Hindi – Chapter 5 Bhagavad Gita And Decision Making Bhagavad Gita Overview Chaitanya Charan
हरे कृष्णा।
आज हम भगवद्गीता के पाँचवें अध्याय पर चर्चा कर रहे हैं। अब तक की चर्चा को संक्षेप में देखें, तो भगवद्गीता की शुरुआत दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक से होती है, जहाँ अर्जुन भगवान से एक मौलिक प्रश्न पूछते हैं — “मैं आपके शरणागत शिष्य के रूप में पूछ रहा हूँ, कृपया निश्चित रूप से बताइए कि मेरे लिए क्या श्रेयस्कर है?” और भगवान पूरे गीता में उसी प्रश्न का उत्तर विस्तार से देते हैं।
दूसरे अध्याय में भगवान विभिन्न दृष्टिकोणों से अर्जुन को कर्तव्य करने के लिए प्रेरित करते हैं, विशेष रूप से कर्मयोग के माध्यम से। तीसरे अध्याय में भगवान पुनः कर्मयोग की व्याख्या करते हैं — इस बार वे उसकी तुलना कर्मकांड से करते हैं, जहाँ व्यक्ति फल की आशा में यज्ञ करता है। लेकिन भगवान बताते हैं कि कर्मयोग उससे उच्चतर है, क्योंकि उसमें त्याग की भावना होती है।
चौथे अध्याय में, भगवान ज्ञान पर बल देते हैं — यह ज्ञान व्यक्ति को यह समझने में मदद करता है कि उसे कर्मयोग कैसे करना है। यानी “ज्ञान से कर्मयोग कैसे किया जाए।”
यहाँ हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं — जैसे कोई दवाई हमें दी जाए। हम सबसे पहले उसका परिणाम देखना चाहते हैं: इससे बीमारी ठीक होगी या नहीं? फिर हम देखते हैं कि इसमें क्या-क्या सामग्री है। फिर, यदि हममें रुचि हो, तो यह भी देखते हैं कि किस कंपनी ने इसे बनाया है।
उसी तरह, भगवान भी कर्मयोग का विश्लेषण अलग-अलग दृष्टिकोण से करते हैं:
- तीसरे अध्याय में – कर्मयोग का परिणाम (किया जाए या न किया जाए तो क्या होगा),
- चौथे अध्याय में – कर्मयोग का ज्ञान (कैसे करना है),
- और पाँचवें अध्याय में – कर्मयोग की चेतना (किस भावना से करना है)।
अब प्रश्न आता है — भगवान बार-बार एक ही बात क्यों कह रहे हैं?
इसका उत्तर अर्जुन के प्रश्न में छिपा है। पाँचवें अध्याय की शुरुआत अर्जुन के इस श्लोक से होती है:
“संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यत् श्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।”
(हे कृष्ण! आप कभी कर्म का त्याग बताते हैं, कभी कर्मयोग की महिमा गाते हैं — कृपया सुनिश्चित रूप से बताइए कि इन दोनों में से कौन-सा मेरे लिए श्रेयस्कर है?)
अर्जुन जानते हैं कि दोनों रास्ते अच्छे हैं — कर्मयोग भी और कर्मसंन्यास भी। लेकिन वे पूछते हैं कि इन दोनों में से बेहतर क्या है? यह प्रश्न उनकी परिपक्वता दर्शाता है। सामान्य व्यक्ति को पहले यह समझाना पड़ता है कि कुछ चीज़ें प्रेयस (तात्कालिक सुखद) हैं और कुछ श्रेयस (दीर्घकालिक कल्याणकारी)। लेकिन अर्जुन इस स्तर से आगे बढ़ चुके हैं — वे यह नहीं पूछ रहे कि क्या सुखद है, बल्कि पूछ रहे हैं कि इन दो शुभ मार्गों में से श्रेष्ठ कौन-सा है?
यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति यह नहीं पूछता कि “मैं पैसा खर्च करूं या सेविंग करूं?” बल्कि पूछ रहा हो: “सेविंग करूं तो किस योजना में करूं — FD में या mutual fund में?” — यानी वह जानता है कि सेविंग आवश्यक है, लेकिन बेहतर विकल्प जानना चाहता है।
तो भगवान अर्जुन के इसी गहन प्रश्न का उत्तर पाँचवें अध्याय में देते हैं — लेकिन केवल एक उत्तर देकर नहीं, बल्कि विभिन्न दृष्टिकोणों से। क्योंकि यदि कोई उत्तर पहली बार समझ में न आए, तो उसी बात को नए दृष्टिकोण से कहने पर वह समझ में आ सकती है।
भगवान वही बात अलग-अलग कोण से कहते हैं:
- कभी परिणाम के आधार पर (Third chapter),
- कभी ज्ञान के आधार पर (Fourth chapter),
- और कभी इंटेंट और चेतना के आधार पर (Fifth chapter)।
भगवान ने अर्जुन को ज्ञान की “तलवार” से युद्ध करने के लिए कहा — यह प्रतीकात्मक भाषा है। सवाल आता है — क्या अर्जुन को सच में शस्त्र उठाकर युद्ध करना है या केवल आत्मज्ञान के स्तर पर युद्ध करना है?
चौथे अध्याय में भगवान युद्ध का कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं करते। वास्तव में, भगवद्गीता में युद्ध का उल्लेख बहुत कम है — जबकि गीता रणभूमि में कही गई थी! 8.7 में और 18.17 जैसे कुछ श्लोकों में ही युद्ध का स्पष्ट उल्लेख आता है। इसका कारण है — भगवान मुख्य रूप से आंतरिक युद्ध पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, जहाँ व्यक्ति को अपने संशयों, अज्ञान और वासनाओं से लड़ना है।
भगवान अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा दे रहे हैं — पर वह कर्म केवल बाहरी नहीं है, वह आंतरिक भी है।
इसलिए पाँचवां अध्याय इस बात को और स्पष्ट करता है कि सच्चा त्याग कर्म से नहीं, भावना से होता है। भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति फल की आसक्ति त्यागकर कर्म करता है, वही सच्चा संन्यासी है — और यही कर्मयोगी भी है।
जो पहले सुना है, वह अकसर भूल जाते हैं।
अगर हम किसी देश के बारे में अभी कोई बुरी खबर सुन लें, तो हम यह भूल जाते हैं कि उस देश ने पहले कितने अच्छे काम भी किए होंगे। वही मानसिकता अर्जुन के साथ हो रही है। गीता का ज्ञान गहरा और जटिल है। अर्जुन ने बहुत कुछ सुना, लेकिन जो हाल में सुना है, वही उनके मन पर प्रभाव डाल रहा है।
उन्हें याद है कि भगवान ने पहले कर्मसंन्यास की प्रशंसा की, लेकिन फिर भगवान ने कर्मयोग को करने के लिए प्रेरित किया। तो अर्जुन भ्रमित हो गए — “आप वास्तव में चाहते क्या हैं? मैं त्याग करूं या कर्म करूं?”
भगवान उत्तर देते हैं:
“सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते।।”
(दोनों ही मार्ग कल्याणकारी हैं, लेकिन उनमें कर्मयोग श्रेष्ठ है।)
अब पाँचवें अध्याय की बात करें — इसमें कुल 29 श्लोक हैं। यह गीता के छोटे अध्यायों में से एक है। इस अध्याय में कई ऐसे श्लोक हैं जिन्हें हम अक्सर उद्धृत करते हैं — जैसे:
- “ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः”,
- “युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्”,
- “पद्मपत्रमिवाम्भसा”,
- “भोक्तारं यज्ञतपसां” आदि।
इस अध्याय की सबसे महत्वपूर्ण बात है — “बन्धन और मुक्ति” का निर्धारण हमारी बाहरी क्रिया से नहीं, हमारी आंतरिक चेतना से होता है।
भगवान पहले बता चुके हैं कि हम कर्म करने से बच नहीं सकते। “Do nothing” का अर्थ यह नहीं है कि हम TV देखें, games खेलें या gossip करें — यह तो भी एक तरह का activity ही है। “कर्म न करने का प्रयास भी एक कर्म ही है।”
हमारी इंद्रियाँ हमेशा क्रियाशील रहती हैं — उन्हें निष्क्रिय बनाना संभव नहीं।
भगवान कहते हैं —
“ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।”
(जो व्यक्ति अपने कर्मों को ब्रह्म में समर्पित करके, आसक्ति को त्यागकर कार्य करता है…)
इसका अर्थ यह है कि — शरीर की इंद्रियाँ स्वभाव से क्रियाशील हैं, वे अपने विषयों से संपर्क करेंगी, परंतु यदि हमारी चेतना भोग की भावना से रहित है, तो वह कर्म बन्धन नहीं उत्पन्न करता।
इंद्रिय-विषय यानी “sense-objects” — यह शब्द अपने-आप में नकारात्मक नहीं है। यह केवल दर्शाता है कि इंद्रियाँ किससे संपर्क करती हैं:
- आँखें — रूप से,
- कान — ध्वनि से,
- जीभ — स्वाद से।
अब स्वाद अच्छा हो सकता है, बुरा हो सकता है, या तटस्थ भी हो सकता है (जैसे वाहन का हॉर्न — न अच्छा, न बुरा, बस जानकारी देता है)।
तो हमें इंद्रियों से भागना नहीं है, बल्कि इंद्रियों का उपयोग नियत उद्देश्य से करना है।
जैसे कोई वाहन चला रहा है, तो वह आँखें बंद करके नहीं चला सकता। उसे इंद्रियों का उपयोग करना ही पड़ेगा, परंतु “भोग” के लिए नहीं, “कर्तव्य” के लिए।
भगवान यही कहते हैं —
अगर इंद्रियाँ उनके स्वभाव के अनुसार कार्य करें और मनुष्य उनसे आसक्त न हो, तो वह कर्म में रहते हुए भी मुक्त रह सकता है।
यही सच्चा कर्मयोगी होता है — जो कर्म करते हुए भी उसमें बंधता नहीं है, क्योंकि वह कर्म भगवदर्पण बुद्ध्या करता है।
इस अध्याय में आगे भगवान बताएंगे कि ऐसा कर्मयोगी कैसा होता है:
- वह शांत रहता है,
- सभी प्राणियों को समभाव से देखता है,
- और आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से पूर्ण शांति को प्राप्त करता है।
इसलिए, पाँचवां अध्याय हमें यही सिखाता है —
“मुक्ति क्रिया से नहीं, चेतना से आती है।”
कर्तव्य करें, पर आसक्ति से मुक्त होकर करें — यही जीवन में संतुलन का मार्ग है।
Non-intrusive जांच और कार्य में भोग की भावना का अभाव:
आजकल हवाई अड्डों पर सुरक्षा जांच करते समय अधिकारी शरीर का निरीक्षण करते हैं, पर एक खास मर्यादा के साथ।
Non-intrusive का अर्थ है — ऐसा स्पर्श जिसमें व्यक्ति की गोपनीयता का सम्मान बना रहे।
इसलिए अमेरिका में सुरक्षा अधिकारी जब शरीर को जांचते हैं तो हाथ की पीछली तरफ (back side of the hand) से स्पर्श करते हैं — यह स्पष्ट संकेत है कि यह स्पर्श भोग के लिए नहीं, कर्तव्य के लिए है। इसे हम कह सकते हैं:
“Functional, not sensual.”
इसी तरह, गीता में भगवान कहते हैं कि जब हमारी इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से संपर्क करें, तो उसमें भोग की भावना न हो, केवल कर्तव्य की भावना हो।
जैसे कोई डॉक्टर मरीज़ का परीक्षण करता है — वह स्पर्श है, पर उसमें कोई इंद्रिय-तृप्ति की भावना नहीं होती।
कर्म का मूल्य उस कर्म के पीछे की चेतना से तय होता है।
भगवान कहते हैं:
“ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः…”
(जो व्यक्ति अपने कर्मों को ब्रह्म में समर्पित करके, आसक्ति रहित होकर कार्य करता है…)
तो कार्य होते हुए भी यदि चेतना भोग से रहित है — वह कर्म बंधन नहीं बनता।
पद्मपत्र पर जल की तरह…
भगवान यह स्थिति एक सुंदर उपमा से समझाते हैं:
“पद्मपत्रमिवाम्भसा”
जैसे कमल-पत्र पर जल टिकता नहीं है, वैसे ही योगी भौतिक वस्तुओं के संपर्क में तो रहता है, पर उनमें आसक्त नहीं होता।
जैसे अर्जुन युद्ध कर रहे हैं, पर उनका उद्देश्य न बदला लेना है, न घृणा करना है, बल्कि समाज की रक्षा के लिए अपने क्षत्रिय-कर्तव्य का पालन करना है।
शांति का रहस्य:
भगवान इस अध्याय में “शांति” शब्द बार-बार दोहराते हैं। क्यों?
क्योंकि अर्जुन का युद्ध बाहर नहीं, भीतर चल रहा है।
बाहर का युद्ध तो तय था — कौरवों से — पर जब अर्जुन ने अपने स्वजनों को देखा, तो उनके मन में द्वंद्व उत्पन्न हो गया।
भगवान समझाते हैं — यदि तुम इस ज्ञान और चेतना से कर्म करोगे, तो जो भीतर का अशांत युद्ध है, वह शांत हो जाएगा।
“युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्”
(जो युक्त है — जो योग में स्थित होकर फल की आसक्ति त्याग देता है — वही निश्चल शांति प्राप्त करता है।)
बाहरी यात्रा और अंदरूनी यात्रा:
बाहरी कार्य भले संसार में हो, पर यदि उद्देश्य आत्म-शुद्धि है, तो वह हमें भगवान के और करीब ले जाता है।
जैसे कोई गृहस्थ परिवार की सेवा के लिए नौकरी करता है — वह बाहर तो घर से दूर जाता है, पर वास्तव में अपने परिजनों के लिए ही जाता है। ऐसे ही जब हम भक्ति के उद्देश्य से कार्य करते हैं, तो बाहर संसार में रहकर भी हम भगवान के करीब जाते हैं।
उदाहरण:
हनुमान जी राम के संदेश के लिए लंका गए। भले वह भौगोलिक रूप से राम से दूर गए, पर अपने सेवाभाव से वह राम के और करीब आ गए।
प्रभुपाद जी वृंदावन से अमेरिका गए, पर वहां जाकर उन्होंने संसार भर में हजारों लोगों को वृंदावन से जोड़ा।
तो दिशा नहीं, चेतना निर्णायक है।
कर्म के तीन कारक – जीव, जगत, जगदीश:
भगवान आगे बताते हैं कि कोई भी कार्य तीन तत्त्वों से पूर्ण होता है:
- जीव – अर्थात हमारी स्वतंत्र इच्छा (free will)
- जगत / प्रकृति – परिस्थिति, संसाधन, शरीर आदि
- जगदीश / ईश्वर – परमेश्वर की अनुमति और संकल्प
उदाहरण:
एक चोर चोरी करता है – यह उसकी स्वतंत्र इच्छा है।
पुलिस उसे पकड़ती है – यह जगत की व्यवस्था है।
जज उसे सज़ा सुनाता है – यह जगदीश की स्वीकृति है।
तीनों कारक मिलकर ही सज़ा (या फल) मिलती है।
यदि केवल चोर है, पर पुलिस नहीं पकड़ती, या जज सज़ा नहीं सुनाता, तो वह जेल नहीं जाता।
इसलिए भगवान कहते हैं —
कोई भी कर्म फल तभी देता है जब तीनों कारक सक्रिय हों।
अंत में एक प्रश्न:
कभी लोग पूछते हैं — यदि कोई आत्महत्या करना चाहता है, तो हर कोई कर क्यों नहीं पाता?
कई बार प्रयास करने के बावजूद व्यक्ति बच जाता है।
क्यों?
क्योंकि केवल व्यक्ति की इच्छा पर्याप्त नहीं —
यदि जगत की परिस्थिति और ईश्वर की अनुमति न हो, तो वह कार्य सिद्ध नहीं होता।
क्या जो हुआ वही उचित था? — नियति, इच्छा और जिम्मेदारी
कभी लोग पूछते हैं –
“अगर कोई कार्य हो गया और वह सफल हो गया, तो क्या इसका अर्थ यह है कि वह कार्य नियति के अनुसार ही होना था? और यदि नियति के अनुसार हुआ था, तो फिर उसे पाप क्यों माना जाए?”
यह प्रश्न गूढ़ है, लेकिन समझने योग्य है।
हां, कुछ बातें नियति से घट सकती हैं।
लेकिन जो हुआ, वह नियति से हुआ — इसका अर्थ यह नहीं कि वही करना हमारे लिए धर्म-सम्मत था।
यह विचार थोड़ा जटिल लग सकता है, पर एक उदाहरण से यह स्पष्ट हो सकता है:
महाभारत में अठारहवीं रात, जब युद्ध समाप्त हो गया था और पांडवों का शिविर विश्राम कर रहा था,
अश्वत्थामा चोरी से शिविर में घुसकर सभी को नींद में मार डालता है।
उसे लगता है कि उसने पांडवों को मार डाला, जबकि वास्तव में उसने उनके पुत्रों और बाकी सैनिकों की हत्या की।
लेकिन इस भयावह कर्म से पहले ही अश्वत्थामा को एक विचित्र, भयानक रूप दिखाई देता है —
जिसे वह पहचान नहीं पाता और तीर चलाने लगता है, पर उस पर कोई असर नहीं होता।
वह जान जाता है कि यह शिवजी का रूप है।
वह उनके चरणों में गिरकर कहता है,
“मैं जो करने जा रहा हूं, वह बहुत पाप है — मुझे क्षमा करें।”
शिव जी स्पष्ट करते हैं — यह विचार ही पापपूर्ण है,
“शत्रु को भी नींद में मारना अधर्म है।”
अश्वत्थामा जवाब देता है:
“जब अर्जुन और अन्य पांडवों ने मेरे पिता द्रोणाचार्य को ध्यान की अवस्था में मार दिया,
तो मैं क्यों न वैसा ही करूं?”
पर यह तथ्यात्मक रूप से गलत था।
द्रोणाचार्य को मारने की कोई सामूहिक साज़िश नहीं थी।
केवल धृष्टद्युम्न ने उन्हें मारा था, और अर्जुन सहित कई योद्धा उस पर क्रोधित भी हुए थे।
अतः अश्वत्थामा की यह सोच दुष्प्रेरित और झूठी धारणा पर आधारित थी।
उसका इरादा बदले का था – और वह भी अंधा बदला।
जब वह शिवजी से शक्ति पाता है और उसे तलवार मिलती है,
तो उसे लगता है — “अब मेरे पास शक्ति है, इसका अर्थ है मैं सही हूं।”
यह वही अहंभाव है जैसे “I have the power” वाले कॉमिक्स में दिखाया जाता है।
परन्तु “शक्ति होना” और “धर्मसंगत होना” एक ही बात नहीं हैं।
क्या शक्ति मिलना प्रमाण है कि कार्य सही है?
मान लीजिए कोई लड़का गुस्से में है, और किसी आतंकवादी संगठन से उसे बंदूक मिल जाती है।
तो क्या केवल इस शक्ति को प्राप्त कर लेना उसे सही कर देता है? नहीं।
Success ≠ Righteousness
एक कार्य सफल हो गया — इसका यह अर्थ नहीं कि वह धर्मसम्मत भी था।
उदाहरणस्वरूप, अश्वत्थामा को तलवार मिल गई, उसने सबको मार डाला —
पर उसका मूल इरादा क्या था?
व्यक्तिगत क्रोध और बदला।
और इसी कारण उसे पाप का कठोर फल भोगना पड़ा।
कार्य की सफलता किन पर निर्भर है?
शास्त्र बताते हैं कि कोई भी कार्य तभी सिद्ध होता है जब तीन चीज़ें साथ आती हैं:
- जीव की इच्छा (Free Will)
- प्रकृति की सुविधा (Means & Circumstances)
- ईश्वर की अनुमति (Sanction by the Lord)
उदाहरण के लिए:
एक व्यक्ति आत्महत्या करना चाहता है।
कभी वह सफल होता है, कभी कोई आ जाता है और वह बच जाता है।
तो इच्छा थी, पर शायद ईश्वर की अनुमति नहीं थी, या प्रकृति ने साथ नहीं दिया।
तो जब कोई कार्य सिद्ध होता है — वह इन तीनों के समन्वय से होता है।
किंतु आरंभ कहां से होता है?
सबसे पहले जीव की इच्छा से।
यही आधार है – उसी के अनुसार ईश्वर अनुमति देते हैं और प्रकृति साधन देती है।
परन्तु — केवल सफलता से यह नहीं सिद्ध होता कि कार्य धर्मसंगत था।
क्योंकि नियति का एक पक्ष समय और परिस्थिति से जुड़ा होता है,
पर धर्म का निर्धारण होता है चेतना और उद्देश्य से।
जीव, ईश्वर और प्रकृति – गीता का दृष्टिकोण:
गीता के अनुसार:
- जीव चाहता है
- ईश्वर अनुमति देते हैं
- प्रकृति उस इच्छा को साकार करती है
मान लीजिए आत्मा एक ड्राइवर है और शरीर एक गाड़ी है —
अब बैलगाड़ी की सीमाएँ अलग होती हैं, हवाई जहाज़ की अलग।
ड्राइवर दोनों को हवाई जहाज़ की तरह नहीं चला सकता।
पर ड्राइवर तय करता है कि गाड़ी को कहाँ ले जाना है।
इसी तरह — हम शरीर और प्रकृति की सीमाओं के भीतर रहकर
अपनी इच्छा, चेतना, और उद्देश्य के अनुसार गति की दिशा तय करते हैं।
भगवान कहते हैं – “नवद्वारे पुरे देही न कर्वं न कारयन्।”
इस शरीर को एक नगर के समान समझो। जैसे किसी शहर में बहुत कुछ घटता है – लोग आते हैं, जाते हैं, कुछ काम होता है, कुछ नहीं होता – वैसे ही इस शरीर में भी अनेक क्रियाएँ होती हैं। लेकिन जैसे हम शहर में आने-जाने वाले हर व्यक्ति से न तो मिलते हैं और न ही उनके जाने पर दुखी होते हैं, वैसे ही इंद्रियों के माध्यम से आने वाली सभी जानकारी या अनुभवों को हमें भोग की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए।
जब कोई अनुभव आता है, हमें देखना चाहिए – क्या यह अनुभव मुझे सेवा के लिए प्रेरित कर रहा है? क्या इससे मेरा शुद्धिकरण हो रहा है? यदि हम ऐसा दृष्टिकोण अपनाते हैं, तो प्रकृति अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करेगी, लेकिन हम उस कार्य से बंधेंगे नहीं। इस संपूर्ण प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है – “हमारी इच्छा।” हमारी इच्छा हमारे नियंत्रण में है; भगवान की स्वीकृति और प्रकृति की व्यवस्था हमारे नियंत्रण में नहीं हैं।
इसी आधार पर भगवान आगे बताते हैं – जब कोई यह समझता है कि शरीर और आत्मा अलग हैं, और कार्य के फल से आसक्त हुए बिना सेवा भावना से कार्य करता है, तब वह विद्या-विनय-सम्पन्न श्लोक की भावना को प्राप्त करता है – सबको समभाव से देखता है। यह दृष्टिकोण liberation (मुक्ति) की दृष्टि है।
यह विभाग (17–26) दो हिस्सों में बँटा है:
- 17–19: व्यक्ति की चरम (peak) चेतना कैसी होनी चाहिए – परम सत्य पर केंद्रित, सबमें आत्मा का दर्शन।
- 20–26: इस चेतना तक पहुँचने की प्रक्रिया – सुख-दुख में समभाव, इच्छाओं को सहना, अंतःमुख होना और अंत में ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति।
फिर भगवान कहते हैं – जो इस चेतना में स्थिर हो जाता है, वह सबके लिए कल्याणकारी बन जाता है और भगवत्प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ता है। और पाँचवें अध्याय के अंतिम श्लोकों (27–29) में भगवान छठे अध्याय का पूर्वावलोकन (preview) देते हैं – कि कैसे कर्मयोगी आगे चलकर ध्यानयोग या भक्तियोग की ओर बढ़ सकता है।
पाँचवा अध्याय अब तक के अध्यायों में सबसे “गंभीर तत्वज्ञान” वाला अध्याय है। जहाँ पहले अध्यायों में कर्म और ज्ञान का सामान्य विवेचन हुआ, वहीं यहाँ पर भगवान कार्य के कारणों (causality/etiology) और कर्म के पीछे के तत्वों – जीव, ईश्वर और प्रकृति – के समन्वय की विस्तृत विवेचना करते हैं।
इस अध्याय का सार इस प्रकार है:
- कर्मयोग, संन्यास से श्रेष्ठ क्यों है? – क्योंकि कर्मयोगी भीतर से अनासक्त रहते हुए बाहर से कर्म करता है और यह अनासक्ति व्यक्ति को मुक्ति की ओर ले जाती है।
- कर्म के पीछे की संरचना (causality): कोई भी कार्य तभी सफल होता है जब जीव इच्छा करता है, ईश्वर अनुमोदन करते हैं और प्रकृति उसे कार्यरूप में परिणत करती है।
- व्यक्ति के नियंत्रण में क्या है? – केवल अपनी इच्छा। बाकी दो (ईश्वर की अनुमति और प्रकृति की क्रिया) व्यक्ति के बस में नहीं हैं।
- ज्ञान और समदृष्टि का योग: जब व्यक्ति इस तत्वज्ञान को आत्मसात करता है, तो सबमें आत्मा का दर्शन करता है और उसकी चेतना परमात्मा की ओर उन्मुख होती है।
- कर्मयोग का परिपाक: अंततः कर्मयोग व्यक्ति को ध्यानयोग या भक्तियोग की ओर अग्रसर करता है।
यह अध्याय जीवन के बाहरी कर्म और आंतरिक चेतना के बीच संतुलन का बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत करता है – जैसे हनुमान जी राम के लिए लंका गए थे, राम से दूर होते हुए भी राम के और निकट हो गए। वैसे ही जब चेतना शुद्ध होती है, तो व्यक्ति जगत में रहते हुए भी भगवान के और पास पहुँचता है।
“क्षेत्र” का अर्थ है कार्य करने की या प्रभाव डालने की सीमा — यानी area of influence।
कुछ लोगों का क्षेत्र छोटा होता है — जैसे मुझे गुस्सा आए, तो शायद मैं केवल कुछ कठोर शब्द बोल दूं।
किसी पुलिस अधिकारी को गुस्सा आए तो शायद वह किसी पर लाठी चला दे।
किसी सैनिक को गुस्सा आए तो वह गोली चला सकता है।
और अगर किसी देश के राष्ट्रपति को गुस्सा आए — जैसे अमेरिका या रूस के — तो शायद वह परमाणु बटन दबा दे, जिससे लाखों लोगों की मृत्यु हो सकती है।
तो गुस्सा सबको आता है, पर उसके परिणाम क्षेत्र की सीमा पर निर्भर करते हैं।
जिसका influence बड़ा है, उसके कर्मों का प्रभाव भी उतना ही बड़ा होगा। और लोगों को यह बड़ा क्षेत्र क्यों मिला है? — उनके पूर्वकर्मों के कारण।
यदि कोई राजा, लखपति, या राष्ट्रपति बना है, तो यह उसके पिछले पुण्य कर्मों का फल है। परंतु उस शक्ति का प्रयोग वह कैसे करता है — यह उसकी वर्तमान स्वतंत्र इच्छा (free will) पर निर्भर है।
भगवान क्षेत्र देते हैं, पर उसमें हस्तक्षेप नहीं करते।
जैसे कोई व्यक्ति मेहनत से पैसा कमाता है — अब वह उस पैसे से शराब पिए या बचत करे, यह उसका व्यक्तिगत निर्णय है। सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं करती।
वैसे ही यदि किसी ने पूर्वकर्मों से एक बड़ा क्षेत्र पाया है और वह उस क्षेत्र में दुरुपयोग करता है, तो भगवान उसे रोकते नहीं हैं — क्योंकि भगवान ने हर जीव को स्वतंत्र इच्छा दी है।
पर इसका यह अर्थ नहीं है कि उसे कर्मफल नहीं मिलेगा।
कर्म का फल मिलेगा, पर वह तुरंत नहीं आ सकता। जैसे कोई बैंक अकाउंट में बहुत पैसा रखता है — वह अय्याशी करता है, फिर भी कुछ समय तक उसका प्रभाव नहीं दिखता।
पर वही व्यक्ति जिसका अकाउंट खाली है, वह छोटी-सी गड़बड़ी से तुरंत कंगाल हो सकता है।
तो कभी-कभी पूर्वकर्म हमारे वर्तमान दुष्कर्मों के फल को टाल देते हैं, लेकिन टालते हैं, मिटाते नहीं।
जैसे कोई दसवीं मंज़िल से कूदे तो कुछ ही सेकंड में नीचे गिर जाएगा। लेकिन कोई हवाई जहाज़ से कूदे, तो गिरने में ज़्यादा समय लगेगा।
हो सकता है गिरते समय उसे हवा भी अच्छी लगे, पर अंत निश्चित है — गिरना और टूटना।
तो इससे क्या समझ आता है?
God’s sanction ≠ God’s intention.
भगवान की अनुमति और भगवान की इच्छा में अंतर है।
भगवान कभी यह इच्छा नहीं रखते कि कोई आतंकवादी आकर निर्दोष लोगों को मार डाले।
लेकिन अगर वह व्यक्ति ऐसा करना चाहता है, और उसे वैसा करने की क्षमता मिली है, तो भगवान उसकी स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं करते।
कुछ लोग कहते हैं, “सब भगवान की इच्छा से होता है।”
पर यह शास्त्रसम्मत नहीं है। ऐसा कोई श्लोक नहीं है जो कहे कि हर कार्य भगवान की इच्छा से होता है।
हाँ, भगवान सर्वोच्च नियंत्रक (supreme controller) हैं, पर वे अकेले नियंत्रक (sole controller) नहीं हैं।
जीव, ईश्वर और प्रकृति — ये तीनों मिलकर इस जगत को संचालित करते हैं।
भगवद-गीता (13.23) में भगवान कहते हैं:
“उपद्रष्टा अनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः…”
— मैं सब देखता हूं, अनुमति देता हूं, लेकिन कर्म में बंधता नहीं हूं।
भगवद-गीता 9.6 में भगवान कहते हैं:
“यथा आकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।”
— जैसे वायु आकाश में विचरण करती है पर आकाश उसे रोकता नहीं, वैसे ही आत्मा इस शरीर रूपी क्षेत्र में विचरण करती है।
तो जैसे आकाश वायु को अनुमति देता है लेकिन उसे दिशा नहीं देता, वैसे ही भगवान sanction तो करते हैं, पर हर क्रिया की intention उनकी नहीं होती।
अतः जब कहा जाता है — “Not a blade of grass moves without God’s will” — तो उसमें “will” को समझना ज़रूरी है:
वह “will” sanction है, intention नहीं।
प्रैक्टिकल निष्कर्ष:
हमें सत्संग में आते रहना चाहिए, जैसे आप आ रहे हैं। भक्तों से जुड़िए, मार्गदर्शन लीजिए। जब हम स्वयं में गिरावट अनुभव करते हैं, तब भी resilient रहिए — यानी, गिरें लेकिन उठें भी।
कभी हम consistent नहीं रह पाते — यानी लगातार उच्च भाव में नहीं रह पाते — तब भी persistent बने रहिए।
शुद्ध भावना से सेवा की इच्छा ही हमारी सबसे बड़ी संपत्ति है — और भगवान उसी को देखते हैं।
तो जब भी हम गिरें, तुरंत रुकें और स्वयं को बदलने का प्रयास करें।
Resilience का अर्थ है — हम गिरेंगे, लेकिन तुरंत उठेंगे।
और जब हम यह अभ्यास करते रहेंगे, तो धीरे-धीरे हम समझ जाएंगे कि किस परिस्थिति में हम बार-बार गिरते हैं।
तब हम अधिक सजग और सावधान रहकर उस परिस्थिति में गिरने से बच सकते हैं।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि समस्या क्यों आ रही है — यह समझना कठिन होता है।
जैसे समुद्र में लहरें क्यों आती हैं? यह हम नहीं जान सकते।
लहरें आना तो सामान्य है, पर कभी-कभी कोई लहर इतनी बड़ी होती है कि वह किसी को बहाकर ले जा सकती है।
तो हम क्या करें?
हम लहरों को रोक नहीं सकते, लेकिन हम लंगर (anchor) से खुद को बाँध सकते हैं।
अगर समुद्र में कोई मज़बूत लंगर है और हम उसे पकड़ना सीख लें, तो चाहे कितनी भी बड़ी लहर आए, वह हमें डगमगाएगी ज़रूर, पर बहुत दूर नहीं बहा पाएगी।
इसलिए चिंता मत करो अगर कभी-कभी कुछ गलत हो जाए।
प्रश्न यह नहीं है कि हम गिरे या नहीं।
प्रश्न यह है कि गिरने के बाद हम क्या करते हैं?
हम माया को नहीं पकड़ सकते — वास्तव में माया ही हमें पकड़ती है।
माया को रोकना कठिन है, लेकिन भगवान को पकड़ना संभव है।
क्रोध आएगा, लोभ आएगा, ईर्ष्या भी आएगी — और कभी-कभी हम उनसे प्रभावित होकर कुछ गलत कर भी देंगे।
लेकिन अगर हम भगवान को थामे रहें, तो वह प्रभाव सीमित रहेगा।
If we hold on to Krishna long enough, nothing else can hold on to us for that long.
— यदि हम कृष्ण को पर्याप्त समय तक थामे रखें, तो कोई भी चीज़ हमें उतने समय तक थाम नहीं सकती।
क्योंकि हमारा कृष्ण के साथ का संबंध शाश्वत है, अनित्य चीज़ें केवल थोड़े समय तक ही हमें प्रभावित कर सकती हैं।
और यही सबसे महत्वपूर्ण है।
(थोड़ी देर हो गई है, लेकिन यह बात मन से मन तक की थी।
अब हम यहीं इस कक्षा को विराम देते हैं।)
श्रीमद् भगवद-गीता की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
सभी भक्तवृन्द की जय!