Hindi-How Krishna cares for devotees / Bhishma pastime analysts
ओम
नमो भगवते वासुदेवाय।
ओम नमो भगवते वासुदेवाय, ओम नमो भगवते वासुदेवाय।
गंतराष्ट्र मृग भागोतम् स्कन्द
एक श्लोक, नौ श्लोक, नौ श्लोक… श्लोक 38 — क्या हम शब्दों का उच्चारण करते हैं?
नाम लिया… हम क्या करते हैं?
ठीक है, हम पाठ करते हैं।
शीत
विषीहीखतो विषीरणदं शाह।
शतज परिपलता आतताई नौ में।
मुकुंदः।
शत्ज अपरिपलता आतताईनों में।
प्रसवं अभिसारमत्वदार्थम्।
विषिक ROs हतः — बाणों से घायल।
विशिर नवम शाह — बिखरे कवच वाला।
शतजः by wounds — परिप्लुतः, खून से सना।
आतताई — महान आक्रामक।
मे — मेरे।
प्रसवम् — क्रुद्ध अवस्था में।
मद वध अर्थम् — मुझे मारने के उद्देश्य से।
सहः भवतु — हो सकता है…
me — मेरा।
भगवन् — भगवान।
गतिः — गंतव्य।
मुकुंदः — जो मोक्ष देते हैं।
38
मुझे हिंदी में बोलना चाहिए और क्लास भी हिंदी में करना है, है न?
इस प्रकार से है।
जो मोक्ष के दाता हैं, वे भगवान श्रीकृष्ण मेरी परम गति हों।
युद्ध क्षेत्र में मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध होकर उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया।
उनका कवच तितर-बितर हो गया और उनका शरीर खून से लथपथ हो गया था।
Read the purport also?
हमें क्या करना चाहिए, जो सामान्यतः हम करते हैं?
We do, we read — but it’s a long purport.
ठीक है, वहां पहला पैराग्राफ आप पढ़ सकते हैं।
First paragraph read?
पर वहाँ तो एक ही paragraph है।
मैं एक पैराग्राफ पढ़ूंगी।
पहले 4–5 वाक्य — “astronomy feature” तक पढ़ सकती हूँ।
Ok ok.
Of an enemy.
यह श्लोक पहले स्कन्द के नववें अध्याय का अड़तीसवां श्लोक है।
तात्पर्य में प्रभुपाद लिखते हैं — कुरुक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में भगवान कृष्ण तथा भीष्मदेव के आपसी व्यवहार अत्यंत रोचक हैं।
क्योंकि श्रीकृष्ण के कार्यकलाप अर्जुन के प्रति पक्षपातपूर्ण और भीष्म के प्रति शत्रुतापूर्ण लग रहे थे।
लेकिन वास्तव में यह सब कुछ महान भक्त भीष्मदेव के प्रति विशेष अनुग्रह दिखाने के लिए था।
ऐसे आचरणों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि भक्त शत्रु का अभिनय करके भगवान को प्रसन्न कर सकता है।
हौम
ज्ञानांध तमस से भरपूर नेत्रों में ज्ञान का अंजन लगाने वाले श्री गुरु को मेरा नमन।
“ज्ञानंति मिरंदस्य ज्ञानांजनः शलाका।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।”
नमः ओं विष्णुपदाय कृष्णप्रेष्ठाय भूतले।
श्रीमते भक्तिवेदान्त स्वामिन इति नामिने।
नमस्ते सरस्वती देवि गौरवाणी प्रचारिणि।
निर्विशेष शून्यवादी पाश्चात्य देश तारिणि।
वांछितकल्पतरुभ्यश्च कृपा सिंधुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।
जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद
श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्त वृंद।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
Wipro हम सबको मार्गदर्शन कीजिए ताकि हम आपके वचनों को समझ सकें और उन्हें अपने जीवन में लागू कर सकें।
हरे कृष्णा, I am grateful.
कृतज्ञ हूं कि आज आप सबके बीच में आने का अवसर मिला।
आज हम श्रीमद्भागवतम के पहले प्रमुख नाटकीय प्रसंग पर चर्चा कर रहे हैं।
मैं यहाँ पर कुछ लिखकर समझाऊंगा।
जब भी मैं किसी एक श्लोक पर क्लास देता हूँ, तो मैं एक framework use करता हूँ — इसे इंग्लिश में कहते हैं “CIT”।
“CIT” का अर्थ है हमारी चेतना को व्यवस्थित रूप में समझाना।
- C — Context: यहां क्या चल रहा है?
- I — Implication: इसका क्या अर्थ है?
- T — Takeaway: हमारे लिए इससे क्या शिक्षा है?
तीन बिंदुओं पर हम चर्चा करेंगे आज।
तो अभी यहां पर क्या चल रहा है?
भागवतम में कुल कितने अध्याय हैं, किसी को पता है?
हाँ, धन्यवाद। 335 अध्याय हैं।
कितने स्कन्ध हैं? — 12 स्कन्ध हैं।
पहला स्कन्ध चल रहा है।
पहले स्कन्ध में कितने अध्याय हैं? — उन्नीस अध्याय हैं।
जब भी कोई movie आती है, तो उसका trailer पहले आता है — कभी-कभी एक साल पहले, छह महीने पहले।
फिर असली movie आती है।
वैसे ही, पहले स्कन्ध में Chapter 7 से Chapter 15 तक दशम स्कन्ध का trailer है।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण की लीला की एक झलक मिलती है।
हालाँकि कृष्ण का उल्लेख हर स्कन्ध में होता है, लेकिन प्रमुख रूप से वह दशम स्कन्ध में आता है।
दशम स्कन्ध में कृष्ण लीला है,
ग्यारहवें स्कन्ध में कृष्ण शिक्षा — “उद्धव गीता” है।
यहाँ हमें कृष्ण लीला की एक झलक दी जा रही है।
तीसरे स्कन्ध में भी आता है — तीसरे अध्याय के प्रारंभ में।
जब उद्धव और विदुर मिलते हैं, वहाँ भी कृष्ण लीला का स्मरण होता है।
लेकिन यह पहली झलक यहाँ मिल रही है।
भागवतम का actual भाष्य (संपूर्ण प्रस्तुति) दूसरा स्कन्ध से शुरू होता है।
दूसरे स्कन्ध की शुरुआत में पहला वचन सुखदेव गोस्वामी बोलते हैं।
तो फिर पहला स्कन्ध क्यों है?
पहला स्कन्ध एक तरह से “buildup” है — जैसे कोई बड़ी movie आने वाली हो तो उसके पहले excitement और setup किया जाता है।
तो यहाँ क्या हो रहा है?
भागवतम में पहले स्कन्ध में जिन दो व्यक्तियों के बीच संवाद होना है —
सुखदेव गोस्वामी और परीक्षित महाराज,
उनकी महिमा का वर्णन किया गया है।
सुखदेव गोस्वामी की महिमा बहुत संक्षेप में सातवें अध्याय के पहले कुछ श्लोकों में बताई जाती है।
कैसे व्यासदेव से भी अधिक वैराग्य उनके पास था।
उन्होंने सारे शास्त्रों का अध्ययन किया, फिर भागवतम की रचना की,
और उस भागवतम को सुनकर सुखदेव गोस्वामी इतने विरक्त हो गए कि माँ के गर्भ से बाहर ही नहीं आना चाहते थे।
जब बाहर आए, तो तुरंत सन्यास ले लिया, और फिर वापस अपने पिता से भागवत श्रवण के लिए आए।
भागवतम के वक्ता की महिमा का वर्णन यहाँ है।
परंतु पारंपरिक साधुओं का जीवन आम लोगों के लिए बहुत आकर्षक नहीं लगता —
सुबह उठना, पूजा, साधना…
आज के समय के साधु — जैसे विप्रो प्रभुजी या राधानाथ महाराज —
उनका जीवन थोड़ा अलग और adventurous होता है।
आज की दुनिया में, अगर कोई साधु अपनी autobiography लिखता है और कोई movie star या politician अपनी biography लिखता है —
तो आम जनता किसकी किताब पहले पढ़ेगी?
तो आम लोगों की अधिक रुचि वहीं होती है जो उनके लिए रोचक होता है।
अब यहाँ, शेष पूरे खंड में परीक्षित महाराज की महिमा का वर्णन किया जा रहा है, और उनकी महिमा को समझाने के लिए उनके पूर्वजों की महिमा का उल्लेख किया गया है — यह दिखाने के लिए कि वे कितने महान कुल में उत्पन्न हुए थे।
फिर यह बताने के लिए कि उनके साथ जो घटित हुआ — एक छोटी-सी गलती के लिए उन्हें इतना बड़ा श्राप मिला — वह कोई आकस्मिक या सामान्य घटना नहीं थी। यह कोई “random” चीज़ नहीं थी, बल्कि वे एक महान आत्मा थे। इसलिए यदि उनके साथ कोई दुर्घटना या दुर्भाग्य हुआ भी, तो वह केवल एक साधारण दुर्घटना नहीं है। उस घटना को समझाने के लिए संदर्भ दिया जा रहा है।
भागवतम की कथा एक तरह से महाभारत के अंत से प्रारंभ होती है।
महाभारत के अंत में सातवां अध्याय है — “The Son of Drona Punished”। यह शीर्षक भी अपने आप में रोचक है — वहाँ “Ashwatthama punished” नहीं लिखा गया है, बल्कि “The son of Drona punished” कहा गया है।
क्यों?
क्योंकि वैदिक संस्कृति में किसी व्यक्ति की पहचान केवल उसके कर्म से नहीं, बल्कि उसके वंश और कुल से भी होती है — वह कौन है, किस कुल से आया है। द्रोणाचार्य के पुत्र से ऐसे घृणित कार्य की अपेक्षा नहीं थी। और फिर द्रोणाचार्य पांडवों के गुरु थे — इसलिए अश्वत्थामा को दंड देना बहुत कठिन और विचारणीय था।
तो, महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका है, और वहीं से भागवतम कथा को आगे उठाया गया है।
यहाँ कथा की शुरुआत ऐसे होती है जैसे भगवद गीता की शुरुआत अर्जुन और कृष्ण के संवाद से होती है।
इसी तरह, अश्वत्थामा को दंड दिए जाने के बाद, कुंती महारानी की प्रार्थना का प्रसंग आता है।
कुंती प्रार्थना करती हैं, भगवान रुकते हैं, और तब तक युधिष्ठिर महाराज अपनी भावनाओं को रोक कर रखे होते हैं। पर जब कृष्ण रुक जाते हैं, तब वे टूट जाते हैं और कहते हैं — “मैं राज्य नहीं करना चाहता, मैं युद्ध नहीं करना चाहता।”
फिर उन्हें उपदेश देने के लिए वे सब भीष्म पितामह के पास जाते हैं।
महाभारत में कुल अठारह पर्व होते हैं और अठारह दिन का युद्ध होता है।
उसमें ग्यारहवां पर्व है — शांति पर्व, और बारहवां — अनुशासन पर्व।
इन दोनों पर्वों का अधिकांश भाग भीष्म और युधिष्ठिर के संवाद पर केंद्रित है।
ये पर्व इतने विस्तार से हैं कि अकेले ये दोनों पर्व पूरी महाभारत के अन्य भागों से बड़े हैं।
भागवतम में इन्हीं संवादों को बहुत संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है क्योंकि भागवत का उद्देश्य “राजधर्म” नहीं, बल्कि “अंतकाल में नारायण का स्मरण” है — “अंतकाले नारायणस्मृति:”।
इसलिए यहाँ इन पर्वों का विस्तार नहीं किया गया।
अब मान लीजिए दो भक्त रथयात्रा से लौटते हैं — एक कथा में रुचि रखता है, दूसरा कीर्तन में।
जब उनसे पूछा जाएगा यात्रा कैसी रही, तो दोनों अलग बातें बताएँगे — एक कथा के अनुभव बताएगा, दूसरा कीर्तन के।
इसी तरह — वही प्रसंग (भीष्म-युधिष्ठिर संवाद) महाभारत और भागवतम दोनों में है, लेकिन दोनों में दृष्टिकोण अलग है।
महाभारत में यह “राजधर्म” की दृष्टि से बताया गया है, जबकि भागवतम में वही संवाद “भागवत धर्म” की दृष्टि से है।
इसलिए जहाँ महाभारत में इस पर हजारों श्लोक हैं, वहीं भागवतम में इसे केवल चार-पाँच श्लोकों में समेट दिया गया है।
इसके बाद हम पहुंचते हैं भीष्म की अंतिम प्रार्थनाओं तक — श्लोक 32 से 42 तक।
इन अंतिम श्लोकों में भीष्म पितामह की final prayers हैं, और ये भागवतम के मुख्य विषय — “अंतकाल में भगवान का स्मरण” — को प्रतिध्वनित करती हैं।
इससे पहले कुंती महारानी की प्रार्थना आई थी।
कुंती के लिए मृत्यु प्रत्यक्ष नहीं आई, परन्तु उनके वंश के लिए (परीक्षित के रूप में) वह आई।
भागवतम के पहले स्कंध के आठवें और नौवें अध्यायों में यह स्पष्ट होता है।
यहाँ तीन प्रमुख प्रार्थनाएँ मिलती हैं:
- उत्तरा की प्रार्थना — बहुत संक्षिप्त, जहां वह कहती हैं:
“हे महाभाग कृष्ण! मेरी संतान की रक्षा कीजिए।” - इसके बाद कुंती की प्रार्थना — विस्तृत रूप में।
- और अब भीष्म की प्रार्थनाएँ।
उत्तरा की प्रार्थना का परिणाम क्या होता है?
भगवान परीक्षित की रक्षा करते हैं — मृत्यु हो चुकी थी, फिर भी उन्हें नया जीवन मिलता है।
यह दर्शाता है कि परीक्षित कितने विशेष हैं।
कुंती की प्रार्थना — क्या वह सफल होती है?
प्रभुपाद लिखते हैं — कुंती की प्रार्थना का परिणाम “potential success” है।
भगवान मुस्कुराते हैं — वह हाँ भी नहीं कहते, ना भी नहीं कहते।
कुंती की प्रार्थना केवल इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं है, वह इच्छा का विकास भी है।
शुरुआत में वे कहती हैं — “हे कृष्ण! आप हमारे साथ रहें, चाहे विपत्तियाँ ही क्यों न आएं।”
पर अंत में वे यह भी सोचती हैं कि — “अगर आप हमारे साथ रहेंगे, तो द्वारका वासी आपसे वंचित रहेंगे।”
फिर वे प्रार्थना करती हैं — “हे कृष्ण! मेरी आसक्तियाँ समाप्त कर दो, मेरी चेतना केवल आपकी ओर चली जाए।”
इसलिए अंत में वह कोई “request” नहीं करतीं, केवल भगवान को साक्षात प्रणाम करती हैं।
प्रार्थना क्या करती है?
कभी परिस्थिति बदलती है, कभी मनःस्थिति।
भीष्म पितामह की प्रार्थनाओं में कोई परिस्थिति बदलने की याचना नहीं है।
वे मृत्यु शैया पर हैं, पर न तो मृत्यु टालने की प्रार्थना करते हैं, न पीड़ा कम करने की।
उनका एकमात्र उद्देश्य है — “मैं अपने अंत समय में भगवान श्रीकृष्ण में पूर्ण रूप से एकाग्र रहूं।”
मान लीजिए, फिल्म में कोई दृश्य है — किसी के साथ दुर्घटना हुई है, दूसरा व्यक्ति बाहर बैठा है और flashback में सोचता है:
“हम वहाँ गए थे, ऐसा हुआ था…”
भीष्म पितामह अभी ठीक उसी स्थिति में हैं — वे अपने जीवन का flashback देख रहे हैं।
“स्मृति को खजाना बनाना – भक्ति की विधि”
तो यह जो flashback है — वह भीष्म पितामह अपने जीवन की उन प्रमुख यादों का स्मरण कर रहे हैं, जिनमें भगवान कृष्ण ने विशेष रूप से उनके जीवन में हस्तक्षेप किया था, या जिनमें कृष्ण की प्रमुख लीलाएं उनके समक्ष प्रकट हुई थीं।
जब हम कहते हैं कि “हमें भगवान का स्मरण करना चाहिए,” तो इसका तात्पर्य केवल यही नहीं कि हम जबरदस्ती याद करें, बल्कि स्मरण के लिए “यादें” होना भी आवश्यक है। यदि हमारे पास यादें ही नहीं होंगी, तो हम याद क्या करेंगे?
इसलिए स्मृति आवश्यक है।
भक्ति की जो संपूर्ण प्रक्रिया है, वह क्या है?
It is to make our memory into our treasury.
हमारी जो स्मृति है, वही हमारा खजाना बने। हमारे हृदय में जो भगवान ने हमारे साथ किया है, जो हमने उनके विषय में सुना है, देखा है — वे सारी बातें हमारे मन में छवि बनाकर बस जाएँ — यही भक्ति का मार्ग है।
आज अधिकांश लोगों के लिए क्या होता है?
हमारी चेतना (consciousness) — यह शब्द हम बहुत प्रयोग करते हैं — वह कहीं न कहीं हमारी स्मृति से जुड़ी हुई होती है। पर चेतना को सुधारना क्या केवल एक भावनात्मक बात है? नहीं, यह बहुत ही व्यावहारिक भी है।
हमारी चेतना में जो आता है, वह दो स्रोतों से आता है:
- जो हम बाहर से देखते-सुनते हैं — perceptions
- जो हमारे भीतर पहले से बसा हुआ है — memories या impressions (संस्कार)
जैसे कि एक मोबाइल की स्क्रीन पर जो दिखता है, वह दो चीज़ों से निर्धारित होता है: एक — इंटरनेट या कैमरा के माध्यम से बाहर से क्या आ रहा है, और दूसरा — पहले से फोन में सेव किया हुआ क्या है।
ठीक उसी प्रकार, हमारी चेतना में जो सक्रिय होता है, वह बाहर से आने वाले बोधों और अंदर जमी स्मृतियों से आता है।
इसलिए जब किसी का अंतिम समय आता है, तो हम प्रयास करते हैं कि उनके आस-पास का वातावरण आध्यात्मिक हो। लेकिन केवल बाहर से मंत्र सुनवाने से क्या होगा?
अगर अंदर की स्मृति में — “मेरे बेटे का क्या होगा?”, “मेरी संपत्ति का क्या होगा?” — ऐसे विचार ही हैं, तो बाहर के आध्यात्मिक प्रेरणा भी उस तक नहीं पहुँचेगी।
इसीलिए भक्ति में कथा श्रवण इतना महत्वपूर्ण है। हाँ, बहुत कुछ हम भूल जाते हैं, लेकिन यदि एक-दो बिंदु भी हमें छू जाते हैं, और मन में उनकी छवि बन जाती है — तो वही छवि हमारे स्मृति का हिस्सा बन सकती है, और किसी भी उपयुक्त परिस्थिति में वह स्वतः जागृत हो सकती है।
अब इसका एक गहरा मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है:
हमारी आसक्ति का एक सरल परीक्षण यह है:
What do we think of when we have nothing to think of?
जब कोई विशेष विचार या कार्य नहीं होता — जैसे सीधा रास्ता ड्राइव करते समय, या अकेले बैठे हुए — तब हमारा मन कहाँ जाता है?
राजनीति की ओर?
पैसे की चिंता में?
या किसी के अपमान का बदला लेने की भावना में?
अगर हमारा मन भगवान की ओर नहीं जाता, तो हमें समझना चाहिए कि हमारी चेतना अभी संसार के रसों से ही रंगी हुई है। लेकिन यदि हम भगवान से आसक्त हो जाएँ, तो जैसे ही हमारे पास कोई और सोचने को नहीं होता, हमारा मन अपने आप भगवान की ओर जाएगा।
भक्त का मन ‘Absent-Minded’ नहीं होता, वह ‘God-Minded’ होता है।
भागवतम में यह उदाहरण दिया गया है कि “भगवान का स्मरण हमारे मन का घर है।”
हम दिनभर काम करते हैं, बाहर जाते हैं, ज़िम्मेदारियाँ निभाते हैं — लेकिन अंत में हम घर लौट आते हैं। उसी तरह, चाहे हमारे जीवन में कितने भी विषय क्यों न हों, अंत में हमारा मन भगवान में लौट आए — यही है चेतना की पवित्रता।
भीष्म पितामह ने सैकड़ों युद्ध किए, अनेक विषयों पर चर्चा की — लेकिन अब, मृत्युशैय्या पर, वह कहते हैं कि उन्होंने अपनी चेतना उन सभी विषयों से खींच ली है, और उसे केवल भगवान में केंद्रित कर दिया है।
Thinking, Feeling, Willing — सब कुछ भगवान में लीन।
अब आते हैं उनके द्वारा की गई प्रार्थनाओं पर।
अगर हम भीष्म पितामह की प्रार्थनाएँ देखें, तो उनमें कुछ ही प्रसंग ऐसे हैं जहाँ भगवान के साथ उनका व्यक्तिगत संपर्क रहा है। यह हमें एक सन्देश देता है — भले ही हमारे जीवन में भगवान का प्रत्यक्ष सान्निध्य न हो, फिर भी हम उन्हें स्मरण कर सकते हैं।
उदाहरण:
पहली प्रार्थना में — वह भगवान से निवेदन करते हैं कि मेरी सोच, भावना और इच्छा — सब कुछ आप में लीन हो जाए।
दूसरी प्रार्थना में — वह भगवान के रूप-सौंदर्य का वर्णन करते हैं — त्रिभुवन-कमनीयं तमाल-वर्णं… — शायद यह युद्ध के मैदान में कृष्ण को देखकर उनके मन में अंकित हो गया था।
हम जानते हैं कि किसी भी रिश्ते में एक विशिष्ट रस होता है — सम्मान, घनिष्ठता, हास्य आदि।
भीष्म पितामह और कृष्ण के बीच कुछ बहुत ही intense पर कम personal मुलाकातें हुई हैं, जैसे:
- राजसूय यज्ञ के समय — जब शिशुपाल ने भीष्म का अपमान किया और कृष्ण ने उसका वध किया।
- शांति प्रस्ताव के समय — जब कृष्ण हस्तिनापुर दूत बनकर आए।
- कुरुक्षेत्र युद्ध — विशेषतः नवें दिन, जब कृष्ण ने क्रुद्ध होकर चक्र उठा लिया था।
- मरण शैय्या पर — जब कृष्ण स्वयं उनके पास आए।
इन तीन-चार गहरे संपर्कों की स्मृति ने भीष्म पितामह की चेतना को इस प्रकार भर दिया कि अब वह भगवान को छोड़ और कुछ स्मरण नहीं कर पा रहे।
जब हम भागवतम में भीष्म की प्रार्थनाएँ पढ़ते हैं — तो हमें यह दिखाई देता है कि उन्होंने भगवान के विषय में सुना, देखा और अनुभव किया, और वह सब अब उनके अंतर्मन में बस चुका है। उन्होंने स्मृति को खजाना बना लिया है — memory has become treasury — यही भक्ति की पराकाष्ठा है।
तो जैसे क्रिकेट मैच में एक बल्लेबाज़ को चोट लग जाती है, तो कप्तान कहता है, “अभी तुम गेंदबाज़ी मत करो, कुछ मत करो।”
उसी तरह भीष्म ने भी युद्ध रोक दिया था।
तो उन्होंने यह सब देखा — और उसी का वर्णन दो श्लोकों में गीता में आता है।
तो यह जो प्रसंग है, वह दो श्लोकों में आता है।
उन्होंने अपने वचन छोड़ दिए ताकि मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो सके।
इस प्रसंग में भगवान को “गतिर मुकुंदः” कहकर स्मरण किया गया है — ऐसे भगवान जिनका स्मरण मैं अंत समय में कर सकूं।
अब इस प्रसंग को मैं संक्षेप में कहूंगा, फिर टीका के माध्यम से इसे पूरा करेंगे।
आपको विस्तार में तो पहले से ही ज्ञात है, पर मैं यहां दो बातों पर ज़ोर दूंगा।
जब कोई कार्य कर रहा होता है, तो उसमें कई प्रकार की relational dynamics होते हैं।
यहां एक ओर भीष्म हैं, एक ओर अर्जुन, और कृष्ण सारथी के रूप में हैं।
अब जब कोई संबंधों में होता है, विशेषकर जब तीन लोग होते हैं, तो कभी एक व्यक्ति किसी की ओर देखकर किसी तीसरे के लिए कुछ कहता है।
तो इस प्रसंग में भी तीन मुख्य संबंध हैं:
- कृष्ण और अर्जुन का संबंध
- अर्जुन और भीष्म का संबंध
- भीष्म और कृष्ण का संबंध
मुख्य युद्ध अर्जुन और भीष्म के बीच चल रहा है।
इसमें अर्जुन आधे मन से युद्ध कर रहे हैं, और भीष्म पूरे समर्पण से।
अर्जुन आधे मन से क्यों लड़ रहे हैं?
क्योंकि उनके लिए भीष्म पिता-तुल्य हैं।
उन्होंने जो धनुर्विद्या सीखी है, वह प्रारंभिक रूप से भीष्म से ही सीखी।
भले ही द्रोणाचार्य ने आगे चलकर ज़िम्मेदारी संभाली, पर पहले पांडवों को भीष्म ने ही दिशा दी थी।
तो अब अर्जुन उसी धनुर्विद्या का प्रयोग करके उसी गुरु-सदृश व्यक्ति से युद्ध कर रहे हैं — जिसे उन्होंने प्रसन्न करने के लिए वह विद्या सीखी थी।
यह उनके लिए अत्यंत पीड़ादायक है।
तो अर्जुन के लिए यह असंभव-सा है कि वह भीष्म पर पूरे मन से प्रहार करें।
पर भीष्म पूर्ण उत्साह से युद्ध कर रहे हैं।
क्यों?
क्योंकि वह यह दिखाना चाहते हैं कि कृष्ण अर्जुन की रक्षा के लिए क्या कुछ कर सकते हैं।
उन्हें अर्जुन को मारने में कोई रुचि नहीं है, पर वह पूरी शक्ति से युद्ध कर रहे हैं ताकि दुनिया देख सके कि कृष्ण अर्जुन के लिए कहां तक जा सकते हैं।
और यह केवल दुनिया को नहीं, बल्कि दुर्योधन को भी दिखाना है।
कई लोग पूछते हैं — भीष्म दुर्योधन के पक्ष में क्यों रहे?
एक कारण यह भी था कि भीष्म ने कभी यह आशा नहीं छोड़ी कि दुर्योधन बदल सकता है।
इसीलिए जब दसवें दिन वह गिरते हैं, तो युद्ध रुक जाता है।
पांडव और कौरव दोनों उनके पास आते हैं, यहां तक कि दुर्योधन की आंखों में भी आंसू आ जाते हैं।
और भीष्म पहली बात जो कहते हैं वह यह:
“हे दुर्योधन! अब तुमने देख लिया — जिसे कोई नहीं हरा सका, जिसे उसके गुरु भी नहीं हरा सके, उसे अर्जुन ने हरा दिया — क्योंकि उसके पक्ष में कृष्ण हैं।
जिसके पक्ष में कृष्ण हैं, उसे कोई नहीं हरा सकता।
तो मेरी यह पराजय ही युद्ध का अंत बन जाए — Let my fall be the end of the hostilities.”
उनकी आशा थी कि दुर्योधन इस सत्य को देखकर परिवर्तित हो जाएगा।
दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ नहीं।
फिर भी, भीष्म इस युद्ध में बड़ी ऊर्जा और उत्साह से लड़े ताकि कृष्ण का महत्त्व सबके सामने स्पष्ट हो।
पर अर्जुन चाहकर भी भीष्म पर प्रहार नहीं कर पा रहे थे — क्योंकि उनका मन स्वीकार नहीं कर रहा था।
इसलिए युद्ध उनके लिए half-hearted था।
अब कृष्ण और अर्जुन का जो संबंध है — उसमें कृष्ण अर्जुन की रक्षा कर रहे हैं।
उसी के तहत जब भीष्म पूरे बल से प्रहार करते हैं, तो कृष्ण रथ का पहिया उठाकर उन्हें रोकने आते हैं।
यह केवल अर्जुन के प्रति प्रेम नहीं है — यह भीष्म के प्रति प्रेम भी है।
क्योंकि कृष्ण भीष्म के वचन की रक्षा कर रहे हैं।
भीष्म ने दुर्योधन से वादा किया था कि वह पांडवों का वध करेंगे।
उन्होंने इसके लिए पांच बाण बनाए — जिन्हें कृष्ण युक्ति से अर्जुन को दिलवा देते हैं।
दुर्योधन कहता है: “आप पांच नए बाण बनाइए।”
भीष्म कहते हैं: “यह आसान नहीं है। इसमें मेरी सारी तपस्या समाहित है।”
फिर कहते हैं: “आज मैं अर्जुन का वध करूंगा, यदि कृष्ण स्वयं शस्त्र न उठाएं तो।”
तो कृष्ण ने यह देखा कि अर्जुन को बचाना है, और भीष्म का वचन भी निभाना है।
इसलिए उन्होंने स्वयं शस्त्र उठाया, जो उन्होंने पहले वचन दिया था कि नहीं उठाएंगे।
इस प्रकार, वह अर्जुन की रक्षा कर रहे थे — और साथ ही भीष्म के वचन की भी रक्षा कर रहे थे।
तो भले ही कृष्ण भीष्म पर आक्रमण करते हैं — फिर भी उनमें कोई क्रोध या द्वेष नहीं था।
बल्कि प्रेम था — एक आदरभाव, एक करुणा, एक स्नेह।
अब जब अंत समय आता है, तो कृष्ण भीष्म के प्रस्थान के लिए स्वयं उपस्थित होते हैं।
इस दृश्य में हमारे लिए क्या सीख है?
भीष्म प्रार्थना करते हैं:
“सब्भवतु मे भगवान गतिर मुकुंदः”
ऐसे भगवान मेरा अंतिम आश्रय बनें — मेरी बुद्धि, मेरी चेतना अंत समय में उन्हीं की ओर जाए।
अब भगवान के स्मरण के दो तरीके हैं:
- भगवान की लीलाओं का स्मरण — जैसे कृष्ण ने गोकुल में क्या किया, कुरुक्षेत्र में क्या किया आदि।
- अपने जीवन की घटनाओं में भगवान की भूमिका को देखना — कि हमारे जीवन में जो भी हुआ, उसमें कृष्ण कैसे हमारे साथ थे, कैसे उन्होंने हमारी रक्षा की, मार्गदर्शन किया।
जैसा शास्त्र में आता है:
ब्रह्मांड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव…
— असंख्य जीवों में वही जीव धन्य है जिसे कृष्ण की कृपा और स्मरण का अवसर प्राप्त होता है।
तो अभी तक हम सब भौतिकता में उलझे हुए थे। शायद आप में से कुछ ही लोग होंगे जो सच में भगवान को ढूंढ रहे थे। पर सच तो यह है कि अधिकांश लोग भगवान को ढूंढ नहीं रहे थे — बल्कि भगवान के भक्त हमें ढूंढते हुए हमारे जीवन में आए। और इसी कारण हम भक्ति में आए — यही एक प्रकार का चमत्कार है, यही भगवान की कृपा है।
जब हम भगवान का स्मरण करते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें अपने जीवन के सारे कार्यों को छोड़ देना है और केवल भगवान की लीलाओं का स्मरण ही करना है। बल्कि हमें यह देखना है कि हमारे जीवन में भी भगवान ने कैसे कृपा की है। किस प्रकार उन्होंने हमें मार्गदर्शन दिया, हमारी रक्षा की, और हमारी सहायता की। भगवान हमें दिखाते हैं कि वह हमारे जीवन में कैसे उपस्थित हैं।
क्या भीष्म पितामह को यह पता था कि जब वह शरशय्या पर लेटे होंगे, तब भविष्य में भगवान स्वयं उनके पास आकर उपदेश सुनेंगे, और दूसरों को भी उनसे उपदेश दिलवाएंगे? शायद नहीं। पर उनकी यह इच्छा थी, उनका यह विश्वास था कि कृष्ण उनके जीवन में सक्रिय हैं। भीष्म देखना चाहते थे कि भगवान अपने भक्तों की रक्षा कैसे करते हैं, कैसे पांडवों का राज्याभिषेक होगा, कैसे धर्मनिष्ठ, भक्तिपूर्ण पांडवों को भगवान समृद्ध करेंगे।
भीष्म मृत्यु का वरण कभी भी कर सकते थे — पर उन्होंने अपने प्राण नहीं त्यागे, क्योंकि वह कृष्ण द्वारा दिए गए आश्वासन की पूर्णता देखना चाहते थे। वह देखना चाहते थे कि कृष्ण अपनी बात कैसे पूर्ण करते हैं।
तो अंत समय में, जो होता है — उसमें कृष्ण पांडवों की सफलता भी भीष्म को दिखा रहे हैं, और युधिष्ठिर को यह भी दिखा रहे हैं कि भले भीष्म का जीवन संघर्षों से भरा रहा, भले ही उन्होंने दुर्योधन का पक्ष लिया — शायद वह एक भूल थी, परंतु कृष्ण युधिष्ठिर को यह दिखा रहे हैं: “I have my devotees’ back. मैं अपने भक्तों का हमेशा संरक्षण करता हूं।”
अब युधिष्ठिर को लग रहा था कि शायद मैं राजा बनकर अधर्म कर रहा हूँ। मेरे राज्यारोहण के लिए इतना विनाशकारी युद्ध हुआ — क्या यह उचित था? पर भीष्म ने उन्हें आश्वस्त किया — उन्होंने युधिष्ठिर को बताया कि तुमने जो किया वह धर्मसंगत है। और युधिष्ठिर तब आश्वस्त हुए।
पर यहाँ एक और बात घट रही है — कृष्ण, भीष्म की अंतिम इच्छा भी पूरी कर रहे हैं, और युधिष्ठिर की आंतरिक आवश्यकता को भी संबोधित कर रहे हैं। तो यह घटना केवल एक नहीं, बल्कि अनेक उद्देश्यों को पूर्ण कर रही है।
हमारे जीवन में भी ऐसा ही होता है। कभी हम सोचते हैं — “मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ?” “यह व्यक्ति मेरी ज़िंदगी में क्यों आया?” “यह हादसा मेरे साथ ही क्यों हुआ?” पर अगर हम श्रद्धा रखते हैं, अगर हम भगवान की सेवा और स्मरण नहीं छोड़ते हैं, तो समय के साथ हमें यह समझ आता है कि: “What happened to me, was actually what happened for me.”
यह मेरे साथ नहीं हुआ, यह मेरे लिए हुआ।
हो सकता है उस क्षण हम यह न समझ पाएं। हम यह सोचते हैं — “अरे! मेरे साथ विश्वासघात हुआ,” “यह हादसा क्यों हुआ?” पर अगर हम श्रद्धा रखते हैं, तो धीरे-धीरे समझ में आता है कि भगवान का ही हाथ इसमें था। उन्होंने हमें किसी बड़े उद्देश्य के लिए उस घटना से गुज़ारा।
यह श्रद्धा ही भागवतम की कहानियों से हमें मिलती है। परीक्षित महाराज का ही उदाहरण लीजिए: एक छोटी सी गलती पर उन्हें मृत्यु का श्राप मिल गया — पर वही उनके कल्याण का कारण बन गया।
तो भागवतम हमें कृष्ण का स्मरण कैसे कराता है? हमने तीन चीज़ें देखीं — C, I, और T — Context, Intent, Transformation।
1. Context (संदर्भ) — पहले स्कंध को हम दशम स्कंध का एक ट्रेलर कह सकते हैं। इसमें हमें कृष्ण की महिमा और भूमिका का परिचय मिलता है।
2. Intent (भावना) — हमने तीन प्रार्थनाओं को देखा:
- उत्तरा की प्रार्थना — जिससे भौतिक रूप से परिवर्तन आता है।
- कुंती की प्रार्थना — जिससे कोई भौतिक परिवर्तन नहीं आता, पर भावनात्मक परिष्कार होता है।
- भीष्म की प्रार्थना — जिसमें भगवान में पूर्ण तल्लीनता की अभिलाषा होती है।
3. Transformation (परिवर्तन) — कुंती की प्रार्थना में इच्छाओं का परिष्कार होता है। भीष्म की प्रार्थना में तो उनकी इच्छा ही कृष्ण में लीन हो जाती है।
तो इससे हमारे लिए यह सीख है कि: हमें अपनी स्मृतियों को ही अपना खजाना बनाना है — Memory as a Treasury।
हमारे मन में जो बातें आती हैं, वे दो स्रोतों से आती हैं: बाहरी अनुभव (perception) और भीतर की स्मृति (recollection)। हम बाहरी परिस्थितियों को सीमित रूप से बदल सकते हैं, पर हमारी स्मृति को हम आध्यात्मिक बना सकते हैं। जब हमारे पास सोचने के लिए कुछ नहीं होता — तब जो बात हमारे मन में आती है — वही हमारी आंतरिक वृत्ति को दर्शाती है। और हमें उसे आध्यात्मिक बनाना है।
तो यह सब हमें दिखाता है कि भगवान और उनके भक्तों के बीच जो संबंध हैं — वे बहुत गहरे, भावनात्मक और बहु-स्तरीय होते हैं।
जैसे:
- अर्जुन और भीष्म का संबंध — जहाँ अर्जुन हिचकते हैं और भीष्म पूरे समर्पण से लड़ते हैं।
- कृष्ण और अर्जुन का संबंध — जहाँ कृष्ण अर्जुन की रक्षा करते हैं।
- कृष्ण और भीष्म का संबंध — जहाँ कृष्ण भीष्म के वचनों की रक्षा करते हैं।
कृष्ण का रथचक्र उठाना केवल अर्जुन की रक्षा नहीं थी, बल्कि भीष्म के वचन की रक्षा भी थी।
भीष्म ने अपनी स्मृति में तीन मुख्य घटनाएं चुनीं —
- राजसूय यज्ञ
- शांति-दूत प्रसंग (जिसे उन्होंने स्मरण नहीं किया क्योंकि वह असुखद था)
- युद्धभूमि का प्रसंग (जिसका उन्होंने विस्तार से वर्णन किया)
तो इस तरह हमें भी अपनी जीवन की घटनाओं में भगवान का हाथ पहचानना है।
शायद उस समय हम न समझ पाएं — पर अगर हम उत्साह, निश्चय, और धैर्य बनाए रखें,
तो हम भी देख सकते हैं कि:
भगवान हमारे जीवन में सक्रिय हैं, और हमारे लिए वही करते हैं जो हमारे कल्याण के लिए उचित होता है।
तो किसके पास हम उपचार के लिए जाएंगे?
अगर कोई भक्त heart surgery करने वाला हो और वह कहे, “जब मैं heart surgery करूंगा, तो मैं तुम्हें गारंटी देता हूं कि मैं हरे कृष्ण महामंत्र जपता रहूंगा,” तो यह अच्छी बात है।
हाँ, बात सही है, I agree with you. लेकिन अगर कोई यह कहे कि “मैं भगवान का नाम लूंगा,” पर साथ ही कहे, “आपकी हार्ट सर्जरी अच्छे से होगी या नहीं, इसकी मैं गारंटी नहीं दे सकता,” तब?
तो हम सोचेंगे — “मुझे कृष्ण के पास जाना है, लेकिन इतनी जल्दी नहीं!”
यहां हमें समझना होगा:
Our remembrance of Krishna should not become an excuse for material incompetence. कि मैं भगवान का स्मरण कर रहा हूं, इसलिए अपने उत्तरदायित्वों की उपेक्षा कर रहा हूं — ऐसा नहीं होना चाहिए।
भगवान का स्मरण कोई सतही या दिखावटी चीज़ नहीं है।
विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर एक उदाहरण देते हैं:
मान लीजिए कोई गृहस्थ है, जिसे नौकरी के लिए अपने परिवार से दूर किसी अन्य शहर में रहना पड़ रहा है। वह वहां व्यापार कर रहा है, सौदे कर रहा है। लेकिन उसके मन में क्या है? “मैं यह सब अपने परिवार की देखभाल के लिए कर रहा हूं।”
तो एक होती है conscious memory — उसमें भगवान का नाम हो या न हो। लेकिन subconscious memory में क्या है? “मैं जो भी कर रहा हूं, भगवान की सेवा के लिए कर रहा हूं।”
यही उद्देश्य साधना और श्रवण का है।
प्रभुपाद जी कहते हैं — हम श्रवण और साधना करें, जिससे हमारा मन और बुद्धि धीरे-धीरे भगवान में लग जाए।
इसका मतलब यह नहीं कि जब हम कार्य कर रहे हैं, तो हम हमेशा भगवान का स्मरण कर ही रहे होंगे, लेकिन उसका उद्देश्य भगवान की सेवा होना चाहिए।
जब हम थोड़ा स्थिर हो जाते हैं — पारिवारिक और आर्थिक रूप से — तब वानप्रस्थ ले सकते हैं, थोड़ा समय और दे सकते हैं।
पर इसका मतलब यह नहीं कि भगवान का स्मरण हम postpone करें।
हमें अपनी जीवनशैली को इस तरह व्यवस्थित करना चाहिए कि स्मरण भी हो और बाकी कार्य भी सेवा के रूप में हों।
Zoom पर भी बहुत लोग सुन रहे थे।
उन्होंने कहा — “जो content, application और take away points हैं, वे बहुत ही रोचक और उपयोगी हैं।”
मैंने जानबूझकर प्रभु जी का परिचय अंत में रखा, क्योंकि जब हम यहां आए तो मैदान खाली था।
सोचा जब मैदान भर जाए तब परिचय दिया जाए।
चैतन्य चरण प्रभु का परिचय:
जब कोई व्यक्ति अपना मुंह बंद रखता है, तभी उसका परिचय नहीं होता। जब कोई मूर्ख व्यक्ति मुंह खोलता है, तो उसकी मूर्खता स्पष्ट हो जाती है। लेकिन जब कोई कृष्ण-भावना से संप्रक्त व्यक्ति बोलता है, तो उसकी वाणी ही उसका परिचय बन जाती है।
फिर भी मैं संक्षिप्त में बताना चाहूंगा:
- प्रभु जी पिछले तीस वर्षों से भक्तियोग का प्रचार कर रहे हैं।
- उनकी विशेषता है कि वह केवल पारंपरिक तरीकों से प्रचार नहीं करते, बल्कि आज के समाज में क्या हो रहा है, उसका अनुसंधान करके उसके अनुसार प्रचार करते हैं।
- उन्होंने भगवद गीता, रामायण आदि पर 30 ग्रंथ लिखे हैं, जिससे वैदिक बुद्धि और शास्त्र को जीवन से जोड़ा जा सके।
- वे Geetadaily.com नामक वेबसाइट पर 5000 से अधिक लेख लिख चुके हैं। यह विश्व का एकमात्र daily blog है जो भगवद गीता पर आधारित है।
- उन्होंने TEDx, UNESCO, Intel, Google, Microsoft, Salesforce, Stanford, Princeton, Yale, Harvard, MIT, Cambridge जैसे मंचों पर प्रवचन दिए हैं।
- वे हर वर्ष 9 महीने विदेश में प्रचार करते हैं और 4 महाद्वीपों में घूमते हैं।
- अब उन्होंने तय किया है कि वे विश्व भ्रमण थोड़ा कम करेंगे और उस समय में से 2 महीने भारत में रहेंगे।
हमारे लिए सौभाग्य:
जब भी प्रभु जी भारत में रहेंगे, वे हमारे Bhaktivedanta Hospital के लिए सप्ताह में 4 दिन तक प्रवचन देंगे।
यह बहुत बड़ी कृपा है, क्योंकि जिनके पास इतनी वैश्विक मांग है, उन्होंने हमारे प्रति भी प्रेम प्रकट किया और हमारे पास समय निकाला।
एक और विशेषता:
आजकल बच्चों को gadgets का बहुत शौक होता है।
प्रभु जी ने दिखाया कि उन gadgets का उपयोग किस तरह कृष्ण-भावना फैलाने में किया जा सकता है — जैसे आपने उनका demo session देखा।
हो सकता है वो फाइल WhatsApp या Email से भी साझा की जाए।
अंत में:
मैं प्रभु जी के प्रवचन से बहुत भाव विभोर हूं।
I am very much overwhelmed.
हर शब्द हृदय को छूने वाला था।
मैं आप सभी की ओर से चैतन्य चरण प्रभु का हृदय से धन्यवाद करता हूं।
कृपया तीन बार “हरी बोल” कहकर उनका अभिनंदन करें।
आशा है जब भी वह भक्ति वेदांत में निवास करेंगे, गुरुवार को भी प्रवचन देंगे।
आपका हिंदी प्रवचन भी बहुत सुंदर रहा। ऐसा नहीं कि आप केवल अंग्रेज़ी में बोलते हैं — आपकी हिंदी भी बहुत प्रभावशाली थी और सबको समझ में भी आई।
अंत में:
अब सब लोग प्रसाद ले सकते हैं।
महाप्रसादे गोविंदे नाम ब्राह्मण्य वैष्णवे।
हरे कृष्णा! हरे राम!
बहुत धन्यवाद।
Thank you very much.