिए भगवान कहते हैं कि भक्ति का मार्ग सरल भी है और स्थायी भी।
इसके बाद भगवान कर्मकांड और भक्ति की तुलना करते हैं।
कर्मकांड से स्वर्ग मिलता है, लेकिन फिर पुनर्जन्म भी निश्चित होता है।
भक्ति से जो फल मिलता है, वह शाश्वत होता है।
भगवान ब्रह्मा के जीवन चक्र की बात करते हैं—दिन, रात, प्रलय, आदि—यह सब बताने का उद्देश्य यह है कि इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है।
जब भगवान कहते हैं कि यह संसार दुखालय है, तो वह निराशावादी नहीं हैं, बल्कि यथार्थवादी हैं।
किसी मित्र को अगर आप कहें—“The world is full of suffering,” तो वह बोलेगा—”कितने निराशावादी हो!”
पर अगर कहें—“Life is tough,” तो वह बोलेगा—”बिलकुल सही बात है।”
तो सन्देश वही है—पर प्रस्तुतिकरण से अर्थ की अनुभूति बदल जाती है।
अधिकांश लोग मानते ही नहीं कि इस जगत के परे भी कोई और जगत है, इसलिए जब कहा जाता है कि “यह जगत दुखमय है,” तो उन्हें कोई आशा नहीं दिखती।
लेकिन भक्ति में यह आशा है—यह जीवन ही नहीं, अगला जीवन भी सुंदर हो सकता है।
अंत में यह चार विश्व-दृष्टिकोण (worldviews) के रूप में समझा जा सकता है:
- यह जगत ही सत्य है, और दूसरा जगत कुछ नहीं है — भौतिकवाद
- दोनों ही मोह हैं — निर्विशेषवाद (Impersnalism)
- केवल परलोक सत्य है, यह जगत नहीं — कुछ मतों में ऐसा माना गया
- यह जगत भी सत्य है, और परलोक भी सत्य है — भगवद गीता का दृष्टिकोण
तो अभी जब भगवान बोलते हैं कि आपको भक्ति करनी है, तो वह कहते हैं — वीतराग-भय-क्रोध। इसका अर्थ है कि अगर यह जगत ही सत्य है, तो हम उसमें सुख ढूंढने लगते हैं — यह चाहिए, वह चाहिए, यानी worldview of desire जाग उठता है।
लेकिन अगर कोई कहे कि यह जगत भी सत्य नहीं है, दूसरा जगत भी सत्य नहीं है, तो वहाँ से एक प्रकार का क्रोध (निरर्थकता से उपजा आंतरिक विद्रोह) जागता है — जीवन का अर्थ ही क्या है?
यह क्रोध, केवल anger नहीं है, बल्कि एक गहरी निराशा है — despair। जैसे एक तत्वज्ञानी अल्बर्टो कामू ने कहा था, “The only real philosophical question is whether to commit suicide today or tomorrow.” — जीवन व्यर्थ है, और उसमें कोई आशा नहीं है।
अब चार तरह के worldviews माने जा सकते हैं:
- यह जगत सत्य है, दूसरा नहीं — materialism (भौतिकवाद)
- यह जगत सत्य नहीं, दूसरा ही सत्य — impersonalism (निर्विशेषवाद)
- यह दोनों जगत असत्य — nihilism (नैहिलिज़्म)
- दोनों जगत सत्य हैं — Bhagavad Gita’s worldview
नैहिलिज़्म सबसे ख़तरनाक है — वहाँ जीवन का कोई अर्थ नहीं माना जाता। निर्विशेषवाद में इस जगत से भय उत्पन्न होता है — अरे! यह सब मोह है, बंधन है। इसी trade और डर की भावना ने भारत में medieval समय में भक्ति को प्रभावित किया — अद्वैतवाद के प्रभाव से कुछ भक्तिभाव वाले भी इस जगत को नकारने लगे।
पर भगवान इस जगत को इतना महत्वपूर्ण मानते हैं कि वे स्वयं इसमें अवतार लेते हैं।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे — “मैं बार-बार आता हूँ।”
तो भक्ति का दृष्टिकोण यह है कि यह जगत भी सत्य है और दूसरा जगत भी सत्य है।
हम इस जगत में सकारात्मक कर्म करते हुए, उस शाश्वत धाम की ओर अग्रसर होते हैं।
जब भगवान अर्जुन से कहते हैं “यह जगत दुखालय है”, तो उसका अर्थ यह नहीं कि “अर्जुन, तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है, बस स्वीकार कर लो”।
नहीं! भगवान कहते हैं — दुख हैं, पर कुछ दुख अटल हैं (जैसे मृत्यु), और कुछ दुख बदले जा सकते हैं (जैसे अधर्म का शासन)।
B.O.D.D (Birth, Old Age, Disease, Death) — ये अटल हैं, पर त्रिविध ताप (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) को हम कर्म करके कुछ हद तक बदल सकते हैं।
इसलिए भगवान अर्जुन को युद्ध करने को कहते हैं — अन्याय को स्वीकार मत करो।
यह जगत दुखालय है, पर इसका अर्थ निराशावाद नहीं है।
भगवान कहते हैं — इस जगत में भी हमें जिम्मेदारी से कार्य करना चाहिए।
फिर अध्याय के अंत में आता है आखिरी सेक्शन — 23 से 30 तक — इसमें आता है:
Less dependence on uncontrollables — यानी अन्य मार्गों (जैसे कर्मकांड या ध्यान योग) में मुक्ति का मार्ग मृत्यु के समय के शुभ-अशुभ काल पर निर्भर होता है।
भगवद गीता 8.27–28 में भगवान कहते हैं —
“न ही अर्जुन, तुम इन सब मार्गों से मोहित हो। अगर तुम मेरा स्मरण करते हो, तो तुम किसी भी समय मर जाओ — तुम्हारा कल्याण निश्चित है।”
“सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च” — यही भक्ति का मार्ग है।
अंतिम श्लोकों में भगवान कहते हैं —
“यत पुण्यफलम प्राप्य…”
— जितना पुण्य यज्ञ, दान, तप आदि से मिलता है, उससे कहीं अधिक फल भक्ति से मिलेगा।
और भक्ति के साथ-साथ परम स्थान भी मिलेगा।
सारांश में चार प्रमुख बिंदु:
- अर्जुन के प्रश्न दिखाते हैं कि वे attentive हैं।
और भगवान के उत्तर focus करते हैं — remembrance at time of death। - इस अध्याय का मुख्य विषय है: Remembrance of Krishna
— पिछले अध्याय में attachment बताया गया, इस अध्याय में remembrance।
Remembrance को deepen करने के लिए चार सेक्शन हैं:
- 1–4: Question-answer
- 5–14: Bhakti vs. Dhyana Yoga
- 15–22: Lasting result — Permanent benefit
- 23–30: Safety at death — बिना uncontrollables पर निर्भर हुए
- 1–4: Question-answer
- Remembrance कैसा होना चाहिए?
- Regular
- Personal
- Based on what we value most and where we take emotional shelter
- Regular
- Worldview:
- अगर केवल यह जगत सत्य — तो desire (राग)
- अगर कोई भी सत्य नहीं — तो despair (क्रोध)
- अगर केवल परलोक सत्य — तो fear (भय)
- लेकिन अगर दोनों सत्य हैं — तो balanced devotion (भक्ति) संभव है।
- अगर केवल यह जगत सत्य — तो desire (राग)
अंत में, हम भगवान से प्रार्थना कर सकते हैं कि वह हमें ऐसी श्रद्धा दें कि हम उनकी याद में एकाग्र हो जाएँ — यह समझते हुए कि इस जगत की हर वस्तु अस्थाई है, और केवल भगवान ही शाश्वत शरण हैं।
धन्यवाद। हरे कृष्णा।
बोलिए। हरे कृष्णा।
बहुत-बहुत धन्यवाद! आपने बहुत सुंदर तरीके से समझाया।
तो यह जो भक्ति योग है, वह ध्यान योग से श्रेष्ठ है — यह बात भगवद गीता के अध्याय 8, श्लोक 8 से 14 तक में आती है।
पर इसमें ध्यान देना ज़रूरी है कि श्लोक 8 से 13 तक मुख्यतः ध्यान योग की प्रक्रिया बताई गई है, जबकि श्लोक 14 में भक्ति योग का वर्णन होता है।
जब भगवान किसी अन्य साधना-पद्धति का वर्णन करते हैं, तो वे स्वयं के लिए “मैं” की बजाय तीसरे पुरुष (third person) में बात करते हैं — क्योंकि ध्यान योगी जब तक समाधि में न पहुंचे, तब तक उन्हें यह स्पष्ट नहीं होता कि परम सत्य कौन है।
इसलिए भगवान वहाँ कहते हैं:
“कविं पुराणमनुशासितारम…”
— वे स्वयं की बजाय, परम सत्य का लक्षण बताते हैं।
परम सत्य ध्यानयोगी को स्पष्ट नहीं होता — वह ब्रह्म हो सकता है, विष्णु हो सकता है, कोई निराकार सत्ता भी हो सकती है।
केवल जब सिद्धि की अवस्था आती है, तब वह समझते हैं कि परम सत्य वास्तव में भगवान हैं।
इसलिए जब भगवान ध्यान योगियों का मार्ग बता रहे हैं, तो वे “माम्” (मुझे) नहीं कहते, बल्कि “ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म” आदि कहकर संकेत करते हैं।
केवल पूर्णता के समय वह भगवान को समझ पाते हैं।
जिव गोस्वामी बताते हैं कि जब किसी अन्य साधना से साधक व्यक्तिगत परमात्मा को समझता है, तब भी दो संभावनाएँ रहती हैं:
- उसे भगवान का सेवक बनना है — यह भक्तिभाव है।
- या उसमें एकाकार होना है — यह अद्वैत भाव है।
इसलिए, चाहे वे भगवान का स्मरण करें, पर वह स्मरण किस उद्देश्य से है, यह उनकी साधना और मानसिकता पर निर्भर करता है।
हर कोई जो भगवान का स्मरण करता है, जरूरी नहीं कि भगवान तक ही पहुँचे।
कई लोग भक्ति को साधना मानते हैं, पर ब्रह्म को साध्य — यानी उद्देश्य मानते हैं।
पर हम लोग, जब पानी का स्वाद देखते हैं और कहते हैं “यह कृष्ण हैं”, तो हम केवल स्मरण नहीं करते, हम भगवान को धन्यवाद भी देते हैं।
यह भाव केवल भक्ति में संभव है, ध्यान योग में नहीं।
हमें हर चीज़ में डरने की ज़रूरत नहीं है — जैसा भी हम भगवान का स्मरण कर सकते हैं, वैसा करें।
हमारा सम्पूर्ण worldview personalist है — हम भगवान को व्यक्ति के रूप में मानते हैं।
एक यूरोपीय भक्त का अनुभव था — वे बोले, “मुझे लगता है मेरे अंदर का पूर्व का मायावादी भाव फिर से जाग रहा है।”
पूछा क्यों?
तो उन्होंने बताया — “भक्तों से झगड़ा हो गया, एक प्रोजेक्ट में बहुत सेवा की, पर छोड़ना पड़ा। अब हिमालय में रहकर प्रकृति की शांति में बहुत सुख मिल रहा है — जो भक्तों के संग में भी नहीं मिला।”
मैंने उनसे कहा:
“The peace of nature is not the monopoly of the impersonalist.”
— प्रकृति से मिलने वाली शांति केवल निर्विशेषवादियों की बपौती नहीं है।
भागवत में शुकदेव गोस्वामी ने भी वृंदावन की निसर्ग की महिमा बताई है — वहां के वृक्ष, लताएं, पशु-पक्षी आदि — भक्ति में भी प्रकृति को सकारात्मक रूप से देखा जाता है।
अगर कोई व्यक्ति रजोगुण या तमोगुण में है, तो सत्त्वगुण की दिशा में बढ़ना भी अच्छा है।
मैंने उनसे पूछा — “क्या तुम्हारे भीतर ब्रह्म में लीन होने की इच्छा जागी है?”
बोले — “नहीं, वैसी कोई भावना नहीं है।”
तो फिर यह प्राकृतिक शांति भी भक्ति के अनुकूल है — उसे स्वीकार किया जा सकता है।
हम कुछ practices स्वीकार कर सकते हैं, पर उनका ultimate purpose नहीं।
जैसे — कोई भक्त स्वास्थ्य के लिए प्राणायाम करता है, तो वह उसकी साधना का हिस्सा नहीं, बल्कि साधक की सहायक क्रिया है।
इसलिए कोई भी प्रक्रिया को अपनाना गलत नहीं, जब तक कि हमारा उद्देश्य भगवान की सेवा है।
Thank you. Yes please.
Thank you प्रभु जी for the class.
अभी जैसे हम दुख की चर्चा कर रहे थे, आपने बताया कि यह विषय नवें अध्याय में और अधिक विस्तार से आएगा। लेकिन उसी संदर्भ में मेरा एक प्रश्न है।
व्यक्तिगत जीवन में जब किसी को दुख होता है या जब कोई व्यापक जनसमूह किसी आपदा से प्रभावित होता है, तो हमारा सामान्य दृष्टिकोण यह होता है कि यह “कार्मिक परिणाम” (karmic consequence) है।
परंतु अभी हाल ही में जैसे Los Angeles में भीषण forest fire हुआ, जिसमें लाखों लोग प्रभावित हुए, या कुछ समय पहले South Korean plane crash हुआ जिसमें सैकड़ों की मृत्यु हुई — ऐसे घटनाओं के संदर्भ में क्या भगवद गीता का केवल एक ही दृष्टिकोण है कि “यह उनका कर्म है”, या फिर गीता में इन परिस्थितियों के लिए कोई holistic (समग्र) दृष्टिकोण भी है?
मैं स्वयं Palesoids नामक उस क्षेत्र में गया हूँ जहाँ यह forest fire हुआ। वहाँ मैंने lectures भी दिए थे। वह क्षेत्र opulent जरूर है, पर एक शांत और relatively सात्विक इलाका लगा।
तो सबसे पहले, किसी के भी जीवन में जब दुख आता है, एक भक्त का पहला भाव होना चाहिए – करुणा (compassion)।
एक भक्त ने मुझे बताया कि उन्हें वहां से evacuate किया गया, लेकिन यह तक नहीं पता कि उनका घर अब भी है या जल गया है। संपूर्ण communication breakdown हो गया है। यह बहुत ही कठिन स्थिति है।
इसलिए सबसे पहले, हमारा दृष्टिकोण “सहानुभूति और सहायता” का होना चाहिए, न कि कारण खोजने का। कारण बाद में देखा जा सकता है। Our focus should be more on solutions than explanations.
यदि कोई विपत्ति हो जाती है, और हम तुरंत कह देते हैं कि “यह उनका कर्म है”, तो हम बहुत heartless और headless लगते हैं — न करुणा दिखती है, न बुद्धि।
श्रीमद्भागवतम के पहले स्कंध में, जब परीक्षित महाराज धर्म से पूछते हैं, “तुम्हारे दुख का कारण क्या है?” — तो धर्म कहता है:
“वाक्यभेद विमोहिता” – अनेक मत हैं, मैं भ्रमित हूँ।
और परीक्षित महाराज उसे मूर्ख नहीं कहते, बल्कि “बधाई” (Congratulations) देते हैं कि तुम किसी को दोष नहीं दे रहे हो।
भगवद गीता भी कहती है: दुख का कारण और समाधान – दोनों देखने योग्य हैं। परंतु जब स्पष्ट दृश्य कारण मौजूद हो, तो तुरंत अदृश्य कारण (कर्म) को ले आना बुद्धिमानी नहीं है।
उदाहरण: California की यह जगह वैसे ही एक सूखा और गर्म क्षेत्र है, जो पहले भी forest fires के लिए संवेदनशील रही है।
इस बार जो हुआ वह केवल प्रकृति की लीला नहीं, बल्कि सरकारी लापरवाही (negligence) भी थी। मेरे एक मित्र के अनुसार, वहाँ fire fighters को बिल्कुल आवश्यक संसाधन नहीं मिले — hydrants काम नहीं कर रहे थे, पानी नहीं था।
शास्त्रों में कहा गया है:
पहले दृश्य कारण देखो, फिर अदृश्य की ओर जाओ।
जैसे – यदि AC की हवा से ठंड लग रही है, तो पहले AC बंद करो, न कि पिछले जन्म के कर्म की चिंता करो।
इसी तरह, सीता हरण के समय अगर कोई केवल “यह उनके कर्म का फल था” कहे, और रावण का प्रतिकार न करे, तो वह मूर्खता होगी।
अतः जब दृश्य कारण स्पष्ट हो, जैसे:
- खराब तैयारी,
- fire safety में negligence,
- साफ-सफाई की कमी (पेड़ के पत्ते नहीं हटाना),
- inadequate infrastructure –
तो हमें पहले उसे सुधारना चाहिए।
कुछ लोग कह सकते हैं कि वह क्षेत्र godless है, immoral है, पर यह judgmental व्याख्या करना हमें शोभा नहीं देता।
उनका भी जीवन है, परिवार है। अगर ऐसा भारत में हो जाए, और कोई कहे “यह तुम्हारा कर्म था”, तो हमें कैसा लगेगा?
“Karma explanation” is not always the most urgent need.
हाँ, अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्राकृतिक जोखिम होते हैं — जैसे Japan में earthquake zone, coastal India में cyclones.
लेकिन भगवान ने हमें बुद्धि दी है, जिससे हम उन जोखिमों के अनुसार तैयारी करें। अगर हम तैयार नहीं हैं, तो हम दोषी हैं।
आज अमेरिका में कुछ लोगों का मानना है कि वहां की “diversity quota policies” के कारण ज़िम्मेदार पदों पर सही व्यक्ति नहीं आते — जैसे fire chief का चयन केवल diversity के आधार पर होना चाहिए या दक्षता के आधार पर?
Efficiency matters more than ideological balance in crisis management.
गीता कहती है:
“लोकसंग्रहार्थ कार्यं कर्म समाचर”
“समाज की स्थिरता हेतु, हर व्यक्ति को अपनी ज़िम्मेदारी से कर्म करना चाहिए।”
अगर कोई व्यक्ति जिम्मेदार पद पर होकर गैर-जिम्मेदार बन जाए, तो उसे उत्तरदायी ठहराना ज़रूरी है, ताकि भविष्य में ऐसी आपदाएँ टल सकें।
हमारी प्रार्थना है कि पीड़ितों को जल्द राहत मिले, और समाज, प्रशासन, और व्यक्ति — सभी भविष्य में और जागरूक बनें।
श्रीमद्भगवद्गीता की जय।
श्रील प्रभुपाद की जय।
गौर भक्त वृंद की जय।
हरे कृष्ण।